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    Saturday, April 27, 2024
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      द फर्स्ट पॉल्टिकल मर्डर ऑफ बिहारः यदि ‘वे’ जिंदा होते तो ‘श्रीबाबू’ प्रथम मुख्यमंत्री न होते

      “हमें भी याद रखें, जब लिखें तारीख़ गुलशन की, कि हमने भी जलाया है चमन में आशयां अपना…”

      पटना (एक्सपर्ट मीडिया न्यूज़ डेस्क)। आजादी की लड़ाई का एक महान योद्धा, मजदूर नेता और 74 साल पहले बिहार प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष रहे प्रो. अब्दुल बारी एक ऐसे राजनीतिक शख्शियत थे, जिन्हें आज इतिहास ने भूला दिया।

      अब शायद ही बिहार की राजनीति में उन्हें याद किया जाता है। समय की मोटी परत ने उनके व्यक्तित्व और कृतित्व की यादों को दफन कर दिया है।

      बिहार की राजनीति में 74 साल पहले प्रो.. अब्दुल की हत्या बिहार की राजनीति की पहली ‘पोलिटिकल मर्डर’ मानी जाती है। जिसने असमय बिहार के एक महान नेता को हमसे छीन लिया गया।

      महात्मा गांधी से लेकर जवाहरलाल नेहरू और डॉ राजेन्द्र प्रसाद उनकी प्रतिभा के कायल थे। उनकी तुलना सुभाषचन्द्र बोस के समकक्ष हुआ करती थी।

      28 मार्च, 1947 को पटना के नजदीक फतुहा में पुलिस की चली गोली में वे शहीद हो गए। ऐसा कहा जाता है कि अगर प्रो. बारी जीवित होते तो बिहार के पहले सीएम श्रीकृष्ण सिंह नहीं बल्कि वे होते।

      28 मार्च, 1947 अंधेरे को चीरते हुए पटना की ओर एक गाड़ी तेजी से भागी चली जा रही थी। अलस्सुबह फतुहा में ही सड़क के बीचों-बीच एक पुलिस दल ने गाड़ी को हाथ दिखाकर रोका। चालक ने गाड़ी रोक दी।

      गाड़ी की पिछली सीट पर बैठे एक दुबले-पतले खद्दरधारी शख्स ने झल्लाते हुए पुलिस वालों से पूछा, क्या बात है? ज़बाब मिला, आपकी गाड़ी की तलाशी लेनी है।

      गाड़ी में बैठे शख्स ने कहा, अजीब बात है, आपलोग को शायद पता नहीं है कि मेरा नाम प्रो. अब्दुल बारी है, मैं बिहार प्रदेश कांग्रेस का अध्यक्ष हूं। हजारीबाग से आ रहा हूं। महात्मा गांधी पटना आ रहें हैं और उनकी आगवानी में जा रहा हूं।

      पुलिस वाले नहीं माने। वे गाड़ी जांच की बात कहने लगे। प्रो. बारी अपना संयम खो बैठे और पुलिस वाले के साथ हाथापाई की नौबत आ गई। इस प्रक्रिया में पुलिस ने उन पर गोली चला दी और प्रों बारी ने वहीं दम तोड़ दिया।

      इस हत्या से बिहार की राजनीति में भूचाल आ गया। कांग्रेस की अंतरिम सरकार में उनके ही प्रदेश अध्यक्ष की हत्या हो जाती है। अब्दुल बारी जैसे दिग्गज नेता से पुलिस के तस्कर विरोधी दस्ते को भला क्या लेना देना था।

      यह सवाल एक साल तक सभी के मस्तिष्क में कौंधता रहा। आजादी के बाद 1948 में पटना के एडिशनल सेशन जज राय साहब पीके नाग की अदालत में यह मामला चला लेकिन, बिना किसी नतीजे तक पहुंचें मामला रफा-दफा हो गया। बाद में पुलिस ने भी माफी मांग ली कि प्रो. बारी पर गोली धोखे से चल गई थी।

