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      …न तू अंधा है, न अपाहिज है और न निकम्मा! तो फिर ऐसा क्यूं?

      -: मुकेश भारतीय :-

      इसको भाव शून्यता कहिये, चाहे कहिये निर्बलता, नाम कोई भी दे सकते हैं आप मेरी मजबूरी को।

      कि जंगल-जगल ढूंढ रहा हूं, मृग बनके कस्तूरी को, बड़ा मुश्किल है तय करना, खुद से खुद की दूरी को।।

      कभी मेरी द्वारा रचित-प्रकाशित कविता के उपरोक्त अंश आज फिर एक बार मन-मस्तिष्क को झकझोर रही है। हर तरफ इस तरह की माहौल बन गया है कि किसी के दुःख-दर्द को उकेरना भी बड़ा मुश्किल है।raznama

      ऐसा इसलिये कि हम जिस वर्ग की बात करते हैं, वे वर्ग ही सर्वहारा है। उसमें कोई खुद अपनी लड़ाई लड़ने को सामने नहीं आता है और यह मान कर चलता है कि उसकी दुनिया इतनी विशाल है कि उसके समस्याओं को लेकर कोई न कोई स्वंय उठ खड़ा होगा और उसे न्याय अवश्य मिलेगा।

      कभी मैं भी उसी कुसोच की शिकार था। लेकिन समाज और व्यवस्था के थपेड़ों ने अहसास कराया कि इस अदूरदर्शी दुनिया में खुद की जंग खुद ही लड़ना पड़ता है, चाहे जीत हो या हार। सहारे की जरुरत उसे होती है, जो अपाहिज होते हैं या अंधे या फिर निकम्मे।

      नालंदा जिले के इस्लामपुर प्रखंड ईलाके में राम कुमार वर्मा स्थानीय स्तर पर काफी लंबे अरसे से समाचार संकलन, लेखन व संप्रेषण के कार्य में जुटे हैं। फिलहाल वे दैनिक भास्कर और दैनिक हिन्दुस्तान सरीखे नामचीन अखबार के लिये समाचार प्रेषित करते हैं।

      श्री वर्मा की गैरमजरुआ मालिक व्यवसायिक भूमि की फर्जी तरीके से हिलसा अवर निबंधन कार्यालय में दबंग-दलालों द्वारा रजिस्ट्री करा ली गई है। इसे लेकर वे काफी परेशान और डरे सहमे हैं।

      यहां तक जानकारी मिली है कि फर्जीबाड़ा करने वाले मुझे तलाश रहे हैं। शायद वे समझते हैं कि इस्लामपुर या हिलसा में मिल जायें और वे मेरी टेंटूआ दबा दे। अजीब स्थिति है। इस फर्जीबाड़े पर हिलसा-नालंदा प्रशासन की ओर से कोई जांच कार्रवाई क्यों नहीं की जा रही है। आखिर बकरे की मां कब तक खैर मनायेगी?

      अत्यंत चिंता की बात यह है कि उनके साथ कोई भी आंचलिक पत्रकार खड़ा नहीं है। यहां तक कि दोनों अखबार के तथाकथित ब्यूरो प्रमुख या वरीय संवाददाता-पत्रकार ने लाख अनुरोध के बाद कोई सुध नहीं ली। उन्हें सिर्फ अपने मतलब के समाचार और अधिकाधिक विज्ञापन की भूख है।

      pressएक आंचलिक संवाददाता अफसरों, जनप्रतिनिधियों, सामाजिक कार्यकर्ताओं आदि की खबरों को भी काफी आत्मयीयता से परोसता है। सबके दुःख-दर्द में शामिल होता है लेकिन, जब वो मुसीबत-परेसानी में होता है तो कोई सामने नहीं आता। आखिर इस सच को किन शब्दों में उकेरा जाये।

      कम से कम कोई आंचलिक पत्रकार जिस अखबार के लिये अपना पसीना बहाता और खून सुखाता है, उसे तो अहसान फरामोशी से बचना चाहिये। लेकिन नहीं। आखिर वो व्यवस्था के बीच उसके रहनुमाओं से रिश्ता खराब क्यों करेगा?

