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      जानें जदयू का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनकर नीतीश कुमार ने एक तीर से कितने निशाने साधे ?

      एक्सपर्ट मीडिया न्यूज डेस्क। जदयू की नई दिल्ली में आयोजित हुई राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में ललन सिंह की पार्टी अध्यक्ष पद से विदाई और नीतीश की ताजपोशी के कई मायने निकाले जा रहे हैं। आज 29 दिसंबर को नीतीश कुमार और ललन सिंह दोनों साथ-साथ पहुंचे थे। इसके बाद ललन सिंह ने राष्ट्रीय अध्यक्ष के पद से इस्तीफा दिया और खुद ही नीतीश कुमार के नाम का इस पद के लिए प्रस्ताव किया।

      उस वक्त जदयू के राष्ट्रीय कार्यालय में मौजूद पार्टी के सभी नेताओं ने खुश होकर इसका समर्थन किया। खबर जब बाहर पहुंची तो दिल्ली से लेकर पटना तक पार्टी के नेताओं ने खुशी जाहिर की। मिठाइयां बांटी और कहा कि अब पार्टी में सब ठीक हो जायेगा।

      कई कयासों से भरी जदयू की इस राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में ललन सिंह को हटाया जायेगा, यह अंदाजा तो कई लोग लगा रहे थे, मगर इस तरह शांतिपूर्ण तरीके सत्ता का परिवर्तन होगा, इसकी उम्मीद शायद ही किसी को रही होगी।

      क्योंकि, जदयू में नीतीश कुमार को छोड़ कर अब तक तीन लोग राष्ट्रीय अध्यक्ष बने हैं, उनमें से दो की विदाई बहुत कटु परिस्थितियों में हुई है। चाहे वह 12 साल अध्यक्ष रहे शरद यादव हों या एक साल पार्टी की कमान संभालने वाले आरसीपी सिंह हो। दोनों को अध्यक्ष पद के साथ पार्टी को भी छोड़ना पड़ा।

      जदयू में यह पहली दफा हुआ है। ललन सिंह ने अध्यक्ष पद छोड़ा है और उन्होंने अपनी तरफ से कोई कटुता, कोई नाराजगी जाहिर नहीं की। न ही किसी तरह का बखेड़ा खड़ा किया। जानकार इसे नीतीश की राजनीतिक परिपक्वता के रूप में देखते हैं और मानते हैं कि उन्होंने एक बार फिर साबित किया है कि भले उम्र का असर उन पर हो, जाति और धर्म के वोट बैंकों का सहारा उन्हें न हो, मगर अपने दिमाग के दम पर वे आज भी एक ताकतवर राजनेता हैं। उनकी पार्टी जदयू पूरी तरह उनके नियंत्रण में है और इसे तोड़ा नहीं जा सकता।

      यह बात इसलिए भी मौजूं है, क्योंकि हाल ही में पार्टी में टूट की खबरें उड़ी थीं। बिहार के एक मंत्री के आवास पर 11 विधायकों के जुटने की भी खबर थी। यानी टूट की आशंका उससे बड़ी थी, जैसी आशंका एक दफे आरसीपी सिंह के वक्त खड़ी हुई थी।

      इसके अलावा नीतीश कुमार इन दिनों सबसे अजीब राजनीतिक स्थिति से गुजर रहे हैं। अब तक उनकी राजनीति वाम और दक्षिण दोनों धड़ों के बीच संतुलन बनाकर चलने की थी। 2022 के बाद पहली दफा ऐसा हुआ है कि वे अगर एनडीए के साथ जाते हैं तो इतिहास उन्हें अवसरवादी नेता के रूप में याद करेगा।

      फिलहाल जिस महागठबंधन इंडिया के साथ हैं, वह उन्हें बहुत महत्व देता नजर नहीं आ रहा। मगर इन परिस्थितियों में भी नीतीश कुमार ने जिस तरह हंसते-मुस्कुराते पार्टी की सत्ता को अपने नियंत्रण में लिया और टूटने से भी बचाया, यही उनका असली पावर शो है।

      आखिर ललन सिंह को क्यों जाना पड़ा? वैसे तो आधिकारिक तौर पर पार्टी नेता विजय चौधरी ने कहा है कि ललन सिंह अपना समय अपने चुनाव क्षेत्र में देना चाहते थे। लोकसभा चुनाव की वे तैयारी कर रहे हैं इसलिए खुद इस पद को छोड़ना चाहते थे। मगर पार्टी का यह आधिकारिक बयान बहुत भरोसेमंद नहीं लगता।