      प्रो. अब्दुल बारी की हत्या की खबर सुनकर महात्मा गांधी को काफी सदमा लगा। वह अल्लागंज से रात में ही पटना पहुंचे और 29 मार्च की सुबह उनकी शवयात्रा में शामिल हुए। उन्हें पटना के पीरमुहानी कब्रिस्तान में दफ्न किया गया। महात्मा गांधी ने उन्हें एक जुझारू और इमानदार नेता बताते हुए उन्हें आखिरी उम्मीद बताया।

      महात्मा गांधी ने स्पष्ट तौर पर कहा था कि प्रो. बारी की हत्या के पीछे किसी तरह की राजनीति नहीं है। लेकिन तब अंतरिम सरकार के पहले पीएम बैरिस्टर मो युनूस ने गांधीजी के बयान को जल्दबाजी में दिया गया बयान बताया था।

      उन्होंने खुलासा किया था कि प्रो. बारी ने अपनी मौत से कुछ दिन पूर्व बताया था कि वे कांग्रेस के कुछ प्रमुख लोगों का नाम उजागर करने वाले हैं, जिन्होंने बिहार नरसंहार कराया था।

      वे राजनीतिक हत्या के शिकार हुए थें, क्योंकि उनकी लोकप्रियता ने बिहार के कई वरिष्ठ नेताओं के राजनीतिक अस्तित्व पर खतरनाक दस्तक देना शुरू कर दिया था।

      जब गांधी ने कहा- अभी तक जिंदा है….

      कहते हैं कभी कभी किसी का कहा हुआ सच भी हो जाता है। ऐसा ही अब्दुल बारी के साथ हुआ। कांग्रेस अध्यक्ष की हत्या से 23 दिन पहले जब महात्मा गांधी ने अब्दुल बारी को देखा तो वे हंसे और बरबस उनके मुंह से निकल गया’ क्या अभी तक जिंदा है’? लेकिन महात्मा गांधी कभी सोचें भी नहीं होंगे कि अब्दुल बारी हमसे दूर चले जाएंगे। महात्मा गांधी और अब्दुल बारी की यह आखिरी मुलाकात साबित हुई।

      5मार्च,1947 की सुबह महात्मा गांधी कलकत्ता से फतुहा स्टेशन पहुंचे जहां श्रीकृष्ण सिंह के साथ अब्दुल बारी भी महात्मा गांधी से मिलने पहुंचे हुए थे। गांधी जी ने अब्दुल बारी को देखा और मुस्कुराए उन्होंने उनकी तरफ देखकर कहा, क्या अभी तक जिंदा है?

      इस घटना का जिक्र निर्मल कुमार ने अपनी किताब “माई डेयज विथ गांधीजी” में की है, जो उस वक्त गांधीजी के साथ फतुहा स्टेशन पर थे।

      अब्दुल बारी एक जोशीले नेता थे और कई बार अपनी भाषा में मर्यादाओं का उल्लघंन कर बैठते थे। वे अपने भाषणों में टाटा वर्कर्स यूनियन के अध्यक्ष रहने के नाते प्रबंधकों पर जमकर बरसते थे और कठोर शब्दों का प्रयोग करते थे।

      जवाहरलाल नेहरू और डॉ राजेन्द्र प्रसाद द्वारा तैयार की गई एक रिपोर्ट में प्रो. बारी की अमर्यादित भाषा का उल्लेख किया गया था। कहा जाता है कि एक दूसरे के विरोधी होने के बाबजूद बारी और जेआरडी टाटा के बीच अच्छी पटती थी।

      प्रो. अब्दुल बारी 1892 को बिहार के ज़िला भोजपुर के गांव शाहबाद मे पैदा हुए। पटना कॉलेज और पटना यूनिवर्सटी से आर्ट्स में मास्टर डिग्री की हासिल की। 1917 में महात्मा गांधी के साथ इनकी पहली मुलाक़ात हुई, जब मौलामा मज़हरुल हक़ गांधी की मेज़बानी पटना में कर रहे थे।

