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    Saturday, November 23, 2024
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      नीतीश कुमार पलटू राम हैं तो सभी पार्टियों के नेता उनके साथ आने से इतरा क्यों उठते हैं ?

      "पालतू मीडिया दिन रात नरेंद्र मोदी और आरएसएस के पक्ष और पसंद का नैरेटिव गढ़ने में लगा है, यह तो समझ में आता है, लेकिन बाकी मीडिया में भी नीतीश के पक्ष का नैरेटिव गढ़ने वाला कोई बुद्धिजीवी नजर नहीं आता...

      एक्सपर्ट मीडिया न्यूज नेटवर्क / धनंजय कुमार। नीतीश कुमार को पलटू राम या कुर्सी कुमार कहना उनकी राजनीतिक काबिलियत को छोटा करने की कोशिश है। लेकिन सच ये है कि राजनीति के वे माहिर खिलाड़ी हैं। अपने धुर विरोधियों को भी अपना समर्थक बनाना उन्हें खूब अच्छे से आता है।

      बिहार की 7 पार्टियां जो कलतक नीतीश कुमार के विरोध में थी, आज उनके समर्थन में हैं। धुर विरोधी राजद और अपनी विचारधारा को लेकर अडिग रहने वाली कम्युनिस्ट पार्टियां भी इनमें शामिल हैं।

      ये नीतीश कुमार की काबिलियत है कि हर कोई नीतीश कुमार को अपना बनाना चाहता है और जैसे ही नीतीश हामी भरते हैं, विरोधी समर्थन में मजबूती से उठ खड़े होते हैं। आज जो तेजस्वी यादव और लालू यादव का पूरा कुनबा-परिवार और पार्टी नीतीश कुमार को पीएम मैटेरियल बता रहे हैं और राष्ट्रीय स्तर पर विपक्ष का नेतृत्व करने के लिए आगे बढ़ने को कह रहे हैं, उसी तेजस्वी यादव और राजद परिवार ने नीतीश कुमार को 2017 में पलटू राम कहा था।

      कलतक जो बीजेपी कलतक नीतीश कुमार की पालकी ढो रही थी, वही बीजेपी आज उन्हें धोखेबाज और कुर्सी कुमार कह रही है। नीतीश कुमार धोखेबाज हैं, पलटू राम हैं, कुर्सी कुमार हैं, उनकी कोई निश्चित पॉलिटिकल आइडियोलॉजी नहीं है, राजनीति में वह भरोसे के लायक नहीं हैं, कब वह साथी बदल लें, कोई नहीं जानता आदि आदि, यही सब जुमले उनके साथ आरोप के तौर पर मढ़े जाते हैं, लेकिन बावजूद इसके सब नीतीश कुमार के साथ आने को लालायित रहते हैं-क्यों?  और जैसे ही साथ आते हैं, क्यों सब कसीदे पढ़ने लगते हैं?

      पलटू राम का आरोप नीतीश कुमार पर 2017 में लगा था, जब नीतीश राजद-कांग्रेस और वामपंथी पार्टियों का साथ छोड़ वापस बीजेपी के साथ चले गए थे। लेकिन दिलचस्प बात देखिए कि जो भरोसे के लायक नहीं हैं, उसी नीतीश के पाला बदलने से बिहार ही नहीं, पूरे देश के विपक्ष में खुशी और उम्मीद की लहर दौड़ गई है। नरेंद्र मोदी सरकार से त्रस्त और घबराए-किंकर्तव्यवईमूढ़ विपक्ष को एक ढाल मिल गया है। रातोंरात देश का पॉलिटिकल नैरेटिव चेंज हो गया है।

      बीजेपी इसी नैरेटिव के बल पर विपक्ष को रौंदती चली जा रही थी कि नरेंद्र मोदी का विकल्प नहीं है। बीजेपी के राष्ट्रीय नेता से लेकर बिहार बीजेपी के चंपू नेता तक 2020 के विधानसभा चुनाव के बाद कहने लगे थे कि नीतीश कुमार की पार्टी की कम सीटें हैं, फिर भी हमने उनको मुख्यमंत्री बनाया, ये बीजेपी और नरेंद्र मोदी और अमित शाह जी का बड़प्पन है।

      उन्होंने कभी ये नहीं स्वीकारा कि चिराग पासवान को मोहरा बनाकर नीतीश कुमार को धोखा दिया। पिछले दो सालों में मोदी-शाह की टीम ने नीतीश कुमार को छोटा करने का कोई दांव नहीं छोड़ा। और जिस नीतीश कुमार को बीजेपी ने शिवसेना के उद्धव ठाकरे की तरह निबटाने की तैयारी कर दी थी, उसी नीतीश कुमार ने आठवीं बार मुख्यमंत्री पद की शपथ लेते हुए कह दिया हम तो पीएम के दावेदार नहीं हैं, लेकिन जो पीएम हैं वो 2024 में रहेंगे कि नहीं रहेंगे, नहीं पता।

      और इस एक लाइन के बयान से देश की राजनीति में उबाल आ गया। हताश और बिखरा विपक्ष खिल उठा और बीजेपी में उदासी पसर गई। बिहार बीजेपी का रोना पीटना कल से पूरा देश देख रहा है। बीजेपी के राष्ट्रीय नेता चुप हैं, जैसे पाला मार गया हो।

