Home झारखंड लीजिए, अब झारखंड का कोयला क्षेत्र भी निजीकरण की भेंट चढ़ गया!

लीजिए, अब झारखंड का कोयला क्षेत्र भी निजीकरण की भेंट चढ़ गया!

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एक्सपर्ट मीडिया न्यूज नेटवर्क डेस्क / नारायण विश्वकर्मा।  भारत में सार्वजनिक उपक्रमों में निजीकरण का दौर चल रहा है। इसी कड़ी में अब झारखंड का कोयला क्षेत्र भी कॉमर्शियल माइनिंग के जरिये निजीकरण की भेंट चढ़ गया। केंद्र सरकार ने पहली बार कोयला सेक्टर के लिए बेहद ही उदारवादी नीति अपनायी है। 

jharkhand coal privet 3प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देश के 41 कोयला ब्लॉकों को कॉमर्शियल माइनिंग के लिए खोलने की प्रक्रिया का शुभारंभ कर दिया।

प्रावधान के अनुसार इस बार कंपनियों को जो छूट मिली है, ऐसी कभी नहीं मिली थी। निजी कंपनियां कोयला खदानों को अपनी मर्जी से इस्तेमाल करेंगी। उन पर किसी तरह का दबाव नहीं होगा।

क्या निर्णायक होगी श्रमिक संगठनों की मोर्चाबंदी?

प्रधानमंत्री के इस निर्णय से तमाम कोयला श्रमिकों संगठनों में भारी आक्रोश है। श्रमिक संगठनें संयुक्त रूप से पहले ही विरोध पर उतारू है। सार्वजनिक क्षेत्र के कोयला उपक्रमों खासकर झारखंड के बीसीसीएल, सीसीएल और ईसीएल में श्रमिक संगठन आरपार की लड़ाई का मूड बना चुके हैं।

सभी श्रमिकों संगठनों ने समवेत स्वर में इसकी मुखालफत की है और काॅमर्शियल माइनिंग किसी कीमत पर बर्दाश्त नहीं करने की चेतावनी भी दी है। 

श्रमिक संगठनों ने जुलाई माह के प्रथम सप्ताह में तीन दिवसीय हड़ताल का अल्टीमेटम दे दिया है। श्रमिक संगठनों का कहना है कि प्रधानमंत्री ने देश के तमाम श्रमिक संगठनों के विरोध के बावजूद आत्मघाती निर्णय लिया है।

जानकारी के अनुसार कोयला ब्लॉकों के इस आवंटन में भारत की अडानी, वेदांता, टाटा जैसी कंपनियों के साथ ही कुछ विदेशी कंपनियों की खास तौर पर दिलचस्पी है।

हेमंत सरकार की पहले ना अब हां क्यों?

अफसोस इस बात का है कि इस मामले कोई भी राजनीतिक दल आंदोलित नहीं है। झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने पहले तो कोयले के निजीकरण का विरोध किया, लेकिन अब उन्होंने भी कॉमर्शियल माइनिंग को हरी झंडी दे दी है।

वैसे कोयला कॉमर्शियल की प्लानिंग अप्रैल-मई माह में बन चुकी थी। लेकिन लॉकडाउन की वजह से इसमें थोड़ी देरी हो गयी। इसके बाद मई में प्रधानमंत्री ने नीलामी की प्रक्रिया शुरू करने की बात कही तो हेमंत सोरेन ने कोरोना के मद्देनजर प्रधानमंत्री से बरसात भर रूकने का आग्रह किया।

इससे पूर्व उन्होंने दो टूक कहा था कि झारखंड में कॉमर्शियल कोल की नीलामी नहीं होने दी जायेगी। इसके लिए उन्होंने वाजिब कारण भी बताये थे। लेकिन अब उन्हें कोई आपत्ति नहीं है।

