
रांची (एक्सपर्ट मीडिया न्यूज नेटवर्क)। रांची जिला प्रशासन की जन शिकायत निवारण व्यवस्था, जो जनता दरबार और जन शिकायत कोषांग जैसे मंचों के माध्यम से आम लोगों की समस्याओं का त्वरित समाधान करने का दावा करती है, अब खुद सवालों के घेरे में आ गई है। एक साधारण शिकायत ने पूरे तंत्र की पोल खोल दी है, जहां उच्चाधिकारियों के आदेशों की भी अनदेखी हो रही है।
क्या यह सरकारी ढांचे में व्याप्त जवाबदेही की कमी का खुला उदाहरण है? या फिर ये मंच महज पीआर मीडिया स्टंट हैं, जो जनता के भरोसे को ठगने का काम कर रहे हैं? आइए, इस मामले की गहराई में उतरते हैं और देखते हैं कि कैसे एक शिकायत ने रांची जिला प्रशासन की कार्यप्रणाली पर गंभीर प्रश्नचिह्न लगा दिए हैं।
मामला शुरू होता है रांची उपायुक्त मंजू भजंत्री के कार्यालय से। एक शिकायतकर्ता ने उपायुक्त को एक विस्तृत शिकायत सौंपी, जिसमें कांके अंचल के किसी मुद्दे पर गंभीर आरोप लगाए गए थे। शिकायत इतनी महत्वपूर्ण थी कि उपायुक्त कार्यालय ने इसे तुरंत गंभीर मानते हुए जन शिकायत कोषांग को भेज दिया।
जन शिकायत कोषांग जनता की शिकायतों को ट्रैक और सॉल्व करने का दावा करता है, लेकिन वहां से इसे आगे अपर समाहर्ता (राजस्व) को प्रेषित किया। अपर समाहर्ता ने मामले की गंभीरता को समझते हुए कांके अंचलाधिकारी को जांच कर रिपोर्ट सौंपने का स्पष्ट आदेश जारी किया। यह पूरी प्रक्रिया दस्तावेजों और ई-मेल पत्राचार में दर्ज है, जो प्रशासन की फाइलों में मौजूद है।
लेकिन यहां से कहानी में रोचक मोड़ आता है या कहें कि निराशाजनक ठहराव। कांके अंचलाधिकारी ने आदेश मिलने के करीब चार महीने बाद भी न तो कोई जांच रिपोर्ट सौंपी और न ही कोई जवाब दिया। शिकायत महीनों से लंबित पड़ी है, लेकिन अंचलाधिकारी की रहस्यमयी चुप्पी ने पूरे सिस्टम की जवाबदेही पर सवाल खड़े कर दिए हैं।
क्या उच्चाधिकारियों के आदेश भी इन अधिकारियों के लिए महज कागजी खानापूर्ति हैं? शिकायतकर्ता ने जब उपायुक्त कार्यालय से मामले की प्रगति की जानकारी मांगी तो उन्हें अपर समाहर्ता कार्यालय भेज दिया गया। वहां से जन शिकायत कोषांग जाने की सलाह दी गई।
जन शिकायत कोषांग के प्रभारी अधिकारी ने तो हद कर दी। उन्होंने शिकायतकर्ता को सीधे कांके अंचलाधिकारी से ही संपर्क करने को कह दिया। यह वैसा ही है, जैसे कोई पुलिस अधिकारी चोरी की शिकायत पर कहे कि जाकर चोर से ही पूछ लो! क्या यह जन शिकायत प्रणाली का मजाक नहीं है?
यह घटना अब सिर्फ एक व्यक्ति की शिकायत तक सीमित नहीं रह गई है। यह पूरे जन शिकायत निवारण तंत्र की विश्वसनीयता पर सवाल उठाती है। झारखंड सरकार, खासकर मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन की गठबंधन सरकार बनने के बाद जनता में एक उम्मीद जगी थी कि अब उनकी आवाज सुनी जाएगी।
जनता दरबार जैसे कार्यक्रमों को बड़े स्तर पर प्रचारित किया गया, जहां मुख्यमंत्री खुद लोगों की समस्याएं सुनते हैं। लेकिन जमीनी हकीकत यह है कि जिला स्तर पर शिकायतें दबा दी जा रही हैं। अगर अंचलाधिकारी जैसे अधिकारी उच्चाधिकारियों के आदेशों की अवहेलना करता हो तो आम जनता न्याय की उम्मीद कहां से करे? क्या ये मंच वास्तव में जनता को न्याय दिलाने के लिए हैं या सिर्फ सरकार की छवि चमकाने का दिखावटी माध्यम?
दस्तावेजों से स्पष्ट है कि अपर समाहर्ता द्वारा जारी आदेश की कॉपी कांके अंचलाधिकारी को भेजी गई थी, लेकिन कोई फॉलो-अप रिपोर्ट नहीं आई। ई-मेल पत्राचार भी इसकी पुष्टि करता है कि फाइल में पूरी प्रक्रिया दर्ज है, लेकिन कार्रवाई शून्य। ऐसे में सवाल लाजमी है कि शिकायतों पर समयबद्ध कार्रवाई क्यों नहीं हो रही? आदेशों का पालन न करने वाले अधिकारियों पर क्या कार्रवाई होगी? क्या जिला प्रशासन में भ्रष्टाचार और मिलीभगत का बोलबाला है, जो शिकायतों को दबाने का काम कर रहा है?
सोशल मीडिया पर सक्रिय झारखंड सरकार और रांची जिला प्रशासन को इस पर स्पष्ट जवाब देना चाहिए। फेसबुक और एक्स (पूर्व ट्विटर) पर वे जनता से जुड़ने का दावा करते हैं, लेकिन ऐसे मामलों में चुप्पी क्यों? अगर जवाबदेही तय नहीं हुई तो जनता का भरोसा और कमजोर होगा। ऐसी घटनाएं सरकारी तंत्र में सुधार की जरूरत को उजागर करती हैं। क्या सरकार अब इस मामले पर जांच बिठाएगी और दोषी अधिकारियों पर कार्रवाई करेगी? या फिर यह भी एक और लंबित फाइल बनकर रह जाएगी?
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