एक बार एक वन के पशुओं को ऐसा लगा कि वे सभ्यता के उस स्तर पर पहुँच गए हैं, जहाँ उन्हें एक अच्छी शासन-व्यवस्था अपनानी चाहिए । और,एक मत से यह तय हो गया कि वन-प्रदेश में प्रजातंत्र की स्थापना हो। पशु-समाज में इस `क्रांतिकारी’ परिवर्तन से हर्ष की लहर दौड़ गयी कि सुख-समृद्धि और सुरक्षा का स्वर्ण-युग अब आया और वह आया।
जिस वन-प्रदेश में हमारी कहानी ने चरण धरे हैं, उसमें भेंडें बहुत थीं–निहायत नेक , ईमानदार, दयालु , निर्दोष पशु जो घास तक को फूँक-फूँक कर खाता है।
भेड़ों ने सोचा कि अब हमारा भय दूर हो जाएगा। हम अपने प्रतिनिधियों से क़ानून बनवाएँगे कि कोई जीवधारीकिसी को न सताए, न मारे। सब जिएँ और जीने दें। शान्ति,स्नेह,बन्धुत्त्व और सहयोग पर समाज आधारित हो।
इधर, भेड़ियों ने सोचा कि हमारा अब संकटकाल आया। भेड़ों की संख्या इतनी अधिक है कि पंचायत में उनका बहुमत होगा और अगर उन्होंने क़ानून बना दिया कि कोई पशु किसी को न मारे, तो हम खायेंगे क्या? क्या हमें घास चरना सीखना पडेगा?
ज्यों-ज्यों चुनाव समीप आता, भेड़ों का उल्लास बढ़ता जाता। ज्यों-ज्यों चुनाव समीप आता, भेड़ियों का दिल बैठता जाता।
एक दिन बूढ़े सियार ने भेड़िये से कहा,“मालिक, आजकल आप बड़े उदास रहते हैं।”
हर भेड़िये के आसपास दो-चार सियार रहते ही हैं। जब भेड़िया अपना शिकार खा लेता है, तब ये सियार हड्डियों में लगे माँस को कुतरकर खाते हैं और हड्डियाँ चूसते रहते हैं। ये भेड़िये के आसपास दुम हिलाते चलते हैं, उसकी सेवा करते हैं और मौके-बेमौके “हुआं-हुआं” चिल्लाकर उसकी जय बोलते हैं।
तो बूढ़े सियार ने बड़ी गंभीरता से पूछा, “महाराज, आपके मुखचंद्र पर चिंता के मेघ क्यों छाये हैं?” वह सियार कुछ कविता भी करना जानता होगा या शायद दूसरे की उक्ति को अपना बनाकर कहता हो।
ख़ैर, भेड़िये ने कहा,“ तुझे क्या मालूम नहीं है कि वन-प्रदेश में नई सरकार बनने वाली है? हमारा राज्य तो अब गया।
सियार ने दांत निपोरकर कहा,“ हम क्या जानें महाराज ! हमारे तो आप ही `माई-बाप’ हैं। हम तो कोई और सरकार नहीं जानते। आपका दिया खाते हैं, आपके गुण गाते हैं ”
भेड़िये ने कहा, “ मगर अब समय ऐसा आ रहा है कि सूखी हड्डियां भी चबाने को नहीं मिलेंगी।”
सियार सब जानता था, मगर जानकार भी न जानने का नाटक करना न आता, तो सियार शेर न हो गया होता!
आखिर भेड़िये ने वन-प्रदेश की पंचायत के चुनाव की बात बूढ़े सियार को समझाई और बड़े गिरे मन से कहा, “ चुनाव अब पास आता जा रहा है । अब यहाँ से भागने के सिवा कोई चारा नहीं। पर जाएँ भी कहाँ ?”
