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कहीं अंधे तहखाने में दफन न रह जाए बिहार का दूसरा नालंदा ‘रुखाईगढ़’ का प्राचीन इतिहास

नालंदा की प्राचीन बस्ती रूखाईगढ़ 25°19′ उतरी अक्षांश तथा 85°22 पूर्वी देशांतर के बीच स्थित है। जो नालंदा- राजगीर के रास्ते में आता था। कभी यह बौद्ध मतालंबियों का आश्रय स्थल माना जाता था। रूखाई गढ़ तीन नदियों से घिरा हुआ है। नोनाई ,चिरैया और मुहाने। कहा जाता है कि यहाँ पांच बड़े खाई थे। जिस कारण इसका नाम रूखाई पड़ा

एक्सपर्ट मीडिया न्यूज डेस्क। बीता हुआ कल काफी महत्वपूर्ण होता है। भले ही बीता हुआ समय वापस नहीं आता, किन्तु अतीत के पन्नों को हमारी विरासत के तौर पर कहीं पुस्तकों तो कहीं इमारतों के रूप में संजो कर रखा गया है।

The ancient history of Bihars second Nalanda Rukhaigarh should not be buried in the dark basement 1हमारे पूर्वजों ने निशानी के तौर पर तमाम तरह के मंदिर, किले,इमारतें, कुएँ तथा अन्य चीजों का सहारा लिया, जिनसे हम उन्हें आने वाले समय में याद रख सके। लेकिन वक्त की मार के आगे कई बार उनकी यादों को बहुत नुकसान पहुँचा।

उनकी यादों को पहले स्वयं हमने भी नजर अंदाज किया, जिसका परिणाम यह हुआ कि हमारी अनमोल विरासत हमसे दूर होती गयी और उनका अस्तित्व भी संकट में पड़ गया। इतिहास के अवशेषों से जब भी हम गुजरते हैं, सच में आश्चचर्य होता है कि हम पहले क्या थे और आज क्या है।

एक ऐसी ही विरासत है नालंदा के चंडी प्रखंड के रुखाई में। अपने इतिहास से बेखबर, गुमनाम और वीरान यह टीला हजारों वर्ष से अपने आप में एक समृद्ध विरासत और कई पीढ़ियों का इतिहास समेटे खड़ा है। जो कभी प्रलंयकारी बाढ़ से तबाह हो गई थीं।

अगर इस टीले की सही ढंग से उत्खनन हुआ होता तो बिहार का दूसरा बौद्धकालीन नालंदा बन सकता था रूखाईगढ़। हांलाकि छह साल पहले बनारस हिंदू विश्वविधालय के पुरात्तव‌ विभाग की टीम ने 13 दिनों तक इस पुरास्थल की खुदाई की थी। जिसमें मौर्यकाल, कुषाण वंश, गुप्त वंश, पाल एवं सल्तनत वंश‌ के समकालीन जीवन शैली एक ही स्थान पर पाए गये। लेकिन आज यह टीला देख रेख और संरक्षण के अभाव में संकट में है।

इस टीले के अधिकांश भाग आज कट गया है। बिहटा-सरमेरा सड़क निर्माण के दौरान जेसीबी से मिट्टी काट ली गई।

जिससे यह स्थल आज पूरी तरह नष्ट हो चुका है। जिसका जिक्र पुरातत्व नामक पुस्तक में हुई है कि लोग तेजी से अपने ही धरोहर को नष्ट कर रहे हैं।

इस पुरास्थल की खुदाई से ज्ञात हुआ कि लगभग दो किमी के दायरे में बौद्ध काल से भी पहले यहां अपनी संस्कृति फैली हुई थी। एक समृद्ध नगरीय व्यवस्था थी।

उस खुदाई में कई कुएँ मिले, जो शंग एवं कुषाण युग के संकेत देते है। रूखाई के टीले के दो हिस्से में शंग,कुषाण काल के पक्की ईटों के आठ तह तक संरचनात्मक अवशेष प्राप्त हुए था।

ऐसा माना जाता है कि रूखाई में नाग पूजा का भी प्रचलन रहा होगा। उत्खनन के दौरान टेरीकोटा निर्मित सर्प की मूर्ति भी मिली थीं।

साथ ही कुत्ता, नीलगाय की छोटी मूर्तियाँ भी मिली। इतना ही नहीं, अगर सही ढंग इसकी खुदाई की गई होती तो यहां ताम्र पाषाण युग का भी अवशेष प्राप्त हो सकता था।

