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जॉर्ज, शरद, प्रशांत, मांझी, रामचन्द्र से लेकर ललन तक | कोई न समझ पाया नीतीश का यह कंठराज

एक्सपर्ट मीडिया न्यूज डेस्क। किसी भी पार्टी में अध्यक्ष का बदलाव एक सामान्य बात है। लेकिन नीतीश की पार्टी जदयू का इतिहास कहता है कि उसके लिए ये सामान्य बात नहीं है। नीतीश और ललन सिंह कितनी भी सफाई दें, लेकिन ये साफ हो चुका है कि ललन सिंह ने इस्तीफा दिया नहीं है, उनसे लिया गया है। और नीतीश की पार्टी में ये सब पहली बार नहीं हो रहा है।

जब आरसीपी सिंह की विदाई हुई, तब भी हाल कुछ ऐसा ही था। ऐसी स्थिति तब भी बनी थी, जब शरद यादव का पत्ता काटा गया था। जिन्होंने पार्टी बनाई और जिनको नीतीश ने कभी पूरी पार्टी की जिम्मेदारी सौंप दी, उन्होंने या तो खुद पार्टी छोड़ी या उन्हें करीने से किनारे लगा दिया गया। इस फेहरिस्त में जॉर्ज फर्नांडीस से लेकर शरद यादव, जीतन राम मांझी, प्रशांत किशोर भी शामिल हैं। आज एक नाम ललन सिंह का भी जुड़ गया, जो नीतीश के साथ पांच दशक से बने हुए थे।

From George Sharad Prashant Manjhi Ramchandra to Lalan. No one could understand this secret of Nitish 1आईए सर्वप्रथम बात करते हैं प्रख्यात समाजवादी नेता जॉर्ज फर्नांडिस की। दो चुनाव हारने के बाद 1985 में नीतीश कुमार पहली बार विधायक बने। हालात यहां तक पहुंच चुके थे कि नीतीश ने घर पर ये कह दिया था कि ये उनका आखिरी चुनाव होगा। अगर नहीं जीते, तो राजनीति छोड़ देंगे। लेकिन लोक दल के टिकट से हरनौत सीट से नीतीश कुमार ने पहली बार विधानसभा में कदम रख ही दिया। उस दौरान नीतीश और लालू करीबी हुआ करते थे। दोस्ती इतनी थी कि राजनैतिक महत्वाकांक्षाओं को एक तरफ रखकर नीतीश ने अपने समर्थन से लालू को विपक्ष का नेता बनवाया।

1989 में लोकसभा चुनाव हुए। वीपी सिंह राजीव गांधी के खिलाफ बिगुल फूंक चुके थे। वीपी सिंह की लहर थी। नीतीश कुमार को बिहार के बाढ़ से टिकट मिला। वे जीते और पहली बार लोकसभा पहुंचे। वीपी सिंह की सरकार में राज्य मंत्री भी बनाए गए। पर कुछ दिन बाद लालू के तौर-तरीकों से नीतीश का मन उचटने लगा था। 1994 में उन्होंने आखिरकार जनता दल से अलग होने का मन बनाया। और तब उन्हें जॉर्ज फर्नांडिस की छत्रछाया मिली।

1994 में जॉर्ज ने जनता दल के 14 सांसदों के साथ मिलकर नई पार्टी जनता दल जॉर्ज बनाई। नीतीश भी इस दल का हिस्सा बन गए। कुछ ही महीनों बाद जॉर्ज और नीतीश ने मिलकर समता पार्टी बनाई। समता पार्टी ने भाजपा के साथ जाना तय किया। और 1998 में अटल बिहारी सरकार में उन्हें केंद्रीय मंत्री बनाया गया।