सियार ने कहा, “ मालिक, सर्कस में भरती हो जाइए।”
भेड़िये ने कहा, “अरे, वहाँ भी शेर और रीछ को तो ले लेते हैं,पर हम इतने बदनाम हैं कि हमें वहाँ भी कोई नहीं पूछता”
“तो,” सियार ने खूब सोचकर कहा, “ अजायबघर में चले जाइए।”
भेड़िये ने कहा, “ अरे, वहाँ भी जगह नहीं है, सुना है। वहाँ तो आदमी रखे जाने लगे हैं।”
बूढा सियार अब ध्यानमग्न हो गया। उसने एक आँख बंद की, नीचे के होंठ को ऊपर के दाँत से दबाया और एकटक आकाश की और देखने लगा जैसे विश्वात्मा से कनेक्शन जोड़ रहा हो। फिर बोला,“बस सब समझ में आ गया। मालिक, अगर पंचायत में आप भेड़िया जाति का बहुमत हो जाए तो?”
भेड़िया चिढ़कर बोला, “ कहाँ की आसमानी बातें करता है? अरे हमारी जाति कुल दस फीसदी है और भेड़ें तथा अन्य पशु नब्बे फीसदी। भला वे हमें काहे को चुनेंगे। अरे, कहीं ज़िंदगी अपने को मौत के हाथ सौंप सकती है? मगर हाँ, ऐसा हो सकता तो क्या बात थी!”
बूढा सियार बोला,“ आप खिन्न मत होइए सरकार! एक दिन का समय दीजिये। कल तक कोई योजना बन ही जायेगी। मगर एक बात है। आपको मेरे कहे अनुसार कार्य करना पड़ेगा।”
मुसीबत में फंसे भेड़िये ने आखिर सियार को अपना गुरु माना और आज्ञापालन की शपथ ली।
दूसरे दिन बूढा सियार अपने तीन सियारों को लेकर आया। उनमें से एक को पीले रंग में रंग दिया था, दूसरे को नीले में और तीसरे को हरे में।
भेड़िये ने देखा और पूछा, “ अरे ये कौन हैं?
बूढा सियार बोला, “ ये भी सियार हैं सरकार, मगर रंगे सियार हैं ।आपकी सेवा करेंगे। आपके चुनाव का प्रचार करेंगे।”
भेड़िये ने शंका की,“ मगर इनकी बात मानेगा कौन? ये तो वैसे ही छल-कपट के लिए बदनाम हैं।”
सियार ने भेड़िये का हाथ चूमकर कहा, “ बड़े भोले हैं आप सरकार! अरे मालिक, रूप-रंग बदल देने से तो सुना है आदमी तक बदल जाते हैं। फिर ये तो सियार हैं।”
और तब बूढ़े सियार ने भेड़िये का भी रूप बदला। मस्तक पर तिलक लगाया, गले में कंठी पहनाई और मुँह में घास के तिनके खोंस दिए। बोला, “ अब आप पूरे संत हो गए । अब भेड़ों की सभा में चलेंगे। मगर तीन बातों का ख्याल रखना– अपनी हिंसक आँखों को ऊपर मत उठाना, हमेशा ज़मीन की ओर देखना और कुछ बोलना मत, नहीं तो सब पोल खुल जायेगी और वहां बहुत-सी भेड़ें आयेंगी, सुन्दर-सुन्दर, मुलायम-मुलायम, तो कहीं किसी को तोड़ मत खाना।”
भेड़िये ने पूछा, “ लेकिन रंगे सियार क्या करेंगे? ये किस काम आयेंगे?”
बूढा सियार बोला,“ ये बड़े काम के हैं। आपका सारा प्रचार तो यही करेंगे। इन्हीं के बल पर आप चुनाव लड़ेंगे । यह पीला वाला सियार बड़ा विद्वान है ,विचारक है ,कवि भी है,और लेखक भी । यह नीला सियार नीला और पत्रकार है। और यह हरा धर्मगुरु। बस, अब चलिए।”
“ ज़रा ठहरो,” भेड़िये ने बूढ़े सियार को रोका, “ कवि, लेखक, नेता, विचारक– ये तो सुना है बड़े अच्छे लोग होते हैं। और ये तीनों……..”