इससे पूर्व कि इस टीले में दफन कई इतिहास हकीकत बनते खुदाई पर ब्रेक लग गया। उत्खनन कार्य में लगे पुरातत्व विभाग के निदेशक गौतम लांबा ने तकनीकी कारणों से पुरास्थल की खुदाई पर सितम्बर,2015 तक ब्रेक लगा दी। फिर उसके बाद खुदाई का मामला अधर में लटक गया।

नालंदा की प्राचीन बस्ती रूखाईगढ़ 25°19′ उतरी अक्षांश तथा 85°22 पूर्वी देशांतर के बीच स्थित है। जो नालंदा- राजगीर के रास्ते में आता था। कभी यह बौद्ध मतालंबियों का आश्रय स्थल माना जाता था।

रूखाई गढ़ तीन नदियों से घिरा हुआ है। नोनाई ,चिरैया और मुहाने। वैसे इस गांव के पश्चिम में खाई भी है। रूखाई गढ़ टीले के बारे में कहा जाता है कि यहाँ पांच बड़े खाई थे।जिस कारण इसका नाम रूखाई पड़ा। गाँव में कई प्राचीन खाई के अवशेष आज भी मौजूद है।

ऐसा माना जाता है कि यहां भगवान बुद्ध के आगमन की किवदंती है।यह क्षेत्र नालंदा -पाटलिपुत्र के क्षेत्र में आता था।

इसी  गाँव के पास ढिबरा पर में चीनी यात्री फाहियान के ठहरने की भी बात कही जाती है। नालंदा आने जाने का यह एक उतम मार्ग हुआ करता था। रूखाईगढ़ सीधे पाटलिपुत्र और नालंदा के रास्ते पड़ता था।

विश्वविधालय अनुदान आयोग की योजना को धरातल‌ पर उतारने के उद्देश्य से 2010-12 के बीच नालंदा के तमाम प्राचीन स्थलों का सर्वे किया गया था। कुल 72 स्थान चिहि्त किया गया था,जहां प्राचीन धरोहर मौजूद थी। इनमें से 17 टीले(गढ़) भी शामिल थे। जिसमें रूकमणि गढ़ के साथ रुखाई गढ़ भी शामिल थी।

नालंदा जिला मुख्यालय बिहारशरीफ से 26 किमी दूर चंडी प्रखंड के रूखाई के इस गुमनाम टीले पर बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के पुरातत्व विभाग की टीम की नजरें इनाइत हुई।

वर्ष 2015, अप्रैल माह में टीम ने टीले की खुदाई शुरू की थी। लगभग 13 दिन तक पुरातत्व विभाग इस टीले के दफन इतिहास को मिट्टी खोदकर निकालने में लगी थी।

तब जैसे-जैसे कुदाल-फावड़े मिट्टी का सीना फाड़ते जाते, वैसे-वैसे उत्खनन में तीन हजार वर्ष पूर्व के इतिहास की परते खुलती चली गई।

रूखाई में पुरास्थल की खुदाई में उतरीय कृष्ण मार्जित मृदभाण्ड (एनबीपीडब्लू) मिले थे। इसे किसी सभ्यता एवं संस्कृति से जोड़कर देखा जाता है। इन मृदभाण्डो की मदद से समकालीन इतिहास के सामाजिक-आर्थिक पक्षों पर भी काफी रोशनी पड़ती है। जिसने भूतकाल के अनेक अज्ञात रहस्यो को उद्घाटित किया है।

इन मृदभाण्डो को 600ई पूर्व से लेकर 200ई पूर्व तक जोड़कर देखा जाता है। यहां से उत्खनन में ठिकडे (मिट्टी के बर्तन ), मानव हड्डी, रिंग वेल, अनाज के दाने, मिट्टी का फर्श, मिट्टी के मनके, चित्रित धूसर मृदभाण्ड, सल्तनत काल के सिक्के, नगरीय व्यवस्था के अवशेष, पांच कमरों का मकान, सहित कई अवशेष मिले थे।

प्राप्त अवशेष के काल निर्धारण के लिए खुदाई में मिली सामग्री को पुणे के डेक्कन कॉलेज,लखनऊ के बीरबल-साहनी, हैदराबाद और कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय भेजने की योजना थी।

