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    Thursday, May 2, 2024
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      नीतीश जी,  कब तक यूं ही बीमार रहेगी आपकी स्वास्थ्य व्यवस्था ?

      “बिहार के मुज़फ्फरपुर ज़िले में 109 बच्चों की मौत हो चुकी है। यह आधिकारिक आंकड़ा है। मीडिया में आंकड़ा तो 130 पार कर गया है। जब तक हम पूरे बिहार के हेल्थ सिस्टम और बजट को नहीं समझेंगे, बड़े सवाल नहीं करेंगे……”

      पटना (एक्सपर्ट मीडिया न्यूज नेटवर्क)।  मुख्यमंत्री नीतीश कुमार पहली बार श्री कृष्ण मेडिकल कालेज गए। इतने दिनों से इस घटना पर रिपोर्टिंग हो रही है, लेकिन कई दिनों के बाद जब मुख्यमंत्री अस्पताल जाते हैं तो उन्हें पता चलता है कि अस्पताल में डाक्टर नहीं हैं और साफ सफाई ठीक नहीं है।

      यह तब पता चला जब मुख्यमंत्री से पहले बिहार के स्वास्थ्य मंत्री जा चुके हैं। केंद्र के स्वास्थ्य मंत्री वहां जा चुके हैं। इसके बाद भी अगर अस्पताल की सफाई ठीक नहीं है और वहां पर्याप्त डाक्टर नहीं हैं तो सवाल वही है कि इन दौरों से क्या हासिल हो जाएगा।

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      नीतीश कुमार यहां के आईसीयू वार्ड में जाते हुए दौरे की औपचारिकता पूरी कर रहे हैं या बिहार के स्वास्थ्य व्यवस्था की अपनी बनाई तस्वीर को देख रहे हैं। श्री कृष्ण मेडिकल कालेज बिहार के पहले मुख्यमंत्री के नाम पर बना है। इसका उद्घाटन भी बिहार के मुख्यमंत्री दारोगा प्रसाद राय ने किया था। लेकिन 59 साल के इतिहास में इस मेडिकल कालेज में बाल रोग विशेषज्ञ बनाने के लिए पोस्ट ग्रेजुएट की सीट नहीं है।

      यह मेडिकल कालेज है, पढ़ाई भी होती है और यहां अस्पताल भी है। अगर इस अस्पताल की यह हालत है कि इतनी तबाही के बाद मुख्यमंत्री को डाक्टर कम नज़र आया तो फिर बाकी की क्या स्थिति होगी, आप सहज अंदाज़ा कर सकते हैं। इस अस्पताल में बाल रोग विशेषज्ञ बनाने के लिए पीजी की पढ़ाई नहीं होती।

      अब जब सवाल उठा है तो मीडिया में प्रिंसिपल का इंटरव्यू आने लगा है कि स्वास्थ्य सचिव ने पीजी की सीट के लिए प्रस्ताव मांगा है। हर सवाल का जवाब घोषणा है, प्रस्ताव है। 49 साल का कालेज है, अब प्रस्ताव मंगाने का ख्याल आया है ताकि जल्दी से गुस्सा शांत हो या धूल झोंका जा सके।

      अगर यहां पोस्ट ग्रेजुएट की दस सीटें होतीं तो आपात स्थिति में संभालने के लिए कुछ डाक्टर भी होते। इसी अस्पताल में सर्जरी और गाइनी विभाग में पोस्ट ग्रेजुएट की दस-दस सीटें देने की बात हुई थी, मगर असिस्टेंट प्रोफेसर की बहाली ही नहीं हो सकी तो यहां पीजी की सीट नहीं आई।

      सोचिए यहां सर्जरी होती है, लेकिन सर्जरी की पोस्ट ग्रेजुएट पढ़ाई नहीं होती है। पिछले सात साल में यहां तीन बार 100 से अधिक बच्चों के मरने की घटना हुई है। इसके बाद भी यहां एक्यूट एंसिफलाइटिस सिंड्रम के लिए अलग वार्ड नहीं बना। इसकी चुनौतियों से निबटने के लिए यहां पढ़ने वाले छात्रों को पोस्ट ग्रेजुएट की सीट नहीं है।