भाजपा और समता पार्टी की अच्छी जम रही थी। गठबंधन अच्छा चल रहा था, और नीतीश की साख भी बढ़ रही थी। 21वीं सदी आते-आते नीतीश कुमार बिहार में लोकप्रिय नेता के तौर पर स्थापित हो चुके थे। 2003 में नीतीश, जॉर्ज फर्नांडिस और शरद यादव ने मिलकर नई पार्टी बनाई जनता दल (यूनाइटेड) यानि जदयू।  इसी जदयू के सर्वेसर्वा आज नीतीश कुमार हैं।

2005 के बिहार विधानसभा चुनाव में तब भाजपा ने अरुण जेटली को राज्य में पार्टी का प्रभारी बनाया। ये अरुण जेटली के दिमाग की उपज थी कि चुनाव से पहले मुख्यमंत्री के नाम की घोषणा हो और सीएम कैंडिडेट नीतीश कुमार को घोषित किया जाए। जेटली ने भाजपा के बाकी नेताओं से सलाह मशविरा किया। बस आडवाणी को मनाना बाकी रह गया था।

आडवाणी जी को मनाने के बाद जेटली ने अटल बिहारी वाजपेयी से बात की कि वह विधानसभा चुनाव के दूसरे चरण से पहले अपनी भागलपुर जनसभा में नीतीश के नाम की घोषणा कर दें। वाजपेयी ने भागलपुर में नीतीश की खूब तारीफ की। लेकिन सीएम दावेदारी के लिए उनका नाम लेना भूल गए।

बाद में भाजपा ने नाम की घोषणा की, लेकिन जॉर्ज साहब ने यह कहते हुए गड़बड़ कर दी कि जदयू ने अब तक किसी नेता का नाम तय नहीं किया है। तब नीतीश ने कहा था कि जॉर्ज साहब को इस बारे में जानकारी नहीं थी। भ्रम की स्थिति 3 घंटे में दूर हो गई, जब जेटली ने उन्हें पूरी बात समझाई। इसके बाद जॉर्ज उनके नाम पर राज़ी हो गए।

पर कहा जाता है कि यहीं से नीतीश और जॉर्ज के बीच एक दरार पैदा हो गई, जो समय के साथ खाई में तब्दील होती चली गई। हालांकि, पार्टी में पहले से ही दो गुट बन चुके थे। एक जॉर्ज फर्नांडिस का, और एक नीतीश का। फर्नांडिस चाहते थे कि नीतीश के पर कतरे जाएं।

एनडीए का राष्ट्रीय संयोजक होने के नाते उन्होंने बिहार में लालू विरोधी गतिविधियों में नीतीश का महत्व घटाने की कोशिश भी की। जॉर्ज ने 2003 में दो रैलियां की, जिनमें नीतीश को नहीं बुलाया गया। बदले में नीतीश ने पटना में एक रैली की जिसमें जॉर्ज को नहीं बुलाया गया। यहां से ये साफ होने लगा था कि जद(यू) में फूट पड़ रही है।

2004 में केंद्र की सत्ता से एनडीए की विदाई हुई। जॉर्ज फर्नांडिस, जो केंद्र में रक्षा मंत्री की भूमिका में थे, अब महज सांसद बन कर रह गए थे। दूसरी तरफ 2005 में नीतीश कुमार बिहार के मुख्यमंत्री बने और बिहार के साथ-साथ उनकी छवि भी निखरती चली गई। जनता दल के एक नेता का सूरज चमक रहा था और दूसरे का अस्त हो रहा था।

2009 आते-आते नीतीश जितना मजबूत हो गए थे, जॉर्ज उतने ही कमज़ोर। दोनों नेताओं के बीच इतनी खटास पैदा हो गई थी कि खराब सेहत का हवाला देते हुए नीतीश ने जॉर्ज को 2009 लोकसभा चुनाव में टिकट ही नहीं दिया। जॉर्ज ने मुजफ्फरपुर से निर्दलीय चुनाव लड़ा, लेकिन हार गए। और इस तरह नीतीश ने अपने राजनैतिक गुरू को हमेशा के लिए साइडलाइन कर दिया।

