Home कला-संस्कृति शर्मनाकः भूल गए अफसर, भूल गए नेता, कहीं नहीं मना नालंदा दिवस

शर्मनाकः भूल गए अफसर, भूल गए नेता, कहीं नहीं मना नालंदा दिवस

दुःखद स्थिति यह रही कि कल सीएम नीतीश कुमार भी नालंदा में थे। वे एक पार्टी कार्यकर्ता की मां के श्राद्धकार्य में शरीक हुए। एक हादसे में 2 बच्चियों की मौत के बाद उसके परिजनों को मुआवजा राशि सौंपते नजर आए। जिले के आला अफसर भी उनकी अगुआनी में पलकें बिछाए रही…….”

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एक्सपर्ट मीडिया न्यूज नेटवर्क। बीते 9 नवंबर को नालंदा का सृजन दिवस था। 9 नवंबर, 1972 को पटना जिला से अलग नालंदा जिला का सृजन हुआ था। कल शनिवार को 46 साल पूरा कर 47वें वर्ष में नालंदा का प्रवेश हुआ।

लेकिन इस बार न तो किसी अफसर को यह दिवस याद रहा और न ही किसी जनप्रतिनिधि नेता की। नालंदा सृजन दिवस मनाना तो दूर कहीं किसी ने इसका कोई जिक्र तक नहीं किया।

सांसद, विधायक, महापौर आदि जैसे लोग एक दिवंगत व्यवसायी की शोकसभा करते दिखे। न पक्ष और न विपक्ष..किसी दल या संस्था आदि को अपने जिला के सृजन दिवस की याद आई। ऐसी संवेदनहीनता और लापरवाही नालंदा जिले के इतिहास में पहली बार देखने को मिला। 

हांलाकि राजगीर से अनुपम कुमार ने कुछ तस्वीरें भेजी है। साथ में उन्होंने लिखा है.. ‘हमने नालंदा दिवस को यूं सेलेब्रेट किया। लेकिन भूल गए नेता और भूल गए अफसर।’ वेशक अनुपम की यह टिप्पणी चेहरा चमकाऊ नेता और अफसरों को निर्लज्ज बना डालती है।

District Administration, Nalanda (नालंदा प्रशासन का अधिकृत फेसबुक पेज) पर कल 9 नवंबर को दो पोस्ट जारी किये गए हैं। एक सीएम नीतिश कुमार द्वारा डीएम की उपस्थिति में सीओ स्तर का मुआवजा का चेक प्रदान करते और दूसरा डीएम त्यागराजन एसएम का पीएम से एक अवार्ड लेते ज्वाइंट फोटो का।

ऐसे भी District Administration, Nalanda का प्रोफाइल फोटो भी डीएम का सीएम से अवार्ड लेते लगाया गया है। यहां यह अलग विषय है कि आखिर वर्तमान डीएम ने जिले में ऐसा कौन सा किस क्षेत्र में लीक से हटकर क्रांतिकारी परिवर्तन ला रखा है।

बता दें कि नालंदा एक प्राचीन शिक्षापीठ एवं धार्मिक केन्द्र रहा है। जिसने ज्ञान का व्यापक प्रचार-प्रसार किया है। यह 5वीं शताब्दी से 12वीं शताब्दी के बीच प्राचीन मगध (संप्रति, बिहार, बंगाल का कुछ भाग, उड़ीसा) में अवस्थित था।

माना जाता है कि ‘नालंदा’ शब्द की उत्पत्ति नालम (कमल) और ‘दा’ से हुई – नालंदा जिसका तात्पर्य ‘ज्ञान देने वाले’ से है। प्राचीन नालंदा महाविहार की स्थापना गुप्तवंश के शासक शक्रादित्य का शासन-काल में हुई।

पाँचवीं और छठी शताब्दी में बुद्ध और महावीर दोनों नालंदा पधारे। यह बुद्ध के प्रसिद्ध अनुयायी सारिपुत्र के जन्म और निर्वाण का स्थान भी था। शून्यता का सिद्धांत देनेवाले नागार्जुन, श्वेनत्सांग के शिक्षक धर्मपाल, चंद्रकीर्ति, शीलभद्र, तर्कशास्त्री धर्मकीर्ति, बुद्धिस्ट लॉजिक के संस्थापक दिड़नाद, जिन मित्र शांतरक्षित, पदमसंभव आदि अनेक प्रसिद्ध आचार्यों ने नालंदा में अपना अध्ययन एवं अध्यापन किया।

नालंदा दुनिया के आवासीय विश्वविद्यालयों में से सबसे पहला विश्वविद्यालय था। इस परिसर में 10,000 छात्र एवं 2,000 शिक्षक रहते थे। लाल ईटों से बना यह महाविहार स्थापत्य कला का नमूना है। इसमें आठ अलग-अलग अहाते और दस मंदिर थे। इसके साथ ही अनेकों ध्यान-कक्ष एंव कक्षाएँ थीं। पुस्तकालय नौतल्ले भवन में स्थित था, जिसमें महत्वपूर्ण ग्रंथों को रखा गया था।