बात काटकर सियार बोला, “ ये तीनों सच्चे नहीं हैं, रंगे हुए हैं महाराज ! अब चलिए देर मत करिए।”
और वे चल दिए। आगे बूढा सियार था, उसके पीछे रंगे सियारों के बीच भेड़िया चल रहा था– मस्तक पर तिलक, गले में कंठी, मुख में घास के तिनके । धीरे-धीरे चल रहा था, अत्यंत गंभीरतापूर्वक, सर झुकाए विनय की मूर्ति!
उधर एक स्थान पर सहस्रों भेंड़ें इकट्ठी हो गईं थीं, उस संत के दर्शन के लिए, जिसकी चर्चा बूढ़े सियार ने फैला रखी थी।
चारों सियार भेड़िये की जय बोले हुए भेड़ों के झुण्ड के पास आए। बूढ़े सियार ने एक बार जोर से संत भेड़िये की जय बोली! भेड़ों में पहले से ही यहाँ-वहाँ बैठे सियारों ने भी जयध्वनि की।
भेड़ों ने देखा तो वे बोलीं, “ अरे भागो, यह तो भेड़िया है।”
तुरंत बूढ़े सियार ने उन्हें रोककर कहा, “ भाइयों और बहनों! अब भय मत करो। भेड़िया राजा संत हो गए हैं। उन्होंने हिंसा बिलकुल छोड़ दी है। उनका `हृदय परिवर्तन हो गया है। वे आज सात दिनों से घास खा रहे हैं। रात-दिन भगवान के भजन और परोपकार में लगे रहते हैं। उन्होंने अपना जीवन जीव-मात्र की सेवा में अर्पित कर दिया है। अब वे किसी का दिल नहीं दुखाते, किसी का रोम तक नहीं छूते। भेड़ों से उन्हें विशेष प्रेम है। इस जाति ने जो कष्ट सहे हैं,उनकी याद करके कभी-कभी भेड़िया संत की आँखों में आँसू आ जाते हैं। उनकी अपनी भेड़िया जाति ने जो अत्याचार आप पर किये हैं उनके कारण भेड़िया संत का माथा लज्जा से जो झुका है, सो झुका ही हुआ है। परन्तु अब वे शेष जीवन आपकी सेवा में लगाकर तमाम पापों का प्रायश्चित्त करेंगे।
आज सवेरे की ही बात है कि एक मासूम भेड़ के बच्चे के पाँव में काँटा लग गया, तो भेड़िया संत ने उसे दाँतों से निकाला, दाँतों से! पर जब वह बेचारा कष्ट से चल बसा, तो भेदिया संत ने सम्मानपूर्वक उसकी अंत्येष्टि-क्रिया की। उनके घर के पास जो हड्डियों का ढेर लगा है, उसके दान की घोषणा उन्होंने आज सवेरे ही की। अब तो वह सर्वस्व त्याग चुके हैं। अब आप उनसे भय मत करें। उन्हें अपना भाई समझें। बोलो सब मिलकर, संत भेड़िया जी की जय!”
भेड़िया जी अभी तक उसी तरह गर्दन डाले विनय की मूर्ती बने बैठे थे। बीच में कभी-कभी सामने की ओर इकट्ठी भेड़ों को देख लेते और टपकती हुई लार को गुटक जाते।
बूढा सियार फिर बोला, “ भाइयों और बहनों, में भेड़िया संत से अपने मुखारविंद से आपको प्रेम और दया का सन्देश देने की प्रार्थना करता पर प्रेमवश उनका हृदय भर आया है, वह गदगद हो गए हैं और भावातिरेक से उनका कंठ अवरुद्ध हो गया है। वे बोल नहीं सकते। अब आप इन तीनों रंगीन प्राणियों को देखिये । आप इन्हें न पहचान पाए होंगे। पहचानें भी कैसे? ये इस लोक के जीव तो हैं नहीं। ये तो स्वर्ग के देवता हैं जो हमें सदुपदेश देने के लिए पृथ्वी पर उतारे हैं । ये पीले विचारक हैं,कवि हैं, लेखक हैं । नीले नेता हैं और स्वर्ग के पत्रकार हैं और हरे वाले धर्मगुरु हैं । अब कविराज आपको स्वर्ग-संगीत सुनायेंगे। हाँ कवि जी …….”