जॉर्ज को खराब सेहत का हवाला देते हुए नालंदा से टिकट नहीं दिया गया। उनके बदले में अदना उम्मीदवार कौशलेंद्र कुमार को टिकट दिया गया, जो कभी जॉर्ज फर्नांडिस का बैग उठाते थे। हालांकि, कुछ दिनों बाद नीतीश ने जॉर्ज को मनाया और उन्हें राज्यसभा भेजा।

आईए अब हम बात करते हैं दूसरे नेता शरद यादव की। जॉर्ज फर्नांडिस के बाद शरद यादव वे नेता थे, जो कभी जदयू का चेहरा माने जाते थे, लेकिन अंतिम समय अकेलेपन में बीता। 2003 में यादव ने अपनी पार्टी का विलय जदयू में कर लिया था। तब से शरद यादव 2016 तक पार्टी के अध्यक्ष रहे। जॉर्ज फर्नांडिस की राजनीति खत्म होने के बाद नीतीश से इतर शरद यादव ही पार्टी के प्रमुख नेता थे। उनके अलावा केसी त्यागी थे, जो पार्टी के राष्ट्रीय प्रवक्ता होने के नाते टेलीविज़न पर पार्टी का पक्ष रखते नज़र आते थे।

एक रिपोर्ट के मुताबिक नीतीश और शरद यादव के बीच खटास 2013 से ही पनपने लगी थी। एनडीए ने नरेंद्र मोदी को पीएम कैंडिडेट घोषित कर दिया तो नीतीश ने एनडीए से नाता ही तोड़ लिया। शरद यादव एनडीए के संयोजक थे, उन्हें इस्तीफा देना पड़ा।

दरअसल, शरद नहीं चाहते थे कि नीतीश इस तरह से एनडीए का साथ छोड़ें। लेकिन नीतीश नहीं माने। फिर जब 2017 में नीतीश कुमार वापस भाजपा के साथ चले गए तो शरद यादव को यह बात बिल्कुल भी पसंद नहीं आई। भाजपा के साथ जुड़ने पर शरद ने नीतीश के खिलाफ मोर्चा खोल दिया था।

नीतीश ने शरद यादव के साथ अली अनवर को भी पार्टी से निकाल दिया। और इसी के साथ दोनों नेताओं की राज्यसभा सदस्यता भी रद्द हो गई। वे नहीं चाहते थे कि 2017 में नीतीश भाजपा के साथ जाएं। शरद जी भी इसके खिलाफ थे। उनका कहना था कि जनता ने 2015 में हमें महागठबंधन में रहते हुए चुना है, भाजपा के साथ नहीं। हम चाहते थे कि अगर भाजपा के साथ जाना है तो पहले जनता के पास जाया जाए।

लेकिन उन्होंने जैसे ही पार्टी में अपना मत रखा, पार्टी से बाहर निकाल दिया गया। पार्टी से निकाले जाने के बाद 2018 में शरद यादव और अली अनवर ने लोकतांत्रिक जनता दल का गठन किया। 2022 में इस पार्टी का विलय लालू यादव की RJD में हो गया।

आईए अब बात करते हैं जीतन राम मांझी की। 2014 के लोकसभा चुनाव से पहले नीतीश कुमार ने भाजपा का साथ छोड़ दिया। वे नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित करने पर असहज थे। उन्होंने 2002 दंगों के लिए नरेंद्र मोदी को दोषी ठहराते हुए एनडीए से अलग होने की घोषणा कर दी। हालांकि, 2002 में उन्होंने गुजरात के सीएम नरेंद्र मोदी का कोई खास विरोध नहीं जताया था। तब वे अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में रेल मंत्री हुआ करते थे। लेकिन 2014 में उनकी अंतरआत्मा ने उन्हें कुछ दूसरे सुर में आवाज़ दी और वे अलग हो गए। कहा जाता है कि नीतीश खुद पीएम पद चाहते थे।