      उन्होंने रॉलेक्ट ऐक्ट का जम कर विरोध किया, वहीं ख़िलाफ़त आंदोलन और असहयोग आंदोलन में हिस्सा लिया।

      1920-22 मे हुए ख़िलाफ़त और असहयोग आंदोलन के समय राजेंद्र प्रसाद, अनुग्रहण नारायण सिंह, श्रीकृष्ण सिंह के साथ कंधे से कंधे मिला कर पूरे बिहार में बिगुल फूंका। 1930 मे प्रो.फ़ेसर अब्दुल बारी ने भागलपुर में सत्याग्रह अंदोलन छेड़ा, जिसमें डॉ. राजेन्द्र प्रसाद उनके साथ थे।

      1937 में राज्य चुनाव में 152 के सदन में 40 सीटें मुस्लिमों के लिए आरक्षित थीं, जिनमें 20 सीटों पर ‘मुस्लिम इंडीपेंडेंट पार्टी’ और पांच सीटों पर कांग्रेस ने जीत हासिल की।

      शुरू में कांग्रेस पार्टी ने मंत्रिमंडल के गठन से यानी सरकार बनाने से इंकार कर दिया तो राज्यपाल ने दूसरी सबसे बड़ी पार्टी के नेता के रूप में बैरिस्टर मो. यूनुस को प्रधानमंत्री (प्रीमियर) पद का शपथ दिलाया।

      लेकिन चार महीने बाद जब कांग्रेस मंत्रिमंडल के गठन पर सहमत हो गई तो यूनुस ने अपने पद से इस्तीफ़ा दे दिया।

      1937 में बिहार मे पहली बार कांग्रेसी की हुकुमत अस्तित्व में आई, और अब्दुल बारी चंपारण से जीत कर असेंबली पहुंचे थे और उन्हे इस शासन मे असेबली का उपसभापति बनाया गया।

      प्रो. अब्दुल बारी वही शख़्स हैं, जिनके एक आह्वान पर अक्तुबर, 1946 को पूरा पटना शहर जलने से बच गया था। जब बिहार के मगध का पुरा इलाक़ा दंगों  से जूझ रहा था। जिसमे सिर्फ़ आठ दिन के अंदर कई हजार लोग मारे गए।

      अब्दुल बारी की हत्या के बाद बिहार में फिर दंगा भड़का, तो गांधीजी के कहने पर जवाहर लाल नेहरु ने फिर बिहार का दौरा किया और अनुग्रह नारायण सिंह के साथ  नेहरु तीन दिनों तक पैदल सड़कों पर घूम- घूम कर लोगों से शांति बनाये रखने की अपील करते रहे।

      वैसे अब्दुल बारी की हत्या के बाद उनके सम्मान में मैदान, सड़क और शिक्षण संस्थानों के नाम उनके नाम पर रखें गये। जिनमें गोलमुरी जमशेदपुर में अब्दुल बारी मेमोरियल कालेज खोला गया है।

      वहीं जहानाबाद में अब्दुल बारी टाऊन हाल है, साक्ची जमशेदपुर में बारी मैदान है, पटना में प्रो.फ़ेसर अब्दुल बारी टेकनिकल सेंटर है, पटना में प्रो.फ़ेसर अब्दुल बारी पथ है, नोआमुंडी माईन सिंहभूम झारखंड में प्रो.फ़ेसर अब्दुल बारी मेमोरियल हाई स्कूल है, बर्णपुर आसनसोल में बारी मैदान है।

      उन्नीसवीं सदी मे बना कोईलवर का पुल इक्कीसवीं सदी में भी गर्व से अपनी सेवाएं आज भी दे रहा है। जिसका नाम भी प्रो. अब्दुल बारी के नाम पर रखा गया  अब्दुल बारी पुल।

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