पटना (एक्सपर्ट मीडिया न्यूज / मुकेश भारतीय)। बिहार लोक सेवा आयोग (बीपीएससी) द्वारा बहाल टीआरइ-2 में एक बड़ा स्कैम हुआ है। उस स्कैम का नाम है भाषा स्कैम। यह एक ऐसा स्कैम है, जो पूरा शिक्षा व्यवस्था और शिक्षा पद्धति पर ही सवाल उठाता है।
दरअसल बीपीएससी ने परीक्षा के बाद भाषा में पास होने की अनिवार्यता समाप्त कर दी। इस तरह हजारों बाहरी या भाषा में कमजोर शिक्षक आसानी से बहाल हो गए हैं। जोकि पूरे सूबे में एक गंभीर सवाल बनकर उभरा है।
एक सूचना अधिकार अधिनियम-2005 के तहत मांगी गई सूचना के अनुसार सारण जिले में सिर्फ 11-12 के इतिहास के एक विषय में ऐसे 31 शिक्षकों का चयन हुआ है, जो भाषा में 9 नंबर भी नहीं ला सके। साफ कहे तो वे अभ्यर्थी अयोग्य हो गये थे। लेकिन परीक्षा के बाद नियम बदलकर बीपीएससी ने ऐसे अयोग्य लोगों को भी पास करा दिया।
ऐसे में सवाल उठना लाजमि है कि बीपीएससी ने ऐसे नियम पहले क्यों नहीं बदला। कौन है वे लोग, जो भाषा में 9 नंबर भी नहीं ला सके और बीपीएससी अध्यापक की परीक्षा पास कर ली। वेशक ऐसे लोगो की संख्या हजारों में होगी, अगर सभी विषयों और सभी वर्गों के शिक्षकों का पूर्ण डाटा सामने आए।
आखिर ऐसे लोग बिहार के बच्चों को कितना शिक्षित करेंगे, जो भाषा में इतने कमजोर हैं कि 9 नंबर भी नहीं ला सके। सीधा सवाल बीपीएससी से है। बिहार सरकार से है कि इतना बड़ा स्कैम किसी को दिख क्यों नहीं रहा? अगर दिख रहा है तो ऐसी बीपीएससी शिक्षक भर्ती परीक्षा की सीबीआई जांच करवानी चाहिए।
इस बात से कोई इन्कार नहीं कर सकता है कि शिक्षा के क्षेत्र में भाषा का ज्ञान एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। भाषा की अनिवार्यता समाप्त करने से शैक्षिक गुणवत्ता पर नकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है। भाषा न केवल संचार का माध्यम होती है, बल्कि यह ज्ञान के आदान-प्रदान का मूलभूत तत्व भी है। जब शिक्षक भाषा में दक्ष होते हैं तो वे विद्यार्थियों के साथ अधिक प्रभावी ढंग से संवाद कर सकते हैं, जिससे शिक्षण प्रक्रिया अधिक कारगर होती है।
उदाहरण के रूप में एक शिक्षक जो स्थानीय भाषा में पारंगत होता है, वह विद्यार्थियों की समझ को बेहतर बना सकता है। इसके विपरीत अगर शिक्षक भाषा में दक्ष नहीं होते हैं तो उनकी संवाद क्षमता में कमी आती है। जिससे शिक्षण गुणवत्ता पर असर पड़ता है। कई शोध परिणाम यह दर्शाते हैं कि भाषा की अनिवार्यता बनाए रखने से शिक्षकों की गुणवत्ता में सुधार होता है और शिक्षा का स्तर ऊँचा उठता है।
इसके अलावा भाषा का ज्ञान शिक्षकों को पाठ्यक्रम को अधिक प्रभावी ढंग से प्रस्तुत करने में मदद करता है। उदाहरण के लिए गणित या विज्ञान जैसे विषयों में जटिल अवधारणाओं को समझाने के लिए भाषा का सही उपयोग आवश्यक होता है। जब शिक्षक भाषा में निपुण होते हैं तो वे विद्यार्थियों को अधिक सटीक और स्पष्ट तरीके से समझा सकते हैं। इससे विद्यार्थियों की समझ में सुधार होता है।