उन्हें उम्मीद थी कि बिहार में वे मोदी लहर को जरूर रोक लेंगे। लेकिन पैंतरा उलटा पड़ गया। 2009 में भाजपा के साथ चुनाव लड़ने पर जिस जदयू को 20 सीट मिली थी, 2014 में सिमटकर 2 पर आ गई। वहीं भाजपा की 22 सीटों के साथ एनडीए ने राज्य की 40 में से 31 सीटें अपने नाम कर लीं। राजनीति के चौसर पर ये नीतीश की बड़ी हार थी। उन्होंने हार की जिम्मेदारी लेते हुए, बिहार के मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया। पार्टी में बवाल मच गया, लेकिन नीतीश ने विधायकों और कार्यकर्ताओं को समझाया कि वे पार्टी को आगे बढ़ाते रहेंगे।

अब बारी थी नए नेता के चयन की। विधायकों ने ये फैसला नीतीश पर छोड़ रखा था। नीतीश ने जीतन राम मांझी के नाम को लेकर सबसे पहली चर्चा पार्टी अध्यक्ष शरद यादव से की। यादव मांझी के नाम से खुश हुए। नीतीश इसके पीछे 21 अनुसूचित जातियों के महादलित समूह को साधने की कोशिश कर रहे थे। 2014 में इसी समूह की वजह से पार्टी को 15 फीसदी से ज्यादा वेट मिले थे। मांझी इसी समूह की मुसहर जाति से आते हैं।

कहते हैं कि मांझी गया में एक शादी अटेंड करने जा रहे थे। तभी नीतीश कुमार का फोन उनके पास आया। उन्हें सीएम आवास बुलाया गया। जब मांझी एक, अणे मार्ग पहुंचे तो वहां नीतीश के अलावा शरद यादव मौजूद थे। आदत के अनुसार मांझी कोने वाली कुर्सी पर बैठ गए। नीतीश बोले- अरे यहां मेरी कुर्सी पर बैठिए। अब यह घर आपका है। मांझी स्तब्ध रह गए।

मांझी शांत, विनम्र, खुद को ज्यादा महत्व न देने वाले, खबरों से दूर रहने वाले नेता थे। नीतीश कुमार को ऐसे ही नेता की तलाश थी। और इस तरह मांझी बिहार के मुख्यमंत्री पद पर आसीन हो गए।

लेकिन कुछ ही महीनों बाद नीतीश को ये अहसास होने लगा कि उन्होंने गलत आदमी को अपनी कुर्सी सौंप दी। तीन-चार महीने तक मांझी चुप रहे। जैसे ऊपर से आदेश आते थे, वैसे काम कर देते थे। इस दौरान उन्हें ये एहसास हो गया था कि मुख्यमंत्री उन्हें काबिलियत देखकर नहीं, कुछ और देखकर बनाया गया है। और तब मांझी के भीतर महत्वाकांक्षा का जन्म हुआ।

मई 2014 में मांझी ने मुख्यमंत्री पद की शपथ ली। अगस्त महीने में उनका पहला बयान चर्चा में आ गया। उन्होंने कहा था- नीतीश कुमार के राज में विकास तो हुआ लेकिन भ्रष्टाचार भी बढ़ा है। फिर राज्य की शिक्षा व्यवस्था पर उन्होंने सवाल उठाए। मांझी इस दौरान ये भूल रहे थे कि वे विरोधी नहीं, अपनी ही सरकार पर निशाना साध रहे हैं। या शायद उनकी मंशा यही थी।

इसके बाद मांझी ने ऐसे कई बयान दिए जिसमें सवर्ण जातियों पर निशाना साधा गया। अंतरजातीय विवाह को प्रोत्साहन देने की बात थी। हर बयान से मांझी चर्चा में आ रहे थे। और यह इकलौती बात थी, जो नीतीश नहीं चाहते थे। नीतीश पहले नेता बने फिर मुख्यमंत्री। मांझी पहले मुख्यमंत्री बने, फिर नेता बनते जा रहे थे।