यहाँ प्रख्यात आचार्यों द्वारा प्रत्येक विषय की शिक्षा दी जाती थी और दुनिया के सभी भागों-कोरिया, जापान, चीन, तिब्बत, इंडोनेशिया, पर्शिया और टर्की- के छात्रों और अध्येताओं को इसने आकर्षित किया था।

1193 ई॰ में मामलुक वंश के एक मुस्लिम इख्तियार-अद-दिनमुहम्मदविन वख्तियार खिलजी ने अपनी सेना के माध्यम से इसे तहस-नहस कर दिया। फिलहाल, प्राचीन नालंदा महाविहार का अवशेष 14 एकड़ में फैला हुआ है और इसका अधिकांश भाग अभी भी उत्खनित किया जाना है। 

विकीपीडिया के अनुसार नालंदा भारत के बिहार प्रान्त का एक जिला है, जिसका मुख्यालय बिहार शरीफ है।। नालंदा अपने प्राचीन् इतिहास के लिये विश्व प्रसिद्ध है। यहाँ विश्व कि सबसे प्राचीन् नालंदा विश्वविद्यालय के अवशेष आज भी मौज़ूद है, जहाँ सुदूर देशों से छात्र अध्ययन के लिये भारत आते थे।

बुद्ध और महावीर कई बार नालन्दा मे ठहरे थे। माना जाता है कि महावीर ने मोक्ष की प्राप्ति पावापुरी मे की थी, जो नालन्दा मे स्थित है। बुद्ध के प्रमुख छात्रों मे से एक, शारिपुत्र, का जन्म नालन्दा मे हुआ था। नालंदा पूर्व में अस्थावां तक, पश्चिम में तेल्हाड़ा तक, दक्षिण में गिरियक तक, उत्तर मे हरनौत तक फैला हुआ है।

विश्‍व के प्राचीनतम् विश्‍वविद्यालय के अवशेषों को अपने आंचल में समेटे नालन्‍दा बिहार का एक प्रमुख पर्यटन स्‍थल है। यहाँ पर्यटक विश्‍वविद्यालय के अवशेष, संग्रहालय, नव नालंदा महाविहार तथा ह्वेनसांग मेमोरियल हॉल देखने आते हैं। इसके अलावा इसके आस-पास में भी भ्रमण (घूमने) के लिए बहुत से पर्यटक स्‍थल है।

राजगीर, पावापुरी, गया तथा बोध-गया यहां के नजदीकी पर्यटन स्‍थल हैं। प्रसिद्ध चीनी यात्री ह्वेनसांग ने 7वीं शताब्दी में यहाँ जीवन का महत्त्वपूर्ण एक वर्ष एक विद्यार्थी और एक शिक्षक के रूप में व्यतीत किया था। भगवान बुद्ध ने सम्राट अशोक को यहाँ उपदेश दिया था। भगवान महावीर भी यहीं रहे थे। प्रसिद्ध बौद्ध सारिपुत्र का जन्म यहीं पर हुआ था।

नालंदा में राजगीर में कई गर्म पानी के झरने है, इसका निर्माण् बिम्बिसार ने अपने शासन काल में करवाया था, राजगीर नालंदा का मुख सहारे है, ब्रह्मकुण्ड, सरस्वती कुण्ड और लंगटे कुण्ड यहाँ पर है, कई विदेशी मन्दिर भी है। यहाँ चीन का मन्दिर, जापान का मन्दिर आदि। नालंदा जिले में जामा मस्जिद भी है जो कि बिहार शरीफ में पुल पर है। यह बहुत ही पुराना और विशाल मस्जिद है।

नालन्‍दा विश्‍वविद्यालय के अवशेषों की खोज अलेक्‍जेंडर कनिंघम ने की थी। माना जाता है कि इस विश्‍वविद्यालय की स्‍थापना 450 ई॰ में गुप्त शासक कुमारगुप्‍त ने की थी। इस विश्‍वविद्यालय को इसके बाद आने वाले सभी शासक वंशों का सर्मथन मिला। महान शासक हर्षवर्द्धन ने भी इस विश्‍वविद्यालय को दान दिया था।

हर्षवर्द्धन के बाद पाल शासकों का भी इसे संरक्षण मिला। केवल यहाँ के स्‍थानीय शासक वंशों ने ही नहीं वरण् विदेशी शासकों से भी इसे दान मिला। इस विश्‍वविद्यालय का अस्तित्‍व 12वीं शताब्‍दी तक बना रहा। 12‍वीं शताब्‍दी में तुर्क आक्रमणकारी बख्तियार खिलजी ने इस विश्‍वविद्यालय को जल‍ा डाला। जो कुत्तुबुद्ददीन का सिपह-सलाहकार था।

