“दरअसल, बिहार का मिजाज इस बार बिल्कुल बदला हुआ लग रहा है। केंद्र और राज्य सरकारों के रवैये से मजदूर, मजदूर के परिवार और बिहार का बड़ा तबका अंदर से उबल रहा है और इसमें अमित शाह की डिजिटल रैली ने आग में घी का काम किया है…
INR (नारायण विश्वकर्मा)। बिहार में विधानसभा चुनाव के चार-पांच माह शेष हैं। इसके मद्देनजर भाजपा चुनावी मोड में आ गयी है, जिसकी शुरूआत डिजिटल रैली के जरिये हो चुकी है।
हालांकि गृहमंत्री अमित शाह ने कहा है कि उनकी वर्चुअल रैली का बिहार चुनाव से कोई लेना-देना नहीं है। लेकिन ये पूरी तरह से कोरोना काल के मध्य में बिहार का चुनावी शंखनाद है।
अमित शाह की करोड़ों की बजटवाली वर्चुअल रैली पूरी तरह से बिहारवासियों के जले पर नमक छिड़कने जैसा है। महानगरों से काफी जद्दोजहद के बाद अपने घर पहुंचे मजदूरों की दर्दभरी दास्तानों से चहुंओर आक्रोश भरा माहौल है।
ऐसे माहौल में अमित शाह द्वारा यह कहना कि इस रैली का मकसद कोरोना के खिलाफ लड़ाई में लोगों के साथ जुड़ना और उन्हें आत्मनिर्भर बनाना है, यह समझ से परे है। इसे बिहार जनसंवाद रैली का नाम दिया गया है। इसमें जनसंवाद तो कहीं नजर ही नहीं आया।
चुनावी मोड में रहे शाहः दरअसल, भाजपा ने कोरोना की लड़ाई को अब लोगों पर छोड़ दिया है। मजदूरों की मौत पर कोई चर्चा नहीं, लेकिन सवा करोड़ मजदूरों को सुरक्षित घर पहुंचाने के लिए केंद्र सरकार को श्रेय दे दिया।
यानी खुद की पीठ थपथपा ली गयी। इसके लिए कार्यकर्ताओं के कुशल प्रबंधन की तारीफ की गयी। बिहार के किसी भी मजदूर के गले यह बात नहीं उतरी है। मजदूरों के हालात कैसे सुधरेंगे या मजदूरों के लिए उनके पास क्या कार्ययोजना है, इसपर कोई चर्चा नहीं। अमित शाह चुनावी मोड में ही रहे।
अमित शाह ने जनता कर्फ्यू को भारत के स्वर्णिम युग का इतिहास बता दिया। वे चुनावी मोड में फिर सत्तर साल पीछे चले गये। कहा कि हम बिहार में दो-तिहाई बहुमत से जीतेंगे। जंगल राज का हमने खात्मा किया और लालू-इंदिरा पर फोकस किया। टीवी डिबेट में भाजपा प्रवक्ताओं ने इसे चुनावी रैली मानने से साफ इंकार कर दिया।
मजदूरों में नीतीश के प्रति आक्रोशः वहीं दूसरी ओर मजदूरों के मामले में बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की असंवेदनशीलता उजागर हुई है। इतना ही नहीं उनका आचरण जनभावनाओं के विपरीत साबित हुआ है। पहले तो वे चाहते नहीं थे कि मजदूर वापसी करें।
जब परिस्थितियां उनके प्रतिकूल हो गयी और मजदूरों का जत्था जैसे-तैसे बिहार पहुंचने लगा, तब कहने लगे कि अब उनको महानगर जाने की कोई जरूरत नहीं है। उनके लिए गृह प्रदेश में ही रोजगार मुहैया कराने की व्यवस्था की जायेगी।
मात्र दो-तीन माह में नीतीश कुमार के पास न कोई कार्ययोजना है और न कोई ठोस तैयारी। इतने कम समय में वे कोई करिश्मा तो कर नहीं सकते। कुछ दिन बाद तो फिर मजदूर महानगरों की ओर कूच करेंगे, बल्कि सूचना है कि करने भी लगे हैं।
मजदूरों का मुद्दा हावी रहेगाः उल्लेखनीय है कि पिछले विधानसभा चुनाव में मोदी-शाह की धुंआधार रैलियों के बावजूद भाजपा तीसरे स्थान पर सिमट गयी थी। सत्ता की चाबी पाने के लिए भाजपा का हर दांव उल्टा पड़ा था।
अभी भी बिहार में भाजपा के पास कोई ऐसा चेहरा नहीं है। उसे नीतीश के भरोसे ही चुनाव लड़ना है। सुशील मोदी अब हाशिये पर जा चुके हैं।
दूसरी तरफ प्रवासी मजदूरों के मामले में राजद नेता तेजस्वी यादव की भूमिका जदयू-भाजपा से जरूर बेहतर रही। बिहार में जातीय समीकरण के आधार पर चुनाव लड़े जाते हैं।
लेकिन इस बार प्रवासी मजदूरों का मुद्दा हावी रहेगा। जदयू और भाजपा इस मामले में काफी पीछे छूट गयी है।