नीतीश को समझ आ चुका था कि अब हस्तक्षेप नहीं किया गया तो देर हो जाएगी। पार्टी के अंदर नए मुख्यंमत्री के नाम को लेकर मंथन होने लगा। लेकिन आखिरकार सीएम तो नीतीश को ही बनना था। वे दोबारा गलती नहीं दोहराना चाह रहे थे। नीतीश ने 130 विधायकों के साथ राजभवन में परेड कर दी। मांझी को बहुमत साबित करना था। जो उनके लिए मुश्किल हो रहा था। आखिरकार उन्होंने मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया।

मांझी जब अपना इस्तीफा राज्यपाल को सौंपने गए, तब उनकी जेब में दो चिट्ठियां थीं। उन्होंने इस्तीफे वाली चिट्ठी तो दे दी, पर दूसरी देना भूल गए। दूसरी चिट्ठी में विधानसभा भंग करने की सिफारिश थी।

आईए अब बात करते हैं प्रशांत किशोर की। 2014 में भाजपा की पॉलिटिकल स्ट्रैटेजी संभालने के बाद प्रशांत किशोर ने भगवा पार्टी का साथ हमेशा के लिए छोड़ दिया। 2015 में बिहार में चुनाव थे। वे नीतीश कुमार के साथ हो लिए। 2015 का विधानसभा चुनाव नीतीश और लालू ने साथ मिलकर लड़ा था। स्ट्रैटेजिस्ट प्रशांत किशोर थे। लालू-नीतीश के महागठबंधन को बिहार में सफलता मिली, एनडीए हार गई।

विधानसभा जीतने के बाद नीतीश और प्रशांत किशोर की दोस्ती बढ़ती गई। लेकिन इस बीच नीतीश का लालू से मोहभंग हो रहा था। 2017 में उनकी अंतरआत्मा एक बार फिर जाग गई। महागठबंधन छोड़ उन्होंने भाजपा के साथ सरकार बनाने का फैसला कर लिया। बिहार में एक बार फिर एनडीए की सरकार बन गई।

2018 में प्रशांत किशोर पॉलिटिकल स्ट्रैटेजिस्ट से पॉलिटिशियन बन गए। उन्होंने नीतीश कुमार की जदयू की सदस्यता ले ली। भर्ती के साथ ही नीतीश ने उन्हें पार्टी का राष्ट्रीय उपाध्यक्ष बना दिया। बिहार में नए जय-वीरू दिखाई दे रहे थे। लेकिन ये सियासी प्यार-मोहब्बत ज्यादा दिन नहीं चल पाई। 2020 आते-आते दोनों के बीच दूरियां बढ़ने लगीं। जब ये खबर सार्वजनिक होने लगी कि प्रशांत किशोर जदयू से अलग हो सकते हैं, तब शुरू हुआ बयानबाज़ी का दौर।

जब नीतीश से पत्रकारों ने पीके के पार्टी छोड़ने को लेकर सवाल किया तो उन्होंने कहा, रहेगा तो ठीक, नहीं रहेगा तो ठीक। नीतीश ने साफ कर दिया था कि अगर पार्टी में रहना है तो पार्टी के तौर तरीकों के हिसाब से रहना होगा। और फिर नीतीश का वे बयान आया जिसने प्रशांत किशोर की छवि को भारी नुकसान पहुंचाया। नीतीश ने कहा, प्रशांत किशोर को तो अमित शाह के कहने पर पार्टी में शामिल किया था।

पीके और नीतीश के अलग होने के दो कारण दिखाई देते हैं। पहला तो ये कि पीके इंटेलेक्चुअल हैं। वे सिर्फ चुप बैठकर हां में हां नहीं मिला सकते। उन्हें पार्टी में नंबर दो की हैसियत दी गई। लेकिन काम कोई नहीं दिया गया। उनका हाल मिनिस्टर विदाउट पोर्टफोलियो वाला हो गया। और जब वे सुझाव देते थे, पार्टी के नेताओं को रास नहीं आते थे।