      सन 1970 में एसके मेडिकल कालेज की स्थापना हुई थी। इतना पुराना मेडिकल कालेज है और यहां सर्जरी और बाल रोग विभाग में पोस्ट ग्रेजुएट की सीट नहीं है। लेकिन बिहार के प्राइवेट मेडिकल कालेजों में पोस्ट ग्रेजुएट की सभी सीटें हैं। इसका संबंध धंधे से है, सीटों को बेचने से है।

      समझिए इस बात को। प्राइवेट कालेजों में पोस्ट ग्रेजुएट की सीट की फीस करोड़ रुपये होती है। चूंकि सरकार के अस्पतालों में गरीब बच्चे जाते हैं, मर जाते हैं या इलाज के नाम पर दिल्ली या पटना के लिए रेफर हो जाते हैं इसलिए किसी को पता नहीं चलता है। मुख्यमंत्री ने दौरा तो किया मगर मीडिया से बात नहीं की।

      यहां बच्चों का वार्ड नहीं बन सका लेकिन 109 बच्चों की मौत के लांछन से बचने के लिए धर्मशाला बनाने की बात हो रही है। तो फिर बिहार के सारे अस्पतालों में मरीज़ों के परिजनों को रुकने के लिए धर्मशाला क्यों नहीं बन सकती है? क्या सब कुछ अगले दिन के अखबार में मोटी हेडलाइन हासिल करने के लिए कहा जा रहा है ताकि 109 बच्चों की मौत की ख़बर छोटी हो जाए।

      हरियाणा के झज्जर में बन रहे नेशनल कैंसर इंस्टीट्यूट को देखिए। दो-दो प्रधानमंत्री का हाथ लगा है इसमें। जनवरी 2014 में मनमोहन सिंह आधारशिला रखते हैं। फरवरी 2019 में प्रधानमंत्री मोदी उद्घाटन करते हैं। 2015 में जेपी नड्डा स्वास्थ्य मंत्री रहते हुए भूमि पूजन करते हैं।

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      2018 तक 710 बिस्तरों वाला कैंसर का यह अस्पताल बनकर तैयार हो जाना चाहिए था क्योंकि इसकी निगरानी प्रधानमंत्री कार्यालय कर रहा था। इसके बाद भी जब तीन साल बाद 2019 में प्रधानमंत्री मोदी ने इसका उदघाटन किया तो मात्र 20 बिस्तर ही बने थे। जबकि जेपी नड्डा 21 अक्टूबर 2016 को ट्वीट करते हैं और कहते हैं कि अप्रैल 2018 तक इस अस्पताल को आपरेशनल किया जाए।

      मंत्री रहते हुए जेपी नड्डा ने ट्वीट किया था।  लेकिन जब प्रधानमंत्री उद्घाटन करते जाते हैं तो दो साल में मात्र 20 बिस्तर ही तैयार था। 20 बिस्तरों को बाकी सुविधाओं से लैस कर चालू करने में जब तीन साल का वक्त लग गया।

      बिहार में नीतीश कुमार एक साल में 900 से अधिक बिस्तर जोड़ देंगे। 49 साल के इतिहास में यहां 610 बेड ही जुड़े हैं। इस हिसाब से हर साल 10-15 बेड की ही बढ़ोत्तरी होगी। 1500 बेड चलाने के लिए डाक्टर कहां से लाएंगे, इसके बारे में मुख्यमंत्री कुछ नहीं बोल कर गए। बड़ी-बड़ी हेडलाइन छप गई।

      इस हिसाब से अंदाज़ा लगाइए कि क्या बिहार में एक साल के भीतर 900 बेड बन जाएगा। इसलिए हेडलाइन लूटने वाली खबरों को ठीक से समझिए। राजनीतिक बयान और वास्तविकता में अंतर होता है।

      झज्जर का उदाहरण दिया ताकि आप मुज़फ्फरपुर को लेकर हो रही घोषणाओं को समझ सकेंगे। यहां पहले से एक 300 बिस्तरों वाला सुपर स्पेशियालिटी अस्पताल बन रहा है जो जल्दी ही तैयार हो जाएगा। इस तरह के अस्पताल में प्रति बेड की लागत 80 लाख से एक करोड़ होती है। इसमें बिल्डिंग से लेकर बिस्तर, उपकरण सभी खर्चे शामिल होते हैं।