रूखाई गढ़ टीले के कई इतिहास गर्भ में दफन है। अगर राज सरकार की नजर इनायत हो जाए तो इस क्षेत्र में पर्यटन की असीम संभावना हो सकती है।

ऐसा माना जाता है कि इस टीले के सम्पूर्ण क्षेत्र की खुदाई में लगभग पाँच साल का वक्त लग सकता है। जिसके लिए 30लाख की राशि खर्च हो सकती है।

राज्य सरकार खुदाई के लिए राशि आवंटित करें तो बौद्ध काल से भी पूर्व की एक समृद्ध विरासत की खोज हो सकती है। साथ ही रूखाई नालंदा के अन्य स्थानों की तरह पर्यटक स्थल के रूप में मानचित्र पर आ सकता है।

इस टीले के गर्भ में छिपे कई रहस्यो पर से पर्दा उठता कि इसी बीच आधे-अधूरे खुदाई के बीच पुरातत्व टीम लौट गई। सितम्बर में फिर से खुदाई का वादा कर। ग्रामीणों को आशा थी कि इसकी खुदाई लम्बी चलेगी। सितम्बर गुजरे पांच  साल हो गए। लेकिन अपने वादे के अनुरूप पुरातत्व विभाग की टीम नहीं लौटी।

इंडस वैली के समकालीन सभ्यता का सपना देख रहे ग्रामीण खुदाई शुरू नहीं होने से निराश है कि शायद कहीं टीले में दफन न रह जाए उनके पूर्वजों का इतिहास।

हार नहीं मान रहे हैं बिनोद….

भले ही रूखाईगढ़ टीले के दुबारा उत्खनन में‌ भारतीय पुरात्तव या फिर बिहार सरकार रूचि नही ले रही है। लेकिन इसी गांव के विनोद कुमार जो हरियाणा के फरीदाबाद में रहते हैं।

वे फिलहाल श्रीराम इंडस्ट्रीज लिमिटेड में उप महाप्रबंधक(मानव संसाधन) पद पर कार्यरत है। अपने काम की व्यस्तता के बाबजूद चार साल से रुखाईगढ़ टीले की पुन उत्खनन के लिए प्रयासरत है।

उन्होंने रुखाईगढ़ टीले के उत्खनन में अग्रणी भूमिका निभाने वाले बनारस हिंदू विश्वविधालय के एसोसिएट प्रोफेसर गौतम लांबा को अनेकों पत्र लिखे।

उन्होने बिहार सरकार तथा पुरातत्व विभाग के निदेशक का ध्यान आकृष्ट कराया।उन्होने नालंदा सांसद कौशलेंद्र कुमार को भी लिखकर मांग की कि वे कम से कम एक बार रूखाईगढ़ टीले से सबंधित प्रश्न लोकसभा में उठाए।

दो महीने पहले ही बिनोद कुमार ने 23जून को तत्कालीन कला एवं संस्कृति मंत्री प्रहलाद सिंह पटेल को पत्र लिखा, लेकिन उनके विभाग द्वारा भी भेजे गये उतर में संतोषजनक उतर नही मिल सका।

उन्होने इसी महीने पीएमओ को एक लंबे चौड़े पत्र में उन्होने दस बिंदुओ का उल्लेख करते हुए मांग की रूखाईगढ़ टीले की उत्खनन क्यों जरूरी है?

उन्होंने बताया कि वे भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण में जाकर भी मिलेगे। अगर रुखाई गढ़ टीले की खुदाई होती है तो यह दूसरा नालंदा बन सकता है।

भारत की विरासत ग्रामीण क्षेत्रों में आज भी बिखरी पड़ी है। जिन्हें संरक्षित सहेजना चुनौतीपूर्ण है। देश के ग्रामीण अंचलों में ऐतिहासिक, सांस्कृतिक एवं धार्मिक विरासतों की भरमार है।

इन विरासतों की सार संभाल के साथ इन्हें ग्रामीण पर्यटन से जोड़ दिया जाए तो ना केवल क्षेत्र का समुचित विकास हो सकेगा। इससे क्षेत्र की कायापलट हो सकती है। इससे एक तरफ जहाँ अमूल्य विरासत संरक्षित होगी वहाँ दो हाथों को रोजगार भी मिल सकता है।

कहने की जरूरत नहीं है कि ऐसे बिखरे ऐतिहासिक विरासत को संरक्षण की जरूरत है। लेकिन सरकार की लापरवाही और उदासीनता से अनमोल विरासत काल कवलित होती जा रही है।

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