दूसरी बात कि जदयू में कोई भी जनरल कैटेगरी वाला नेता बहुत देर तक शोहरत में नहीं रह सकता। जदयू की राजनीति के हिसाब से वे फिट नहीं बैठता। ऐसे में प्रशांत किशोर के लिए ज्यादा मौके कभी थे ही नहीं। और इस तरह जदयू से प्रशांत किशोर की विदाई हो गई।

आईए अब बात करते है आरसीपी सिंह की। आरसीपी सिंह उत्तर प्रदेश कैडर के एक आइएएस अफसर थे। पहले उनका चनय आईआरएस में हुआ, लेकिन 1984 में उन्होंने आईएएस क्रैक किया और अपना सपना पूरा किया। आरसीपी सिंह ने काडर में काम किया और सेंट्रल डेप्यूटेशन पर भी। सेंट्रल डेप्यूटेशन के दौरान उनकी मुलाकात नीतीश कुमार से हुई। तब नीतीश केंद्र सरकार में मंत्री थे। वे नीतीश के प्राइवेट सेक्रेटरी बने। और जब नीतीश बिहार के मुख्यमंत्री बने, उन्हें प्रिसिंपल सेक्रेटरी बनाया गया।

आरसीपी सिंह का काम था प्रशासन को सुचारू रूप से चलाना। लेकिन उनकी नीतीश से नज़दीकियां इनती बढ़ गई थीं कि वे सरकार और पार्टी दोनों में सक्रिय दिखने लगे। आखिरकार 2010 में उन्होंने सिविल सर्विस से वीआरएएस ले लिया। और आधिकारिक रूप से नीतीश की पार्टी में शामिल हो गए। नीतीश ने आरसीपी सिंह को 2020 में राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाया।

आरसीपी और नीतीश के बीच दूरियां तब से बढ़ीं जब वे केंद्र की मोदी सरकार में मंत्री बन गए। आरसीपी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष थे। 2020 में जब मोदी अपने मंत्रीमंडल का विस्तार कर रहे थे, तब नीतीश ने आरसीपी को बार्गेन करने के लिए लगाया। नीतीश दो मंत्री पद चाहते थे। आरसीपी ने बार्गेन तो किया लेकिन वे खुद को मंत्री बनवा कर वापस आ गए। बताया जाता है तब से ही नीतीश और आरसीपी के बीच पनपी दूरियां पट नहीं पाईं।

आरसीपी राज्यसभा सांसद थे। 2021 में उनका कार्यकाल पूरा हो रहा था। उनके पर कतरने के लिए नीतीश जिस घड़ी का इंतजार कर रहे थे, वे आ चुकी थी। नीतीश ने इस बार आरसीपी को राज्यसभा का टिकट ही नहीं दिया। हुआ यह कि आरसीपी की राज्यसभा सांसदी गई और इसी के साथ केंद्र में मंत्री की कुर्सी भी। पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष को नीतीश ने खाली हाथ कर दिया था। कुछ समय बाद आरसीपी सिंह ने भाजपा का दामन थाम लिया।

दरअसल नीतीश कुमार ने आरसीपी सिंह को अध्यक्ष बनाया और पार्टी की पूरी जिम्मेदारी दे दी। लेकिन विधानसभा चुनाव में पार्टी की हालत खराब हो गई, कार्यकर्ता दूर हो गए, ठेकेदार और दलाल किस्म के लोगों का प्रभाव बढ़ गया। कई मन मुताबिक फैसले लिए, भाजपा के करीब चले गए तो अंततः नीतीश ने उनको भी चलता कर दिया।

अमुमन नीतीश के जो सबसे करीब रहता है, वे कुछ साल बाद डंप कर दिए जाते हैं। ये सिलसिला जॉर्ज फर्नांडिस से शुरू हुआ। फिर शरद यादव, आरसीपी सिंह और अब ललन सिंह भी इसी फेहरिस्त में शामिल हो गए हैं।

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