      यह सच है कि अपने लोकसभा क्षेत्र मुंगेर में उनकी स्थिति बहुत बेहतर नहीं है। भाजपा लगातार उन पर हमलावर है। वे पिछले कुछ दिनों से पार्टी फोरम पर भी कम सक्रिय नजर आ रहे थे मगर सिर्फ इस वजह से कोई पार्टी अध्यक्ष का पद छोड़ दे यह बात जमती नहीं।

      क्या लालू के करीबी होने की सजा मिली? एनडीए नेताओं की ओर से ऐसी बातें लगातार कही जा रही हैं कि ललन सिंह इन दिनों राजद और लालू परिवार के अधिक करीबी हो गये थे, यह बात नीतीश कुमार को खटक रही थी। इसलिए उन्होंने ललन सिंह से इस्तीफा ले लिया।

      भाजपा के राज्यसभा सांसद सुशील कुमार मोदी तो पिछले एक सप्ताह से ऐसी बातें कह रहे थे। 26 दिसंबर को उनके इस्तीफे की खबर भी मीडिया को सुशील कुमार मोदी ने ही दी थी।

      जदयू से अलग होकर अपनी पार्टी रालोजद बनाने वाले उपेंद्र कुशवाहा ने तो यहां तक कहा कि ललन सिंह थे जदयू के राष्ट्रीय अध्यक्ष, मगर काम राजद के लिए कर रहे थे।

      उन्होंने नीतीश कुमार को सपना दिखाया कि उन्हें लालू जी पीएम उम्मीदवार या इंडिया गठबंधन का संयोयक बनवा देंगे। जब उनकी यह इच्छा पूरी नहीं हुई और ललन सिंह ने पार्टी को टूट और बर्बादी की कगार पर पहुंचा दिया तो आखिरकार नीतीश को यह फैसला लेना पड़ा। इस बात में थोड़ी सच्चाई हो सकती है, मगर उतनी भी नहीं जिसका दावा एनडीए नेता कर रहे हैं।

      जाति गणना के बाद पार्टी का सामाजिक चरित्र बदलना चाहते हैं नीतीश? कहा यह भी जा रहा है कि जाति आधारित गणना के नतीजे के बाद नीतीश अपनी पार्टी जदयू का सामाजिक चरित्र बदलना और किसी पिछड़े के हाथों में पार्टी की कमान देना चाहते थे। इसलिए उन्होंने यह फैसला लिया।

      मगर इस बात को भी पूरी तरह सही नहीं ठहराया जा सकता क्योंकि ऐसा करना होता तो वे कर्पूरी ठाकुर के पुत्र रामनाथ ठाकुर के हाथों पार्टी की कमान दे सकते थे।

      राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में उनके ठीक बगल में मंगनीलाल मंडल जैसे अतिपिछड़ा नेता बैठे थे। उन्हें भी कमान दी जा सकती थी। मगर उन्होंने खुद कमान अपने हाथ में रखी है।

      इंडिया गठबंधन से जुड़े फैसलों पर अपना कंट्रोल? नीतीश ने पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष का पद खुद अपने पास रखा है, इसका एक ही अर्थ है। वे पार्टी पर पूरा नियंत्रण चाहते हैं। 2016 में भी उन्होंने इसी वजह से पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष का पद अपने पास रखा था, ताकि भाजपा के साथ छत्तीस के आंकड़े को खुद डील कर सकें।

      अभी इंडिया गठबंधन में सीटों की शेयरिंग और दूसरे फैसले होने हैं। वे नहीं चाहते कि ये फैसले पार्टी के खिलाफ जाएं। माना जा रहा है कि ललन सिंह पर अब वे पूरी तरह भरोसा नहीं कर रहे।

      क्या नीतीश फिर से एनडीए के पाले में जाएंगे? एक कयास यह भी है कि ललन सिंह को हटाने का मतलब है राजद से दूरी। इंडिया गठबंधन में सम्मान न मिलने के बाद अब वे एनडीए की तरफ जाने का मन बना रहे हैं।

      यह भी कहा जा रहा है कि जदयू के कई बड़े नेता भाजपा के साथ अधिक सहज हैं, इसलिए भी वे ऐसा कर रहे हैं। खरमास के बाद यानी मकरसंक्रांति पर्व के बाद ऐसा फैसला हो सकता है।

      मगर ऐसा लगता नहीं। वे इंडिया गठबंधन के रुख, फैसले और गति से निराश तो हैं, मगर उनकी उम्मीद पूरी तरह खत्म नहीं हुई है।

      इसी वजह से जदयू की राष्ट्रीय कार्यकारिणी में जो चार प्रस्ताव पास हुए हैं, उनमें से दो राजनीतिक रूप से भाजपा और एनडीए के खिलाफ हैं। वे हैं जाति आधारित गणना पूरे देश में हो, संसद में जिस तरह सांसदों को निलंबित किया गया उसका विरोध और उसकी निंदा।

