Home देश नौकरशाहों को जनसेवक बनाने की दिशा में जोर देने की जरुरत !

नौकरशाहों को जनसेवक बनाने की दिशा में जोर देने की जरुरत !

"देश में अफसरों का सम्मान बना रहे इस बात पर खुद अफसरों को विचार करना चाहिए और सरकारों को इस तरह का वातावरण बनाना चाहिए ताकि देश में बेलगाम हो रही अफसरशाही पर लगाम लग सके....

एक्सपर्ट मीडिया न्यूज नेटवर्क डेस्क। शासन चाहे देश का हो अथवा प्रदेश का, हर जगह नौकरशाहों की तूती बोलती नजर आती है। यह बदलाव नब्बे के दशक के बाद ही देखने को मिला है और आज नौकरशाहों से टकराने की हिम्मत न तो जनसेवकों में है न ही मीडिया ही इन पर लगाम लगाने में सक्षम दिख रहा है। देश में नौकरशाही के बेलगाम घोड़े बाकायदा दौड़ते नजर आते हैं।

चाहे मामला केंद्र सरकार का हो या प्रदेशों की सरकार का, हर जगह ही अखिल भारतीय सेवा के अधिकारियों का इकबाल पूरी तरह बुलंद दिखाई देता है। प्रधानमंत्री हों या सूबों के मुख्यमंत्री हर कोई इन्हीं नौकरशाहों पर ही पूरी तरह आश्रित दिखते हैं। इनकी लॉबी इतनी मजबूत है कि इन पर आसानी से हाथ डालने का साहस शायद ही कोई कर पाता हो।

हाल ही में देश की राजनैतिक राजधानी दिल्ली के त्यागराज स्टेडियम में भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी संजीव खिरकर चर्चाओं में हैं, उन पर आरोप है कि वे शाम को जब अपने प्यारे श्वान अर्थात कुत्ते को स्टेडियम में टहलाने जाते थे तब पूरा का पूरा स्टेडियम उनके कुत्ते के लिए खाली करवा दिया जाता था। इस स्टेडियम में अभ्यास कर रहे और प्रशिक्षण ले रहे खिलाड़ियों को उतनी देर बाहर का रास्ता दिखा दिया जाता जितनी देर साहब बहादुर का कुत्ता वहां टहलता था।

खबरों के अनुसार यह सब कुछ महीनों से हो रहा था। साहब बहादुर अर्थात दिल्ली सरकार के राजस्व सचिव रहे संजीव खिरकर का कुत्ता इतना पावरफुल था कि शाम को स्टेडियम सुरक्षा कर्मियों के हवाले हो जाता था और वहां सिर्फ साहब बहादुर का कुत्ता ही घूमता दिखता था। यह मामला जब मीडिया की सुर्खियां बना तब केंद्रीय गृह मंत्रालय के द्वारा संजीव खिरकर का तबादला लद्दख और उनकी पत्नि जो स्वयं भारतीय प्रशासनिक सेवा की अधिकारी हैं को अरूणाचल प्रदेश भेज दिया है।

देश में व्हीआईपी कल्चर को समाप्त करने की बात भले ही प्रधानमंत्री के द्वारा कही गई हो और उनके द्वारा लाल पीली बत्ती का कल्चर समाप्त कर दिया गया हो, पर जमीनी हकीकत कुछ और ही बयां करती नजर आती है। किसी जिले में बतौर जिलाधिकारी पदस्थ होने पर यह मान लिया जाता है कि वह अधिकारी उस जिले का मालिक होता है।

देखा जाए तो यह मानसिकता ब्रितानी हुकूमत के दौरान रहा करती थी। आजादी के तीन दशकों बाद भी जब किसी अफसर का बच्चा कुशाग्र बुद्धि का होता था या उस अफसर के मातहत अपने आका को प्रसन्न करना चाहते थे तो वे कहा करते थे कि साहब यह बच्चा तो कलक्टर बनेगा, और वे कहते कलक्टर वास्तव में जिले का मालिक होता है।

देश में हर अधिकारी जनता का सेवक कहलाता है। उसका काम जनता की सेवा करना होता है। आज इस सेवा के मायने बदल गए हैं। आज जिलों के जिलाधिकारी कभी भी सड़कों पर घूमते नजर नहीं आते हैं। इसका उदहारण दिल्ली में आईएएस कपल के द्वारा यह मान लिया गया कि त्यागराज स्टेडिमय में अपने कुत्ते को टहलाना उनका मूलभूत और स्वाभाविक अधिकार है। मंहगे विलासिता वाले वाहनों में जिलों के अधिकारी घूमते हैं और शासन को अपने हिसाब से अपने फायदे की बात बताकर अपना उल्लू सीधा करते नजर आते हैं।

त्यागराज स्टेडियम का प्रबंधन भी हाथ बांधे आईएएस दंपत्ति के आगे नतमस्तक ही दिखा, जबकि जब पहली दफा यह हुआ था तभी प्रबंधन को यह बात अपने रिकार्ड में लेकर अपने उच्चाधिकारियों को इससे अवागत कराते हुए मार्गदर्शन मांगना चाहिए था कि उन परिस्थितियों में अभ्यास और प्रशिक्षण के कार्यक्रम को क्या तपती दोपहर या आधी रात में कराया जाए! अगर यह बात मीडिया की सुर्खियां नहीं बनती तो शायद साहब बहादुर का कुत्ता आगे भी स्टेडियम में घूमता ओर जहां मर्जी वहां गंदगी फैलाता रहता।