      टीवी चैनलों पर विद्वान विश्लेषक बहसे कर रहे हैं। नीतीश कुमार को लेकर, विपक्ष को लेकर, बीजेपी और नरेंद्र मोदी को लेकर नया नैरेटिव गढ़ रहे हैं।

      लेकिन ज्यादातर विश्लेषक यहाँ आकर ठहर जाते हैं- नीतीश कुमार पलटू नेता हैं, पता नहीं कब पलट जाएँ। लेकिन विडंबना है पलटने की वजह जानने के बाद भी विद्वान विश्लेषक इस तथ्य के पीछे के सच का विश्लेषण करना जरूरी नहीं समझते।

      देश की लगभग सारी पार्टियों और नेताओं ने अपना पाला बदला। याद कीजिए आजादी की लड़ाई के समय कम्युनिस्ट पार्टियां और आरएसएस क्या कर रहे थे? कांग्रेस को हटाने के लिए गैर कांग्रेसियों ने क्या नहीं किया।

      सत्ता के लिए बीजेपी और कम्युनिस्ट पार्टियां भी एक नाव पर सवार हुईं। वंशवाद, भ्रष्टाचार और तानाशाही से लड़ने के नाम पर संघ और बीजेपी से हाथ मिलाने से परहेज नहीं किया और जब बीजेपी मजबूत हो गई तो सांप्रदायिकता और तानाशाही से लड़ने के नाम पर वे सब काँग्रेस के साथ चलने को खुशी खुशी तैयार हैं। क्या ये पलटना नहीं है? क्या ये आइडियोलॉजी के साथ चलना है?

      नीतीश कुमार ने भी तो वही किया। बीजेपी जब नरेंद्र मोदी को नेता चुन रही थी, तब उन्होंने नरेंद्र मोदी का विरोध किया और अलग हो गए। राजद-कांग्रेस-कम्युनिस्ट पार्टियों के साथ गए और जब राजद ने अपनी मनमानी शुरू की तो फिर से बीजेपी के साथ हो लिए। और जब बीजेपी ने तानाशाही रुख अख्तियार कर लिया तो राजद-कांग्रेस-कम्युनिस्ट गठबंधन को साथ ले लिया। एक तरफ गड्ढा दूसरी तरफ खाई। नीतीश कुमार ने दोनों से बिहार को बचाने की कोशिश की और बचाया भी।

      लेकिन क्या कभी उनपर लालू प्रसाद के जैसा भ्रष्टाचार और वंशवाद का आरोप लगा? क्या बीजेपी के साथ रहने के बाद भी कभी सांप्रदायिक सद्भाव को बिगाड़ने या कहें धर्मनिरपेक्षता के भाव को नुकसान पहुंचाने का कोई काम किया? बल्कि इन दोनों मामलों में उन्होंने सारी पार्टियों से बेहतर काम किया।

      बंगाल में दशकों कम्युनिस्ट सरकार रही, पिछले दस साल से बंगाल में क्या हो रहा है? त्रिपुरा के हालात कैसे हैं? बीजेपी और नरेंद्र मोदी को रोकने के लिए कम्युनिस्ट पार्टियां क्या रही हैं?

       वैसे ही कांग्रेस के किस राज्य में हालात ठीक हैं? जहां बीजेपी सरकारें हैं वहाँ सांप्रदायिक सद्भाव और लोकतंत्र की क्या हालत है? लेकिन कांग्रेस, बीजेपी या कम्युनिस्ट सब अच्छी हैं, अपनी अपनी आइडियालोजी पर हैं, कोई पलटू नहीं हैं।

      क्या बिहार में नीतीश कुमार ने जो राजनीतिक स्थिति-परिस्थिति बनायी है कि हर पार्टी उन्हें अपना साथी बनाना चाहती है, कोई उन्हें अछूत नहीं मानती और जिसके साथ वो जातें हैं, उसकी बाछें खिल जाती है- नीतीश कुमार के कसीदे पढ़ने लगती हैं, क्या है इसकी वजह? उनकी पलटू राम, कुर्सी कुमार या अविश्वसनीयता की छवि या सबको साथ लेकर चलने की राजनीतिक कुशलता? सबका साथ सबका विकास नरेंद्र मोदी ने किया या नीतीश ने?

      17 साल से नीतीश कुमार मुख्यमंत्री हैं- जातिवाद से बुरी तरह ग्रसित राज्य में कभी किसी जाति विशेष के साथ भेदभाव किया? बिहार जातीय नरसंहारों और सांप्रदायिक दंगों के लिए कुख्यात रहा है, दशकों ये सब झेला है, क्या नीतीश कुमार ने 17 साल के कार्यकाल में ऐसी स्थिति बनने दी? क्या कानून व्यवस्था, सड़क और बिजली की व्यवस्था तारीफ के योग्य नहीं है?

      बावजूद इसके नीतीश कुमार पलटू राम, कुर्सी कुमार हैं, राजनीतिक तौर अविश्वसनीय हैं तो इसलिए कि नीतीश ने अपने पक्ष में नैरेटिव गढ़ने वाले बौद्धिक नहीं बनाए।

      उन्होंने बस अपने काम से काम रखा। अपने परिवार को राजनीति से दूर रखा। जाति के गुंडे खड़े नहीं किए और न जाति के बौद्धिक गढ़े, जो उनके लिए टीवी पर आकर कसीदे पढ़े, अखबारों में आलेख लिखे। उन्होंने कार्यपालिका के काम में दखल देने वाले नेताओं पर लगाम लगाया। ध्यान रखा कि कानून का राज बना रहे।

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