      तो क्या नीतीश कुमार 1500 बेड के लिए 1500 करोड़ रुपये का बजट पास करने वाले हैं। कब पास करेंगे? 2500 बेड का सुपर स्पेशियालिटी अस्पताल बनाने के लिए 2500 करोड़ कब देने वाले हैं? अगर मल्टी स्पेशियालिटी अस्पताल बनाने हैं तो ऐसे अस्पताल में प्रति बेड का खर्चा 40 से 45 लाख होता है। तो भी 750 करोड़ के आसपास का खर्चा आएगा।

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      क्या बिहार सरकार ने बजट मंज़ूर किया है। इसलिए हेडलाइन से सावधान रहें। यही नहीं एक ही जिले में 2500 बेड की घोषणा कर गए। इसमें तीन अस्पताल बन जाएंगे। क्या ये अस्पताल आसपास के ज़िले में बनते तो अच्छा नहीं रहता। मोतिहारी में भी बन जाता है और बेगूसराय में भी। जब तक आप अस्पतालों के ढांचे को नहीं समझेंगे 109 बच्चों की मौत के कारणों को नहीं समझेंगे और आने वाले समय में ऐसे हादसे को नहीं रोक पाएंगे। 

      15 साल से नीतीश कुमार मुख्यमंत्री हैं। हालत यह है कि उन्हें पटना और दरभंगा से डाक्टर बुलाने के आदेश देने पड़े हैं वो भी तब जब 130 बच्चे मर गए हैं। 2014 में जब यहां डा हर्षवर्धन आए थे तब कहा था कि श्री कृष्ण मेडिकल कालेज में एमबीबीएस की सीटों की संख्या 150 से बढ़ाकर 250 कर देंगे। 2014 से 2019 आ गया यहां पर 100 सीटें ही हैं अभी तक। बल्कि 2014 में 139 बच्चों के मरने की घटना से पहले मेडिकल काउंसिल आफ इंडिया ने इस कालेज की सीटें 100 से घटाकर वापस 50 कर दी थीं, जिसे घटना के बाद 100 कर दिया गया।

      ज़ाहिर है इस अस्पताल में डाक्टरों की कमी है। डाक्टरों पर दबाव है। सिस्टम ने भी डाक्टरों को इस हालत में पहुंचा दिया है। डाक्टरों ने भी खुद को इस हालत में पहुंचाए रखा है। जिसका नतीजा 109 बच्चों की मौत है। जो लोग नीतीश कुमार के जाने पर प्रदर्शन करने गए थे उन्हें ये काम मुख्यमंत्री के पटना लौट जाने के बाद भी करते रहना चाहिए। जनता का दबाव बनेगा, तो अस्पताल भी बनेगा और डाक्टर भी होगा।

      साल 2012 में नीतीश कुमार ही मुख्यमंत्री थे जब 178 बच्चे मरे थे, 2014 में नीतीश कुमार ही मुख्यमंत्री थे जब 139 बच्चे मरे थे, 2019 में नीतीश कुमार ही मुख्यमंत्री हैं जब 130 बच्चों की मौत हो चुकी है। अस्पताल को सारी सुविधाओं से लैस करने के लिए सात साल का वक्त काफी था। कुछ सुधार हुआ मगर नाम का ही।

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      इस समय इस अस्पताल में जो आईसीयू है उसका हाल भी समझना चाहिए। 17 दिनों में 130 बच्चे मरे तो आनन फानन में पिडियाट्रिक आईसीयू की संख्या चार कर दी गई। उसके पहले इस वक्त इस अस्पताल में एक ही पीआईसीयू था जिसमें 14 बेड हैं। बाद में चार और आईसीयू बनाए गए और तब संख्या 40 बेड की हुई जो अभी भी पर्याप्त नहीं है। दूसरे विभागों के वार्ड को ही आईसीयू में बदल दिया गया। जहां एक बिस्तर पर चार-चार बच्चों को रखा गया है। इसे आईसीयू की जगह एयरकंडीशन जनरल वार्ड कहा जाना चाहिए।

      क्या आपने ऐसा आईसीयू देखा है, जहां पचासों लोग चल रहे हों। मंत्री दौरा कर रहे हों। कैमरा अंदर से रिकार्ड कर रहा हो। इंडियन सोसायटी ऑफ क्रिटिकल केयर मेडिसिन की साइट पर आईसीयू को लेकर एक दिशा निर्देश है।

