
झारखंड (Jharkhand) में कुरमी-कुड़मी की उम्मीदें आसमान छू रही हैं, जबकि आदिवासियों का गुस्सा जमीन हिला रहा है। यह संतुलन कैसे बनेगा? समय ही बताएगा, लेकिन इतना तय है कि झारखंड की सियासत अब नई रेल पटरी पर दौड़ने को बेताब है…
रांची (एक्सपर्ट मीडिया न्यूज)। झारखंड (Jharkhand) की राजनीतिक धरती पर एक बार फिर आग लग चुकी है, लेकिन इस बार की चिंगारी महज कुछ घंटों में ठंडी पड़ गई। 20 सितंबर को कुरमी-कुड़मी समुदाय ने अपनी दशकों पुरानी मांग अनुसूचित जनजाति (ST) दर्जा और कुड़माली भाषा को संविधान की 8वीं अनुसूची में स्थान को लेकर ‘रेल रोको-डाहर छेका’ अभियान छेड़ दिया।
रांची से जमशेदपुर तक रेलवे ट्रैक जाम हो गए। 55 से अधिक ट्रेनें रद्द या डायवर्ट कर दी गईं और हजारों यात्री प्लेटफॉर्म पर भटकते रहे। लेकिन रात 12 बजे अचानक आंदोलन थम गया। क्या यह महज संयोग था या दिल्ली से कोई गुप्त संकेत मिला? आदिवासी समुदाय का गुस्सा सड़कों पर उतर आया है, जबकि कुरमी नेताओं की चुप्पी सवालों का पुलिंदा बांध रही है। आइए, इस उबाल की परतें खोलते हैं और देखते हैं कि यह आंदोलन झारखंड की सियासत को कैसे नई दिशा दे सकता है।
झारखंड में कुरमी-कुड़मी समुदाय की ST मांग कोई नई नहीं है। यह समुदाय मुख्य रूप से कृषक पृष्ठभूमि का है और लंबे समय से OBC (अन्य पिछड़ा वर्ग) श्रेणी में फंसा हुआ महसूस कर रहा है। राज्य में OBC आरक्षण मात्र 14% (BC-I और BC-II में विभाजित) है, जबकि राष्ट्रीय स्तर पर यह 27% तक है। इस असमानता ने उन्हें ST दर्जे की ओर धकेल दिया, जहां आरक्षण के साथ-साथ शिक्षा, नौकरी और राजनीतिक प्रतिनिधित्व के अवसर बढ़ जाएंगे। 2023 में भी इन्होंने इसी मांग पर रेलवे ट्रैक जाम कर देश का ध्यान खींचा था, लेकिन इस बार का आंदोलन और भी संगठित और आक्रामक था।
20 सितंबर को सुबह से ही रांची, बोकारो, धनबाद और जमशेदपुर जैसे प्रमुख शहरों में कुरमी संगठनों ने रेल पटरियों पर धरना देना शुरू कर दिया। झारखंड के अलावा पश्चिम बंगाल के पुरुलिया और ओडिशा के कुरमी समुदाय ने भी इसमें कंधे से कंधा मिलाया। नारे गूंज रहे थे- ‘ST दर्जा दो, अन्यथा रेल रोको!’ सुरक्षा बलों को तैनात करना पड़ा और रेलवे प्रशासन ने 55 ट्रेनों को रद्द कर दिया। जमशेदपुर स्टेशन पर तो यात्री घंटों फंसे रहे। कई ने सोशल मीडिया पर अपनी परेशानी शेयर की। एक यात्री ने बताया कि हम कोलकाता जा रहे थे, लेकिन अब घर लौटना पड़ रहा है। आंदोलन का दर्द तो ठीक, लेकिन आम आदमी क्यों सजा भुगते?’
लेकिन शाम ढलते ही नाटकीय मोड़ आ गया। रात 12 बजे कुरमी नेताओं ने आंदोलन वापस लेने का ऐलान कर दिया। उनके बयान में कहा गया कि हमारी मांगें जल्द पूरी होंगी, इसलिए शांति बनाए रखें। सूत्रों के हवाले से खबर है कि दिल्ली से तीन प्रमुख कुरमी नेताओं को ‘खास इशारा’ मिला।
पूर्व केंद्रीय जनजातीय मंत्री अर्जुन मुंडा ने तो पहले ही केंद्र सरकार को कुरमी-कुड़मी को ST सूची में शामिल करने की सिफारिश भेज चुके हैं। राजनीतिक गलियारों में फुसफुसाहट है कि यह मांग अब तय मानी जा रही है। क्या केंद्र ने कोई अनौपचारिक आश्वासन दिया? या फिर इसमें सियासी ‘पैकेज’ शामिल है। जैसे ST दर्जे के साथ आगामी चुनावों में टिकटों की गारंटी?
यह जल्दबाजी भरा अंत कई सवाल खड़े कर रहा है। अगर मांग इतनी मजबूत थी तो आंदोलन क्यों रुका? क्या कुरमी नेताओं को कोई विशेष सुविधा का वादा मिला, जिसमें न केवल आरक्षण बल्कि राजनीतिक लाभ भी शामिल हो? झारखंड में कुरमी विधायक और सांसद भाजपा, झामुमो और कांग्रेस जैसे सभी दलों में सक्रिय हैं।
यहां कोई भी दल इस मांग का खुला विरोध नहीं कर सकता, वरना वोट बैंक खिसक सकता है। मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन की झामुमो जो एक आदिवासी बहुल पार्टी है, वह भी चुप्पी साधे हुए है। सोरेन ने कोई बड़ा बयान क्यों नहीं दिया? क्या यह राज्य सरकार की दुविधा है? एक तरफ कुरमी वोट, दूसरी तरफ आदिवासी गठबंधन?
दूसरी ओर आदिवासी समुदाय का आक्रोश चरम पर पहुंच चुका है। ST सूची में नई एंट्री से मौजूदा आरक्षण का ‘केक’ और छोटा हो जाएगा, जो पहले से ही सीमित है। सोशल मीडिया पर #AdiwasiLivesMatter और #SaveTribalRights जैसे हैशटैग ट्रेंड कर रहे हैं। आदिवासी संगठन तर्क दे रहे हैं कि कुरमी मूल रूप से कृषक समुदाय हैं, न कि आदिवासी।
रांची से दिल्ली तक आदिवासी युवा सड़कों पर उतर आए हैं। गांवों में ‘कुरमी महतो’ के नाम से आक्रोश फैल रहा है। हाल ही में जमशेदपुर में कुरमी संगठनों का महाजुटान हुआ, लेकिन आदिवासियों ने इसे ‘बाहरी घुसपैठ’ करार दिया। पश्चिम बंगाल के पुरुलिया में तो 25 सितंबर को विरोध प्रदर्शन फिर शुरू हो गया, जहां स्थानीय आदिवासी कुरमी संगठनों के खिलाफ सड़कों पर उतरे।
राजनीतिक जानकारों का मानना है कि यह टकराव लंबा चलेगा। केंद्र सरकार भी दुविधा में है। झारखंड विधानसभा चुनाव नजदीक हैं और यह मुद्दा वोटों का खेल बदल सकता है। अगर वैचारिक मतभेद हिंसा में बदल गए तो राज्य की शांति पर बड़ा खतरा मंडरा सकता है। विशेषज्ञ सलाह देते हैं कि सरकार को जल्द संवैधानिक समिति गठित कर फैसला लेना चाहिए।