
रांची (एक्सपर्ट मीडिया न्यूज)। झारखंड के पुलिस महानिदेशक (डीजीपी) अनुराग गुप्ता की नियुक्ति को लेकर दायर अवमानना याचिका को सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार, 18 अगस्त 2025 को खारिज कर दिया। यह याचिका झारखंड विधानसभा के नेता प्रतिपक्ष और भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के प्रदेश अध्यक्ष बाबूलाल मरांडी सहित अन्य याचिकाकर्ताओं ने दायर की थी। सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले से झारखंड सरकार और डीजीपी अनुराग गुप्ता को बड़ी राहत मिली है, जबकि बाबूलाल मरांडी को करारा झटका लगा है।
झारखंड में डीजीपी अनुराग गुप्ता की नियुक्ति को लेकर विवाद तब शुरू हुआ, जब बाबूलाल मरांडी ने सुप्रीम कोर्ट में अवमानना याचिका दायर कर दावा किया कि गुप्ता की नियुक्ति सुप्रीम कोर्ट के 2006 के ऐतिहासिक ‘प्रकाश सिंह बनाम भारत संघ’ मामले में दिए गए दिशा-निर्देशों का उल्लंघन है।
याचिका में आरोप लगाया गया था कि झारखंड सरकार ने यूपीएससी द्वारा अनुशंसित पैनल से चुने गए तत्कालीन डीजीपी अजय कुमार सिंह को उनके दो साल के कार्यकाल से पहले हटाकर अनुराग गुप्ता को ‘कार्यवाहक’ डीजीपी के रूप में नियुक्त किया, जो नियमों के खिलाफ है। याचिकाकर्ताओं ने इसे न्यायालय की अवमानना करार देते हुए मुख्य सचिव सहित अन्य अधिकारियों को प्रतिवादी बनाया था।
इसके अतिरिक्त विवाद को और बल तब मिला, जब केंद्र सरकार ने अनुराग गुप्ता के सेवा विस्तार के लिए झारखंड सरकार के प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया। गुप्ता 30 अप्रैल 2025 को 60 वर्ष की आयु पूरी कर सेवानिवृत्त होने के पात्र हो गए थे, लेकिन राज्य सरकार ने उन्हें डीजीपी पद पर बनाए रखने का निर्णय लिया, जिसे केंद्र ने नियम-विरुद्ध बताया। यह मामला केंद्र और राज्य सरकार के बीच टकराव का कारण बना।
आज सोमवार को सुप्रीम कोर्ट में चीफ जस्टिस बीआर गवई, जस्टिस के विनोद चंद्रन और जस्टिस एनवी अनजारिया की पीठ ने इस मामले की सुनवाई की। सुनवाई के दौरान कोर्ट ने याचिकाकर्ताओं के तर्कों को सिरे से खारिज कर दिया।
चीफ जस्टिस गवई ने सख्त लहजे में कहा कि अवमानना की कार्यवाही का उपयोग राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता साधने या निपटाने के लिए नहीं किया जा सकता। राजनीतिक हिसाब-किताब जनता के बीच जाकर बराबर कीजिए। उन्होंने स्पष्ट किया कि यह मामला दो वरिष्ठ अधिकारियों के बीच विवाद का है, जिसे अवमानना का रूप देने की कोशिश की जा रही है।
झारखंड सरकार की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता कपिल सिब्बल ने मजबूती से पक्ष रखा। उन्होंने तर्क दिया कि डीजीपी की नियुक्ति राज्य सरकार के अधिकार क्षेत्र में है और अनुराग गुप्ता की नियुक्ति सभी नियमों और प्रक्रियाओं का पालन करते हुए की गई है। कोर्ट ने इस तर्क को स्वीकार करते हुए याचिका को खारिज कर दिया।
याचिकाकर्ताओं की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता अंजना प्रकाश ने दलील दी कि झारखंड में ‘कार्यवाहक डीजीपी’ की नियुक्ति उत्तर प्रदेश की तर्ज पर की गई है, जो सुप्रीम कोर्ट के दिशा-निर्देशों का उल्लंघन है।