      इसमें कहा गया है कि किसी अस्पताल में 100 बेड पर एक से चार आईसीयू बेड होना चाहिए। इनमें 8 से 12 बेड क्षमता हो सकती है। सवा सौ से डेढ़ सौ वर्ग फीट एरिया में एक बेड होना चाहिए, लेकिन यहां आप देख सकते हैं कि हर बिस्तर एक-दूसरे के कितने करीब है। बिस्तरों के बीच पार्टीशन भी नहीं है। आईसीयू में हर कोई आ-जा नहीं सकता।

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      इमरजेंसी को छोड़ एक ही एंट्री एग्ज़िट होनी चाहिए। मगर यहां तो आप हालत देख लीजिए क्या है। इस अस्पताल में डाक्टरों के लिए भी खास सुविधा नहीं है। डाक्टरों ने बताया कि पानी की सुविधा नहीं है। तो मरीज़ों की क्या हालत होती होगी।

      इस अस्पताल का आईसीयू जनरल वार्ड ही नहीं अस्पताल के बाहर का मैदान बन गया है। आप जानते हैं कि आईसीयू में आवाज़ की सीमा भी तय होती है। धीमी आवाज़ ज़रूरी होती है लेकिन यहां हर व्यक्ति ज़ोर ज़ोर से बात कर रहा है। रिपोर्टर भी वहां से अपनी रिपोर्ट चीखते हुए फाइल कर रहे हैं।

      बिहार की जनता मरीज़ को एंबुलेंस पर लादकर गांव से पटना ले जाना समझती है लेकिन अपने शहर और कस्बे के अस्पताल की चिन्ता नहीं करती है। आपको पता होना चाहिए कि मुख्यमंत्री नीतीश कुमार अपना सालाना चेकअप दिल्ली आकर एम्स में कराते हैं।

      शुक्र है अमेरिका नहीं जाते हैं, मगर पटना में भी तो एम्स है, फिर नीतीश कुमार को दिल्ली क्यों आना पड़ता है। जब आप इस सवाल का जवाब ढूंढेंगे तो पता चलेगा। तभी डा हर्षवर्धन भी झुंझला से गए क्योंकि वे जानते हैं कि इतनी जल्दी कुछ नहीं हो सकता।

      जब अस्पताल बेहतर होता तो ज़ाहिर है प्राइमरी हेल्थ सेंटर भी बेहतर होता। इस वक्त प्राइमरी हेल्थ सेंटर में दो बिस्तरों वाले आईसीयू के बनाने की बात कही जा रही है लेकिन आप समझ सकते हैं जब ज़िला अस्पताल का आईसीयू इस हाल में है तो वहां क्या होगा। बिस्तर के बगल में आक्सीजन सिलेंडर खड़ा कर देने से आईसीयू नहीं बन जाता है।

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      तो डाक्टर क्यों नहीं हैं, यह सवाल पूछने में आपने देर कर दी। डाक्टर पटना और दरभंगा से लाए जाएंगे, लेकिन वहीं क्या पर्याप्त डाक्टर हैं। ध्यान रखिए कि बिहार में लू लगने से 100 से अधिक लोगों की मौत हो चुकी है। उन अस्पतालों में आपात चिकित्सा पर क्या असर पड़ेगा। पटना मेडिकल कालेज में भी 40 फीसदी डाक्टरों की कमी है। दरभंगा मेडिकल कालेज में भी 50 फीसदी डाक्टरों की कमी है।

      बिहार में डाक्टरों के 11, 734 पद स्वीकृत हैं, 6000 के करीब ही डाक्टर हैं। इसमें से भी करीब 2000 डॉक्टर कांट्रेक्ट पर हैं। 2300 ही स्थायी हैं। बिहार में 17,685 लोगों पर एक डाक्टर है।

      गनीमत है कि मीडिया अभी मुज़फ्फरपुर के अस्पताल को लेकर ही सक्रिय है। अगर वो बाकी अस्पतालों में घूमने लगा तो अस्पताल कम दिखेंगे बिहार की गरीबी ज्यादा दिखेगी। इसी के साथ श्री कृष्ण मेडिकल कालेज अस्पताल के अन्य वार्डों की तस्वीरें देखें तो आपको अंदाज़ा हो जाएगा कि ग़रीबी वरदान है।