पीले सियार को `हुआं-हुआं ‘ के सिवा कुछ और तो आता ही नहीं था। `हुआं-हुआं चिल्ला दिया। शेष सियार भी `हुआं-हुआं’ बोल पड़े। बूढ़े सियार ने आँख के इशारे से शेष सियारों को मना कर दिया और चतुराई से बात को यों कहकर सँभाला,“ भई कवि जी तो कोरस में गीत गाते हैं। पर कुछ समझे आप लोग? कैसे समझ सकते हैं? अरे, कवि की बात सबकी समझ में आ जाए तो वह कवि काहे का? उनकी कविता में से शाश्वत के स्वर फूट रहे हैं। वे कह रहे हैं की जैसे स्वर्ग में परमात्मा वैसे ही पृथ्वी पर भेड़िया। हे भेड़िया जी, महान! आप सर्वत्र व्याप्त हैं, सर्वशक्तिमान हैं। प्रातः आपके मस्तक पर तिलक करती है, साँझ को उषा आपका मुख चूमती है , पवन आप पर पंखा करता है और रात्रि को आपकी ही ज्योति लक्ष-लक्ष खंड होकर आकाश में तारे बनकर चमकती है। हे विराट! आपके चरणों में इस क्षुद्र का प्रणाम है।”
फिर नीले रंग के सियार ने कहा, “ निर्बलों की रक्षा बलवान ही कर सकते हैं । भेड़ें कोमल हैं, निर्बल हैं, अपनी रक्षा नहीं कर सकतीं। भेड़िये बलवान हैं, इसलिए उनके हाथों में अपने हितों को छोड़ निश्चिन्त हो जाओ, वे भी तुम्हारे भाई हैं। आप एक ही जाति के हो। तुम भेड़ वह भेड़िया। कितना कम अंतर है! और बेचारा भेड़िया व्यर्थ ही बदनाम कर दिया गया है कि वह भेड़ों को खाता है। अरे खाते और हैं, हड्डियां उनके द्वार पर फेंक जाते हैं। ये व्यर्थ बदनाम होते हैं। तुम लोग तो पंचायत में बोल भी नहीं पाओगे। भेड़िये बलवान होते हैं। यदि तुम पर कोई अन्याय होगा, तो डटकर लड़ेंगे। इसलिए अपने हित की रक्षा के लिए भेडियों को चुनकर पंचायत में भेजो। बोलो संत भेड़िया की जय!”
फिर हरे रंग के धर्मगुरु ने उपदेश दिया, “ जो यहाँ त्याग करेगा, वह उस लोक में पाएगा। जो यहाँ दुःख भोगेगा, वह वहां सुख पाएगा । जो यहाँ राजा बनाएगा, वह वहाँ राजा बनेगा। जो यहाँ वोट देगा, वह वहाँ वोट पाएगा। इसलिए सब मिलकर भेड़िये को वोट दो । वे दानी हैं, परोपकारी हैं, संत हैं। में उनको प्रणाम करताहूं।”
यह एक भेड़िये की कथा नहीं है, सब भेड़ियों की कथा है। सब जगह इस प्रकार प्रचार हो गया और भेड़ों को विश्वास हो गया कि भेड़िये से बड़ा उनका कोई हित-चिन्तक और हित-रक्षक नहीं है।
और, जब पंचायत का चुनाव हुआ तो भेड़ों ने अपने हित- रक्षा के लिए भेड़िये को चुना।
और, पंचायत में भेड़ों के हितों की रक्षा के लिए भेड़िये प्रतिनिधि बनकर गए। और पंचायत में भेड़ियों ने भेड़ों की भलाई के लिए पहला क़ानून यह बनाया-
हर भेड़िये को सवेरे नाश्ते के लिए भेड़ का एक मुलायम बच्चा दिया जाए , दोपहर के भोजन में एक पूरी भेड़ तथा शाम को स्वास्थ्य के ख्याल से कम खाना चाहिए, इसलिए आधी भेड़ दी जाए।
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