उन्होंने कहा कि यूपीएससी की अनुशंसित सूची से डीजीपी का चयन और दो साल का निश्चित कार्यकाल अनिवार्य है। हालांकि चीफ जस्टिस ने जवाब दिया कि हमारे असाधारण अधिकार तब तक लागू रहते हैं, जब तक कोई कानून न बना हो। लेकिन जब विधानमंडल कानून बना देता है तो अदालत के निर्देशों के बजाय वही कानून लागू होगा।
सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि जनहित याचिकाएं समाज के वंचित और असमर्थ वर्गों के हित में दायर की जाती हैं, न कि दो प्रतिस्पर्धी अधिकारियों या राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों के बीच व्यक्तिगत झगड़े सुलझाने के लिए।
कोर्ट ने यह भी सुझाव दिया कि यदि कोई अधिकारी अपनी सेवा या पद से असंतुष्ट है तो उसके पास केंद्रीय प्रशासनिक अधिकरण (CAT) जैसे कानूनी विकल्प उपलब्ध हैं।
कोर्ट ने यह भी टिप्पणी की कि कई राज्य सरकारें स्थायी डीजीपी के बजाय ‘कार्यवाहक डीजीपी’ नियुक्त कर नियमों को दरकिनार करने की कोशिश करती हैं, जो चिंता का विषय है। हालांकि इस मामले में कोर्ट ने याचिका को राजनीतिक मकसद से प्रेरित मानते हुए इसे स्वीकार करने से इनकार कर दिया।
अनुराग गुप्ता की नियुक्ति को लेकर केंद्र और झारखंड सरकार के बीच तनाव बना हुआ है। केंद्र सरकार का कहना है कि गुप्ता की सेवा अवधि 30 अप्रैल 2025 को समाप्त हो चुकी है और उनका सेवा विस्तार असंवैधानिक है। वहीं हेमंत सोरेन के नेतृत्व वाली झारखंड सरकार अपने फैसले पर अडिग है और गुप्ता की नियुक्ति को पूरी तरह वैध ठहरा रही है।
सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले ने फिलहाल झारखंड सरकार को राहत दी है, लेकिन केंद्र और राज्य के बीच यह विवाद अभी पूरी तरह शांत नहीं हुआ है।
सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले ने न केवल अनुराग गुप्ता की नियुक्ति को मजबूती दी है, बल्कि झारखंड में सत्तारूढ़ जेएमएम-कांग्रेस गठबंधन को भी राजनीतिक बढ़त दी है।
दूसरी ओर बाबूलाल मरांडी और भाजपा को इस मामले में हार का सामना करना पड़ा है। यह मामला पुलिस सुधारों और प्रशासनिक पारदर्शिता को लेकर एक नई बहस को जन्म दे सकता है।
कई विश्लेषकों का मानना है कि यह विवाद केवल प्रशासनिक नियुक्ति तक सीमित नहीं है, बल्कि इसके पीछे गहरे राजनीतिक निहितार्थ भी हैं। आने वाले दिनों में इस मामले को लेकर केंद्र और राज्य सरकार के बीच और टकराव की संभावना बनी हुई है।
बहरहाल सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला झारखंड के प्रशासनिक और राजनीतिक परिदृश्य में एक महत्वपूर्ण मोड़ है। अनुराग गुप्ता की डीजीपी के रूप में स्थिति अब और मजबूत हो गई है, लेकिन इस मामले ने पुलिस सुधारों और केंद्र-राज्य संबंधों पर व्यापक चर्चा को जन्म दिया है।
यह आगे यह देखना दिलचस्प होगा कि भविष्य में यह विवाद किस दिशा में जाता है और क्या यह पुलिस प्रशासन में पारदर्शिता और जवाबदेही को लेकर नए सुधारों का मार्ग प्रशस्त करता है।