नालंदा प्राचीन् काल का सबसे बड़ा अध्ययन केंद्र था तथा इसकी स्थापना पांचवी शताब्दी ई० में हुई थी। दुनिया के सबसे प्राचीन विश्वविद्यालय के अवशेष बोधगया से 62 किलोमीटर दूर एवं पटना से 90 किलोमीटर दक्षिण में स्थित हैं।  बुद्ध कई बार यहां आए थे।

यही वजह है कि पांचवी से बारहवीं शताब्दी में इसे बौद्ध शिक्षा के केंद्र के रूप में भी जाना जाता था। सातवी शताब्दी ई० में ह्वेनसांग भी यहां अध्ययन के लिए आया था तथा उसने यहां की अध्ययन प्रणाली, अभ्यास और मठवासी जीवन की पवित्रता का उत्कृष्टता से वर्णन किया। उसने प्राचीनकाल के इस विश्वविद्यालय के अनूठेपन का वर्णन किया था।

दुनिया के इस पहले आवासीय अंतरराष्ट्रीय विश्वविद्यालय में दुनिया भर से आए 10,000 छात्र रहकर शिक्षा लेते थे, तथा 2,000 शिक्षक उन्हें दीक्षित करते थे। यहां आने वाले छात्रों में बौद्ध यात्रियों की संख्या ज्यादा थी। गुप्त राजवंश ने प्राचीन कुषाण वास्तुशैली से निर्मित इन मठों का संरक्षण किया। यह किसी आंँगन के चारों ओर लगे कक्षों की पंक्तियों के समान दिखाई देते हैं।

सम्राट अशोक तथा हर्षवर्धन ने यहां सबसे ज्यादा मठों, विहार तथा मंदिरों का निर्माण करवाया था। हाल ही में विस्तृत खुदाई यहां संरचनाओं का पता लगाया गया है। यहां पर सन् 1951 में एक अंतरराष्ट्रीय बौद्ध शिक्षा केंद्र की स्थापना की गई थी। इसके नजदीक बिहारशरीफ है, जहां मलिक इब्राहिम बाया की दरगाह पर हर वर्ष उर्स का आयोजन किया जाता है।

छठ पूजा के लिए प्रसिद्ध सूर्य मंदिर भी यहां से दो किलोमीटर दूर बडागांव में स्थित है। यहां आने वाले नालंदा के महान खंडहरों के अलावा ‘नव नालंदा महाविहार संग्रहालय भी देख सकते हैं।

14 हेक्‍टेयर क्षेत्र में इस विश्‍वविद्यालय के अवशेष मिले हैं। खुदाई में मिले सभी इमारतों का निर्माण लाल पत्‍थर से किया गया था। यह परिसर दक्षिण से उत्तर की ओर बना हुआ है। मठ या विहार इस परिसर के पूर्व दिशा में स्थित थे। जबकि मंदिर या चैत्‍य पश्चिम दिशा में। इस परिसर की सबसे मुख्‍य इमारत विहार-1 थी।

वर्तमान समय में भी यहां दो मंजिला इमारत मौजूद है। यह इमारत परिसर के मुख्‍य आंगन के समीप बना हुई है। संभवत: यहां ही शिक्षक अपने छात्रों को संबोधित किया करते थे। इस विहार में एक छोटा सा प्रार्थनालय भी अभी सुरक्षित अवस्‍था में बचा हुआ है। इस प्रार्थनालय में भगवान बुद्ध की प्रतिमा स्‍थापित है। यह प्रतिमा भग्‍न अवस्‍था में है।

यहां स्थित मंदिर नं 3 इस परिसर का सबसे बड़ा मंदिर है। इस मंदिर से समूचे क्षेत्र का विहंगम दृश्‍य देखा जा सकता है। यह मंदिर कई छोटे-बड़े स्‍तूपों से घिरा हुआ है। इन सभी स्‍तूपो में भगवान बुद्ध की मूर्त्तियाँ बनी हुई है। ये मूर्त्तियाँ विभिन्‍न मुद्राओं में बनी हुई है।

विश्‍व‍विद्यालय परिसर के विपरीत दिशा में एक छोटा सा पुरातत्‍वीय संग्रहालय बना हुआ है। इस संग्रहालय में खुदाई से प्राप्‍त अवशेषों को रखा गया है। इसमें भगवान बुद्ध की विभिन्‍न प्रकार की मूर्तियों का अच्‍छा संग्रह है। साथ ही बुद्ध की टेराकोटा मूर्तियां और प्रथम शताब्‍दी का दो जार भी इसी संग्रहालय में रखा हुआ है।

इसके अलावा इस संग्रहालय में तांबे की प्‍लेट, पत्‍थर पर टंकन (खुदा) अभिलेख, सिक्‍के, बर्त्तन तथा 12वीं सदी के चावल के जले हुए दाने रखे हुए हैं।

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