      आज रामकुमार वर्मा सरीखे आंचलिक पत्रकार के सामने जो परिस्थितियां है, उसे कई बार खुद झेल चुका हूं। जब भी शासकीय परेशानी में घिरा, खुद उबरा। अंदर के सच को कोई कुचक्र रौंद नहीं सकता।

      यह आत्मविश्वास ही दुनिया की सबसे बड़ी ताकत है, जो न कभी हारा है और न कभी हारेगा। समय चक्र के साथ सब कुछ बदल जायेगा लेकिन, सच सिर्फ सच रहेगा। चूकि मैं पत्रकार हूं या क्या हूं…खुद की अंतरात्मा इन दो पाटों के बीच पीसता रहता है।

      वरीय पत्रकार राम विलास जी हमेशा कहा करते हैं कि कुछ भी लिखा जाये लेकिन उसमें भाषा संयमित होनी चाहिये। वेशक होनी चाहिये। लेकिन क्या आज की व्यवस्था में संयमित व्यवहार सिर्फ पत्रकारों के लिये ही सर्वमान्य है। उदंड तंत्र के लिये कोई भाषा या कार्य शैली निर्धारित नहीं होनी चाहिये।

      वेशक आज की दौर में सूचनाओं का लेखन और संपादन बड़ा जटिल कार्य हो गया है। हर कोई सिर्फ अपनी स्वार्थ की खबरों का प्रकाशन चाहता है। पुलिस-प्रशासन के लोग अपने निकम्मेपन के शब्द सुनना तक नहीं चाहते। नेता लोग भी अभिनेता की तरह सिर्फ गुणगान चाहते हैं। जिस विपक्ष को हर जगह समस्याओं का अंबार नजर आता है, उसके सत्तासीन होने साथ ही सर्वत्र सुशासन और विकास स्थापित हो जाता है।

      mediaआज थाना में बैठे दारोगा, प्रखंड में बैठे बीडीओ, अंचल में बैठे सीओ, अनुमंडल में बैठे एसडीओ-डीएसपी, जिले में बैठे डीएम-एसपी या फिर विधायक-सांसद लोग प्रायः सेवक-रक्षक कम, और आवाम की मालिक अधिक समझ बैठें हैं। उनकी नजर में आम जन में सब के सब निरा मूर्ख शाषित समुदाय हैं।

      आखिर इन लोगों की योग्यता क्या है, जो सामान्य नागरिकों में अनेक लोगों के पास नहीं है कि वे हमारे सिरमौर बनें। कम से कम आईएएस-आईपीएस तो भारतीय संविधान के इस मूल सार से वाकिफ तो हैं हीं कि “लोकतंत्र यानि लोगों का शासन। यह एक ऐसी शासन व्यवस्था है, जिसमें जनता अपना शासक खुद चुनती है। यह लोकतांत्रिक केन्द्र और लोकतांत्रिक राज्य दोनों के लिये प्रयुक्त होता है।”

      जनप्रतिनियों की हालत तो सबसे सोचनीय है। वे पांच साल के लिये चुने जाते हैं। जाति-वर्ग-धर्म की गोलबंदी में भिखारी बन जीतते हैं और फिर खुद को राजा समझ बैठते हैं। आम जनता की कमाई को लूट धनाठ्य बने ऐसे लोगों पर कितनी थू-थू होती है, इसकी उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता। वे राजनीतिक तौर पर बंदर के समान कभी इस डाल तो कभी उस डाल उछल-कूद लोगों के विश्वास के खिलवाड़ करते रहते हैं। आंचलिक पत्रकार उनके इसी खेल को किसी न किसी लालच में गुणगान करते नहीं अघाते।    

      ऐसे में हमारी साफ सोच है कि वैसे लोग यह भूल रहे हैं कि वे और उनके परिवार को जो सुख-सुविधा मिली है, उसमें आम जन की ही खून-पसीने की गाढ़ी कमाई छुपी है। पैसे कोई पेड़ में उगते कि सरकार उन्हें तोड़ कर देती है।  

      सबसे बड़ी वेशर्मी तो देखिये कि वर्तमान में ये सपरिवार आधुनिक सुख-सुविधा भोगने के बाबजूद अपनी सात नस्लों के भविष्य सुरक्षित करने की मंशा से दिन-रात आम नीरिहों के खून निचोड़ने में लगे हैं!

      बहरहाल, हम अपनी साइट को आगे अधिक धारदार बनाने की रणनीति पर काम कर रहे हैं। इस आशय के साथ कि…..

      संबंधो के वो सारे पूल न जाने कब टूट गये, जो अक्सर कम कर देते थे मन से मन की दूरी को। कि जंगल-जंगल ढूंढ रहा हूं मृग बनके कस्तूरी को….…..जय मां भारती।

       

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