      इसके अलावा राष्ट्रीय परिषद ने यह प्रस्ताव भी पारित किया है कि नीतीश जनवरी से देश भर में जनजागरण यात्रा पर निकलेंगे। इसकी शुरुआत झारखंड से होगी।

      कांग्रेस और राजद को भी मैसेज दिया है? नीतीश भले अभी एनडीए के पाले में न जायें, मगर उन्होंने एक तरह से ललन सिंह को हटाकर राजद और कांग्रेस दोनों को मैसेज दे दिया है। संदेश यह है कि उनको कमजोर न समझा जाये। पार्टी पर अभी भी उनकी पूरी पकड़ है।

      उन्होंने यह मैसेज भी दिया कि जिस तरह महाराष्ट्र की पार्टियां शिवसेना और एनसीपी को तोड़ा जा सकता है, जदयू को तोड़ा नहीं जा सकता। साथ ही राष्ट्रीय राजनीति में उनकी उपेक्षा नहीं की जा सकती। शायद इसलिए उन्होंने यह सब करने की जगह दिल्ली को चुना है।

      क्या यह बिहार की राजनीति में नये बवंडर की शुरुआत है? भाजपा नेता सुशील कुमार मोदी ने कहा है कि यह खेल की शुरुआत है। अभी कई गुल खिलना बाकी है।

      ‘हम’ नेता जीतनराम मांझी भी कहते हैं, “नीतीश कुमार के पास अब एनडीए में जाने के अलावा कोई चारा नहीं है।” इस बीच खबर आयी है कि नीतीश के डिप्टी राजद नेता तेजस्वी यादव ने अपनी आस्ट्रेलिया-न्यूजीलैंड की प्रस्तावित यात्रा रद्द कर दी है। इस यात्रा के लिए उन्होंने विशेष तौर पर कोर्ट से इजाजत ली थी।

      इन वजहों से ऐसा माना जा रहा है कि आने वाले दिनों में बिहार में राजनीतिक हलचल तेज होगी। कोई बड़ी घटना भी हो सकती है।

      जीतनराम मांझी ने यह भी कहा है, “जदयू में दो धड़े हैं। एक ललन सिंह और विजेंद्र यादव का धड़ा है, जो राजद का करीबी है और वह चाहता था कि तेजस्वी यादव को मुख्यमंत्री बना देना चाहिए।

      वहीं दूसरा धड़ा जिसमें विजय कुमार चौधरी, अशोक चौधरी और संजय झा आदि नेता हैं, वे चाहते हैं कि नीतीश कुमार बिहार के मुख्यमंत्री बने रहें।

      यह भी कहा जा रहा है कि अगर राजद का रुख ठीक नहीं रहा और कांग्रेस का रुख सकारात्मक नहीं हुआ तो मकर संक्रांति के बाद नीतीश कुमार कोई बड़ा फैसला ले सकते हैं। पार्टी को अपने कंट्रोल में इसी वजह से नीतीश ने लिया है।

      राजद औऱ कांग्रेस ने सधी प्रतिक्रिया दी है? राजद की तरफ से तेजस्वी यादव ने कहा है, नीतीश पहले भी अपनी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष रहे हैं, वे जदयू के सर्वमान्य नेता है और यह अच्छी खबर है।

      वहीं बिहार कांग्रेस के अध्यक्ष अखिलेश कुमार सिंह ने भी इस फैसले का स्वागत किया है। बैठक के बाद जदयू के राष्ट्रीय प्रवक्ता केसी त्यागी ने कहा है, राष्ट्रीय परिषद ने नीतीश कुमार को 2024 के चुनाव के लिए इंडिया गठबंधन में सीटों के तालमेल, उम्मीदवारों के चयन, और दूसरे सभी संगठनात्मक और नीतिगत मामलों के लिए अधीकृत किया है।

      कार्यकर्ता खुश हैं, कहते हैं, सब अच्छा होगा? आने वाले दिनों में बिहार की राजनीति में जो भी हो, मगर फिलहाल इस बदलाव से जदयू के कार्यकर्ता काफी खुश हैं। वे मिठाइयां बांट रहे हैं और कह रहे हैं, अब जो भी होगा अच्छा होगा। ऐसा कहा जा रहा है कि तमाम अदला-बदली से इतर जदयू के कार्यकर्ता ललन सिंह से बहुत खुश नहीं थे। इसलिए यह फैसला उन्हें ठीक लग रहा है।

      कहा यह भी जा रहा है कि पार्टी के दोनों धड़ों के बीच संतुलन बिठाकर नीतीश ने फिर से खुद को एक मध्यममार्गी नेता के रूप में स्थापित कर लिया है, जो वाम और दक्षिण दोनों को साधते हुए अपनी राजनीति करता है।

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