इसके अलावा और भी उदहारण हैं जो सिर्फ और सिर्फ अखिल भारतीय सेवा के अधिकारियों के साथ घटी हैं, जिन्हें चमत्कार से कम नहीं माना जा सकता है। कुछ दिन पहले एक खबर आई थी कि एक आईएएस अफसर की अमेरिका की निजि यात्रा के दौरान एयरलाईंस ने उन्हें बहुत ही सस्ती दरों पर टिकिट मुहैया करवाए और बाद में उन टिकिटों को प्रथम श्रेणी में उन्नत कर दिया गया।

इसी तरह कोविड काल में मध्य प्रदेश में जिलों के कलेक्टर्स के द्वारा सकारण यहां से वहां जाने वालों को भी डंडो से पिटवाया। इस दौरान प्रदेश में भाजपा सरकार होने के बाद भी एक पदाधिकारी को जबरन ही डंडों से पिटवाया गया, जबकि वे चिकित्सक को दिखाकर वापस लौट रहे थे।

इसी तरह छत्तीसगढ़ में भी दवा की पर्ची दिखाने के बाद भी युवक को जिलाधिकारी ने पिटवा दिया था। कोविड काल में त्रिपुरा में जिलाधिकारी ने एक शादी को बीच में ही रूकवा दिया बाद में वीडियो वायरल होने पर उन्हें निलंबन की सजा भी मिली।

इन सारे उदहारणों को बताने का मकसद महज इतना सा ही है कि अखिल भारतीय सेवा के अधिकारियों को असीमित अधिकार दिए गए हैं और अधिकारियों में इन अधिकारों और पद का दुरूपयोग करने की प्रवृत्ति में दिनों दिन इजाफा हो रहा है। जिस उद्देश्य से प्रशासनिक सेवा का गठन हुआ है वह उद्देश्य गौड़ होता जा रहा है।

आज पद उन्हें ही मिल पा रहे हैं जो नेताओं की गणेश परिक्रमा करते हैं, कुछ प्रदेशों में तो पदों के बिकने तक के आरोप विपक्ष के द्वारा लगाए जाते रहे हैं। अनेक अफसरों के पास से समक्ष एजेंसीज ने करोड़ों अरबों रूपए भी बरामद किए हैं।

मध्य प्रदेश के सिवनी जिले में आशादीप विशेष विद्यालय को आर्थिक रूप से संपन्न बनाने के लिए लगभग सात साल पहले कराए गए शो का हिसाब आज तक सार्वजनिक नहीं किया गया है। इस कार्यक्रम में चंदे को लेकर तरह तरह की बातें सामने आईं थीं।

ऐसा नहीं है कि अखिल भारतीय सेवा के सारे अधिकारी इस प्रवृत्ति को ही आत्मसात कर रहे हों। अनेक जिलों में इस तरह के डीएम भी पदस्थ हैं अथवा हुए हैं जिनके द्वारा जनता की सेवा को ही मूल मंत्र माना गया है। अनेक जिलों में अधिकारियों के द्वारा जनता को असुविधा न हो इस भावना को आधार मानकर अफसर खुद को जनता का सेवक मानते हुए काम करते नजर आते हैं।

आपको याद होगा कि जिस भी अफसर के द्वारा ईमानदारी के साथ नेताओं या उनके रिश्तेदारों, संबंधियों आदि के घोटाले उजागर किए जाते हैं उन्हें लूप लाईन में भेज दिया जाता है।

दरअसल, देश में बहुत नीचे तक जड़ जमाए बैठी सामंती और औपनिवेशिक मानसिकता का ही परिणाम है कि कुछ अपवादों को छोड़ दें तो न तो नेता और न ही अफसर अपने आप को जनता का सेवक मानने का जतन कर पाते हैं। नेता हों या अफसर सभी अपने अपने हिसाब से कानून का दुरूपयोग करते हैं जिसके अनेक उदहारण सभी के सामने हैं।

इन अधिकारियों पर नियंत्रण के लिए केंद्र सरकार का कार्मिक एवं प्रशिक्षण विभाग (डीओपीटी) है। केंद्र सरकार को चाहिए कि डीओपीटी को निर्देश दे कि वह समय समय पर जनता से जुड़ी समस्याओं के संबंध में अखिल भारतीय सेवा के अधिकारियों को न केवल प्रशिक्षण दें वरन आम जनता के साथ किस तरह का व्यवहार रखना है इसकी तालीम भी दे, क्योंकि शाम छः बजे से सुबह नौ बजे तक अधिकारी सिर्फ नेताओं के लिए उपलब्ध रहते हैं, आम जनता अगर फोन लगाती है तो या तो उनके फोन नहीं उठते या फिर उनके अर्दली साहब बहादुरों से बात नहीं कराते हैं।

अफसरों को यह समझाना जरूरी है कि उन्हें जो पद व रूतबा मिला है वह उनकी योग्यता के कारण मिला है। वे किसी दल विशेष के नेताओं को खुश करने के लिए यह पद नहीं प्राप्त कर रहे हैं। उनकी पहली जवाबदेही उस जनता के प्रति है जिसके गाढ़े पसीने से संचित राजस्व से उन्हें वेतन मिल रहा है।

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