“जे होवे के रह हय, उ त हो ही के न रह तय। ओकरा कोय आझू तक रोक सकल हय। जे गत तोर, ओ ही गत मोर… अपन नालंदा के मुंह से सांत्वना के ये बोल अन्यास ही फूट पड़ते हैं, जब किसी के गम को धुआं दिखाना होता है। इस उक्ति का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण कोई तब तक नहीं कर सकता, जब तक वार्ताकार के चेहरे को न झांक ली जाए…”
✍मुकेश भारतीय
नालंदा जिले के मदारपुर भोभी गांव निवासी जज राजीव कुमार, जो रोसड़ा कोर्ट में पदास्थापित थे, उनकी अचानक मौत के बाद बिखरते परिवार और सिमटते समाज के तार कचोट गई थी, जैसा कि गांव-जेवार में अमुमन कम ही देखा जाता है। अंदर से एक टीस उभर कर आई थी कि ऐसे पछुआ गइर (तेज धूल धूसरित आंधी) में कौन से पेड़ की डाली पर पत्ते शेष मिलेंगे।
हम जानते हैं कि यह किसी व्यक्ति और परिवार का नीजि मामला है और उसमें कोई सीधे दखल नहीं दे सकता। लेकिन इस बात से कोई इंकार नहीं कर सकते कि जब घटनाक्रम समाज और व्यवस्था को प्रभावित करने लगे तो उसे रोकने की जिम्मेवारी सबकी हो उठती है।
मीडियो का क्या है। उसे तो बस रोचक, दिलचस्प और सनसनीखेज खबरों से मतलब है। शासन का क्या है। उसका भी अपना परिधि बना हुआ है। अन्य कर्ताओं के भी अलग ही आयने हैं। जज राजीव की मौत के बाद इन सबका साफ अहसास हुआ।
खैर, सो होना था वह हो गया। उनका दशकर्म गांव में शुरु है। पिता-भाई यह जबावदेही निभा रहे हैं। उनकी पत्नी अभी गांव में नहीं हैं। वह कहां हैं, इसकी पुष्टि कहीं से नहीं हो रही है। कोई मायके तो कोई बिहार शरीफ अवस्थित एक नीजि मकान में होने की बात बता रहे हैं।
ऐसे में किसी ऐसे समर्थ अगुआ (मीडिएटर) की जरुरत है, जो अन्यास एक परिवार के मनभेद को मिटा सकें। संपति विवाद भी नहीं है। पिता वर्षों पूर्व अपने चारो पुत्रों के बीच रजिस्ट्री कोर्ट से संपति का बंटबारा कर चुके हैं। अब नाहक अहं दिखाने का कोई तुक नहीं रह जाता है।