प्रदेश भाजपा इस मामले में अभी तक चुप्पी साधे हुए है। लेकिन भाजपा की मजदूर यूनियन भारतीय मजदूर संघ (बीएमएस) शुरू से ही इसके खिलाफ है। बीएमएस इस तरह से कभी मोदी सरकार का विरोध नहीं किया था।

दरअसल, इस बार कॉमर्शियल माइनिंग के जरिये निजी कंपनियों को एक तरह से खुली छूट मिल गयी है। जैसे अब कोई भी कंपनी कोल खदानों को लीज पर ले सकती है। पहले सिर्फ उन्हीं कंपनियों को कोल खदान दिया जाता था, जो अपने कारखानों में उत्पादित कोल का इस्तेमाल करते थे।

पावर प्लांट, स्टील प्लांट, व उर्जा से संबंधित कार्यों के लिए कोल खदानों के पट्टे दिये जाते थे। उन्हें आसपास के इलाके में पर्यावरण का ख्याल भी रखना पड़ता था। सीएसआर के तहत जन कल्याण के लिए काम करने होते थे।

अब इन सब झंझटों से कंपनियां मुक्त हो गयी हैं। क्योंकि नीलामी को आसान करने के लिए केंद्र सरकार ने कई लचीले नीतिगत फैसले लिये हैं। अब कोई भी कंपनी कोल खदान लीज पर लेकर उत्खनन कार्य कर सकती है और उस कोयले को बेच सकती है।

एक नया प्रावधान यह भी किया गया है कि अब कोई बड़ी कंपनी कोल खदान की नीलामी में प्राप्त करने के बाद उसे सब लीज भी कर सकती है। चूंकि तमाम नये खदान वन क्षेत्र में पड़ते हैं।

सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियां भी उत्खनन करती थीं, लेकिन उन पर दबाव रहता था कि वे पर्यावरण का भी ख्याल रखें। लेकिन शुद्ध मुनाफे के लिए काम करनेवाली निजी कंपनियां पर्यावरण का कितना ख्याल रखेंगी, यह कहना अभी कठिन है।

गेंद अब विपक्ष के पाले मेंः 

कॉमर्शियल माइनिंग के जरिए राज्य सरकारों को नीलामी से प्राप्त राशि का एक हिस्सा प्राप्त होगा। जो कोयला निकलेगा, उसकी रायल्टी का एक हिस्सा मिलेगा। ये तो अब भी मिल रहा है।

सार्वजनिक कंपनियों के पास अगर विशाल राशि बकाया है तो इसके लिए जिम्मेदार सरकार ही है। दूसरी ओर भूमि अधिग्रहण करनेवाली निजी कंपनियां सही ढंग से मुआवजा दे भी दे, लेकिन भूस्वामियों के परिवार के एक व्यक्ति को नौकरी देने के लिए शायद ही तैयार हो।

राष्ट्रीयकरण की जगह अब निजीकरण का दौरः

1971 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने जब कोयला क्षेत्र का राष्ट्रीयकरण किया था, तो कोल माफियाओं को यह नागवार गुजरा था। देखिये वक्त ने किस तरह करवट बदला है।

इंदिरा जी के साहसिक कदम को नेस्तनाबूद कर दिया गया। गरीब मजदूरों को आत्मनिर्भर बनाने के लिए इंदिरा जी का उठाया गया बड़ा कदम आज कितना छोटा नजर आ रहा है। 

बहरहाल, कॉमर्शियल माइनिंग को लेकर झारखंड में विपक्ष विरोध करने की स्थिति में नहीं है. वहीं केंद्र सरकार के समाने बीएमएस का विरोध कबतक टिकेगा, यह तो आनेवाला समय ही बतायेगा।

लेकिन इस मामले में गेंद अब विपक्ष के पाले में ही है। दूसरी ओर जुलाई महीने में श्रमिकों संगठनों की हड़ताल से केंद्र पर कितना असर पड़ेगा, ये देखना दिलचस्प होगा।

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