बिहार जैसे राज्य में जहां विभिन्न भाषाएं और बोलियाँ बोली जाती हैं। स्थानीय भाषा का ज्ञान शिक्षकों को विद्यार्थियों के साथ बेहतर संवाद स्थापित करने में मदद करता है। यह केवल भाषा का मसला नहीं, बल्कि सांस्कृतिक और सामाजिक समझ का भी है।
स्थानीय भाषा का ज्ञान शिक्षकों को न केवल छात्रों की आवश्यकता और समस्याओं को समझने में मदद करता है, बल्कि यह शिक्षण-प्रक्रिया को भी सरल और प्रभावी बनाता है। बच्चों के लिए शिक्षा तब अधिक प्रभावशाली हो जाती है, जब उन्हें उनकी मातृभाषा में पढ़ाया जाता है। इससे छात्रों की समझदारी और उनकी सीखने की क्षमता में सुधार होता है।
स्थानीय भाषा न जानने वाले शिक्षक अक्सर छात्रों के साथ गहरे संवाद स्थापित करने में असमर्थ रहते हैं। इससे न केवल शिक्षा की गुणवत्ता पर प्रभाव पड़ता है, बल्कि छात्रों की सांस्कृतिक और सामाजिक समझ भी प्रभावित होती है। बच्चों के मनोवैज्ञानिक विकास में भी यह एक महत्वपूर्ण कारक है। स्थानीय भाषा में संवाद करने से छात्रों को अपनी पहचान और संस्कृति से जुड़ाव महसूस होता है, जिससे उनकी आत्म-सम्मान और आत्मविश्वास बढ़ता है।
इसके अलावा स्थानीय भाषा का ज्ञान शिक्षक को छात्रों के परिवार और समुदाय के साथ भी बेहतर तालमेल बनाने की सुविधा देता है। शिक्षक और माता-पिता के बीच बेहतर संवाद से छात्रों की प्रगति की निगरानी और सुधार संभव हो पाता है।
इसलिए बिहार के सरकारी स्कूलों में स्थानीय भाषा का महत्व नकारा नहीं जा सकता है। यह केवल एक भाषा की बात नहीं है, बल्कि यह छात्रों की मानसिक, सांस्कृतिक और सामाजिक विकास के लिए भी आवश्यक है। लेकिन बिहार लोक सेवा आयोग द्वारा शिक्षक भर्ती परीक्षा में भाषा की अनिवार्यता समाप्त करने से इस संवाद में कई बाधाएं उत्पन्न होनी स्वभाविक है।
पहली बाधा यह है कि यदि शिक्षक और छात्र अलग-अलग भाषाएँ बोलते हैं तो उनके बीच आपसी समझ में कठिनाई उत्पन्न होती है। शिक्षक अपने विचारों और ज्ञान को स्पष्ट रूप से नहीं व्यक्त कर पाएंगे और छात्र भी अपनी समस्याओं और सवालों को सही तरीके से प्रस्तुत नहीं कर पाएंगे तो इससे शिक्षा की गुणवत्ता पर नकारात्मक प्रभाव पड़ना भी स्वभाविक है।
दूसरी बाधा यह है कि भाषा की असमानता के कारण शिक्षक छात्रों की सांस्कृतिक और सामाजिक पृष्ठभूमि को सही तरीके से नहीं समझ पाएंगे। यह समझ शिक्षक को छात्रों की विशेष आवश्यकताओं और समस्याओं को पहचानने में मदद करती है। यदि शिक्षक और छात्र की भाषा एक नहीं है,तो यह समझना और भी कठिन हो जाएगा।
इसके अतिरिक्त भाषा की अनिवार्यता समाप्त करने से छात्रों में आत्मविश्वास की कमी हो सकती है। जब छात्र अपनी भाषा में संवाद नहीं कर पाते तो वे अपनी बात को व्यक्त करने में हिचकिचाते हैं और इसका असर उनके शैक्षिक प्रदर्शन पर भी पड़ता है।
पठन-पाठन की प्रभावी नीति भी साफ बताती है कि शिक्षक प्रशिक्षण पाठ्यक्रमों में भाषा शिक्षा को एक अनिवार्य विषय के रूप में शामिल किया जाए। इससे शिक्षकों को प्रारंभिक स्तर से ही भाषा शिक्षण की विधियाँ और तकनीकें सिखाई जा सकेंगी। जो उनके पेशेवर जीवन में सहायक सिद्ध होंगी।
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