बंदूक से केवल गोली निकलती है। आग निकलती है। और धुआं निकलता है। बंदूक जान लेती है। बंदूक से केवल खून बहेगा। मौतें होंगी। जिससे सिर्फ और सिर्फ बदले की भावना जगेगी, जिसे हासिल करने में फिर बंदूक गरजेगा। बंदूक से सत्ता बदलने की चाह रखनेवालों का सत्र वाक्य है।
सत्ता बंदूक की नली से निकलती है। लेकिन यह सूत्र वाक्य सुनाने वाले जानते हुए भी यह नहीं मानते कि बड़ी बंदूक (तोप) रखनेवाला सत्ता का मालिक बन जाता है। तभी तो सशस्त्र क्रांति पुरोद्धा, मौ के शासन काल में ही उनकी पत्नी ने विद्रोह कर दिया था।
तेलंगना से बंदूक के बुते सत्ता पर काबिज करने की बुनियाद डाली गयी थी। उसके बाद के छह दशक में बंदूकों ने सिफ खून बहाया।
बड़ी बंदूकवालों में सर्वहारा को सत्ता दिलाने के नाम पर इस दौरान महानगरों में अलिशान महल खड़ी कर लिये।
जनता को गोलबंद कर उनकी ताकत से सत्ता बदलने की कोशिश में जुटे महेन्द्र सिंह सरीखे नेताओं की हत्या कर दी। छत्तिसगढ़ में 27 कांग्रेसियों की हत्या कर देने से सर्वहारा की सत्ता क्या स्थापित हो जायेगी?
शोषक पूंजिपति वहां से भाग जायेंगे ? साहुकार और सरकार लोगों को लुटना बंद कर देगी। इस तरह के अनेकों सवाल है, जिनका जवाब बंदूक से सर्वहारा की सत्ता स्थापित करनेवालों की समूह को ढूंढना चाहिए।
गांधीजी ने बंदूक के खिलाफ अहिंसक क्रांति की शुरूआत हुई। जनता को गोलबंद किया। और जिसके राज में सूरज नहीं डूबता था, उन अंग्रेजो को हिन्दुस्तान से खदेड़ दिया। जनता गोलबंद और जागरूक नहीं होगी, तो बंदूक के भरोसे सत्ता बदलने की चाह सपना ही बना रहेगा।
आखिर जनता को डराकर बंदूक से अपने पक्ष लेकर सर्वहारा का शासन स्थापित करने की दिवानगी का अंजाम किया है। सिवाय खून बहाने के। यह बहस किसी पूंजिपति की ओर से नहीं है। एक आसान सा सवाल है। जिसका जवाब आसानी से ढूंढा जा सकता है। (वरिष्ठ पत्रकार मधुकर जी अपने फेसबुक वाल पर)