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झारखंड, मलेरिया, सदर अस्पताल, दवा नहीं, मौत, अमानवीयता की हद

“अस्पताल में बच्चा अंतिम सांसें गिनता रहा। पिता शहर में दवाएं ढूंढ़ता रहा। जब दवा लेकर लौटा तो बच्चे की जान जा चुकी थी। एंबुलेंस मिल जाती तो मीडिया उसकी मौत का नोटिस भी नहीं लेता।”

रांची (INR)। झारखंड में इन दिनों मलेरिया का भीषण प्रकोप है। गरीब ग्रामीण अक्सर बहुत तबीयत बिगड़ने पर ही अस्पताल पहुंच पाते हैं। ऐसे में अस्पतालों में मलेरिया की दवाएं हमेशा रहनी ही चाहिए। अति गंभीर मरीजों को कैसे क्रिटिकल केयर दें, यह भी होना चाहिए। मगर आठ साल के सुमन को वक्त पर दवाएं नहीं मिलीं।

अब इसकी जांच हो रही है कि आखिर उसे एंबुलेंस क्यों नहीं मिली। जबकि जांच यह भी होनी चाहिए कि दवा क्यों नहीं मिली। क्योंकि मौत के बाद एंबुलेंस मिलने से बड़ा अपराध है अस्पताल में जीते जी दवा मिलना।

बहरहाल, गुमला सदर अस्पताल में मलेरिया की कोई दवा मिलने से बच्चे की मौत हो गई। एबुंलेंस नहीं मिलने पर पिता को अपनी पीठ पर बेटे का शव ढोने को मजबूर होना पढ़ा।

पीड़ित का कहना है कि उसका बेटा पांच दिन से बुखार से तप रहा था। उसके पास सिर्फ 300 रुपए थे। डॉक्टर के पास जाने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था। बेटा की तबीयत ज्यादा बिगड़ी तो गुमला सदर अस्पताल ले गया। लेकिन वहां उसके बेटे को दवा नहीं, मौत मिली।

उसके बाद केदली गांव के करण सिंह को गुमला सदर अस्पताल में जब बेटे का शव ले जाने के लिए एंबुलेंस नहीं मिली तो उन्होंने पीठ पर शव बांधा। पत्नी के साथ नंगे पैर गांव के लिए चल दिए।

घटना की कहानी पिता की जुबानी…

“मैं बसिया के केदली गांव का रहने वाला हूं। जलावन की लकड़ी बेचकर घर चलाता हूं। मेरा बेटा सुमन बसिया के ममरला प्राथमिक विद्यालय में दूसरी कक्षा का छात्र था। पांच दिन से उसे बुखार था। पर मेरे पास सिर्फ 300 रुपए थे। इसलिए डॉक्टर के पास जाने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था। शनिवार को तबीयत ज्यादा बिगड़ गई तो उसे लेकर 50 किमी दूर गुमला के सदर अस्पताल पहुंचा। डॉ. नम्रता टोपनो ने जांच कर बताया कि उसे मलेरिया और पीलिया है। दवाएं लिख दी, पर अस्पताल में कोई दवा नहीं मिली। बाजार से दवा खरीदने गया। जोड़-तोड़ कर लगा कि खरीद लेंगे।

कुछ पैसे दुकानदार ने छोड़ दिए। इसमें करीब आधा घंटा लग गया। दवा लेकर अस्पताल लौटा तो बहुत देर हो चुकी थी। बेटे की मौत हो गई थी। अब बेटे का शव लेकर गांव जाने की चिंता सताने लगी। अस्पताल प्रबंधन से एंबुलेंस मांगी, लेकिन नहीं मिली।

मेरे सारे पैसे भी खत्म हो चुके थे। समझ में नहीं रहा था कि शव कैसे गांव ले जाऊं। जब कोई सहायता नहीं मिली तो अपने जिगर के टुकड़े को पीठ पर बांधा और नंगे पांव ही गांव के लिए निकल पड़ा। साथ में पत्नी देवकी भी थी। बस से सिसई पहुंचे।

वहां से ऑटो से नगर गांव। बस और ऑटो वाले ने जब सुना तो पैसे नहीं लिए। नगर गांव में लोगों को आपबीती सुनाई तो कुछ युवकों ने बाइक से गांव पहुंचाया। “

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