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      यहां के गलियारों में पसरे हुए लोग ग़रीब न होते तो इंग्लिश में ट्वीटर पर हैश टैग कर रहे होते। वे चुपचाप पड़े हुए हैं। यहां के गाइनी वार्ड, मैटरनिटी वार्ड,पीडियाट्रिक वार्ड और इमरजेंसी वार्ड को ठीक से देखें तो पता चलेगा कि इस अस्पताल में मरीज़ों की क्या हालत है।

      किसी भी सरकारी अस्पताल की यही हालत होती है। ग़रीब लोग हैं। महिलाएं डाक्टर को भगवान मान लेती हैं और भगवान के सहारे अपना जीवन छोड़ देती हैं। बीच में सिस्टम तो है ही नहीं। अस्पताल कम यह रेलवे का प्लेटफार्म ज़्यादा नजर आता है।

      इस अस्पताल में एमबीबीएस की पढ़ाई करने वाले छात्र भी हैं। जिन्हें आखिरी साल में इंटर्नशिप करनी होती है। राज्य सरकार इन्हें 15000 रुपये प्रति माह का भत्ता जैसा देती है। ढाई महीने से यहां के छात्रों को काम की सैलरी नहीं मिली है, फिर भी वे काम कर ही रहे हैं।

      क्या पता पूरे बिहार के मेडिकल कालेजों में काम कर रहे इंटर्न को सैलरी नहीं मिली है। यह तो हालत है। क्या एंकरों के चिल्लाने से ठीक हो जाएगा। हो जाए तो कितनी अच्छी बात है।

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      बता दें कि इस कवरेज से चैनलों को रेटिंग मिल जाएगी मरीज़ों और गरीबों को हेल्थ केयर नहीं मिलेगा। कैसे बताता हूं, पॉलिसी रिसर्च स्टडीज़ पीआरएस का एक विश्लेषण मिला है। बिहार के स्वास्थ्य बजट का हाल देखिए। 2016-17 का बजट खर्च है 8,234 करोड़। 2017-18 का बजट खर्च होता है 7,002 करोड़। एक हज़ार करोड़ की कमी आ जाती है बजट में। शहरी स्वास्थ्य पर बजट में 18 फीसदी की कमी आती है। ग्रामीण स्वास्थ्य पर बजट में 23 प्रतिशत की कमी आती है।

      यह जानने से आपको क्या फायदा? एक फायदा है, फेसबुक पोस्ट लिखने के लिए यह अच्छा मटेरियल है। आप लिखिए जब बिहार का स्वास्थ्य बजट ही 7000 करोड़ का है तो 1500 बिस्तरों वाला सुपर स्पेशियालिटी अस्पताल बनाने के लिए 1500 करोड़ और 2500 बिस्तरों वाले सुपर स्पेशियालिटी वाला अस्पताल बनाने के लिए 2500 करोड़ किस खाते से आएगा। कौन इतना पैसा देगा। 2017-18 के बजट में बिहार ने अस्पताल बनाने के लिए 819 करोड़ का ही बजट रखा था।

      2018 में बिहार कैबिनेट ने एक फैसला लिया था कि पटना मेडिकल कालेज को दुनिया का सबसे बड़ा अस्पताल बनाएंगे। वहां 1700 बेड हैं जिसे बढ़ाकर 5462 बेड किया जाएगा। इसे पूरा होने में सात साल लगेंगे और बजट होगा 5540 करोड़। आप खुश हो जाएंगे सुनकर।

      लेकिन पूछिए एक सवाल, डाक्टर कहां से आएंगे। इसकी क्या तैयारी है। क्या बिहार के मेडिकल कालेजों में मेडिकल की सीट बढ़ाई गई हैं। सरकारी अस्पताल में सैलरी कम है, पेंशन नहीं है इसलिए भी डाक्टर नहीं आ रहे हैं। वो कारपोरेट में जाते हैं ज्यादा पैसा कमाने के लिए।

      अभी मीडिया ये कर रहा है कि नल की सूखी टोंटी दिखाकर हाय तौबा कर रहा है वह स्वास्थ्य सेवाओं को लेकर बड़े और कड़े सवाल नहीं कर रहा है। 100 से अधिक बच्चों की मौत हुई है। हम अभी भी मज़ाक कर कर रहे हैं।

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