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      दोराहा पर खड़ा जदयू, अब नीतीश कुमार जाएं तो कहां जाएं…

      एक्सपर्ट मीडिया न्यूज डेस्क। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और राजद प्रमुख लालू प्रसाद यादव इंडिया अलायंस से अलग-अलग कारणों से दुखी हैं। नीतीश को दुख इस बात से है कि इंडिया अलायंस में उन्हें तरजीह नहीं मिली और एनडीए में वापसी के रास्ते भी बंद हो चुके हैं। साल 2025 में नीतीश ने मुख्यमंत्री पद छोड़ने का भी ऐलान कर दिया है। लालू के दुख कारण यह है कि नीतीश ने राष्ट्रीय राजनीति से मुंह चुराया उनके बेटे तेजस्वी यादव का विधानसभा के इस कार्यकाल में मुख्यमंत्री बन पाना असंभव हो जाएगा।

      दरअसल बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का पाला पहली बार देश के धुरंधर राजनीतिक खिलाड़ियों से पड़ा है। अभी तक उनका जादू बिहार में लोगों के सिर चढ़ कर बोलता रहा है। बिहार में नीतीश कुमार का व्यक्तित्व एक ऐसे राजनीतिज्ञ का बन गया है, जिनकी तरह फिलहाल कोई नहीं दिखता।

      विपक्षी दलों के गठजोड़ से बनी इंडिया अलायंस में नीतीश को वैसी तरजीह या भूमिका नहीं मिली, जिसके वे हकदार थे। प्रधानमंत्री और कन्वेनर की रेस से वे खुद क्या बाहर हुए, इंडिया अलायंस के सहयोगी दलों ने भी उन्हें इस मामले में बाहर का रास्ता दिखा दिया।

      राजद ने दिखाया था प्रधानमंत्री का सपनाः साल 2022 में नीतीश कुमार ने एनडीए से अलग होकर महागठबंधन के साथ जाना पसंद किया। इसके पीछे उनकी पहली मंशा यह थी कि मुख्यमंत्री की कुर्सी सलामत रहे। ठीक इसके समानांतर एक और चर्चा भीतर ही भीतर जोर पकड़ रही थी कि बिहार में महागठबंधन की तर्ज पर नीतीश कुमार देश भर के विपक्षी दलों का अलायंस बनाने के प्रयास में लगेंगे। उन्हें यह टास्क सरकार में सहयोगी सबसे बड़ी पार्टी राजद ने ही दिया था।

      तब राजद के प्रदेश अध्यक्ष और लालू यादव के बेहद करीबी जगदानंद सिंह ने कहा था कि लालू जी ने नीतीश को जीत का टीका लगा दिया है। लालू का जिन्हें आशीर्वाद मिलता है, वह प्रधानमंत्री बन ही जाता है। जगदानंद ने तब इंद्र कुमार गुजराल और एचडी देवेगौड़ा जैसे कुछ नाम भी गिनाए थे। उनका दावा था कि लालू की मदद से ही वे प्रधानमंत्री बन पाए। इसलिए नीतीश जी का प्रधानमंत्री बनना अब पक्का है।

      विपक्षी एकता के लिए सक्रिए हुए नीतीशः नीतीश कुमार ने राजद के दिए टास्क के मुताबिक सबसे पहले कांग्रेस की तत्कालीन अध्यक्ष सोनिया गांधी से मिलने का समय मांगा। सोनिया ने कोई रेस्पांस नहीं दिया तो नीतीश ने लालू प्रसाद यादव का सहारा लिया। लालू की मदद से नीतीश की मुलाकात सोनिया गांधी से तो हुई, लेकिन कोई ठोस बात सामने नहीं आई।

      बड़े नेताओं की मुलाकातों की तस्वीरें अक्सर मीडिया में छपती रही हैं, लेकिन सोनिया-नीतीश मुलाकात की कोई तस्वीर बाहर नहीं आई। नीतीश खामोश हो गए, लेकिन राजद के दिखाए प्रधानमंत्री के सपने ने उन्हें चौन से बैठने नहीं दिया। कई मौकों पर नीतीश ने सार्वजनिक मंचों पर इस बात पर चिंता जाहिर की कि कांग्रेस विपक्षी एकता की बात आगे बढ़ाने में अब और देर न करे।

      इस साल जब नीतीश कुमार को कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे का फोन आया तो उनकी सक्रियता एक बार फिर बढ़ गई। आनन-फानन में वे दिल्ली गए और खरगे और राहुल से विपक्षी एकता का सूत्र समझ कर उत्साह से लौटे। कांग्रेस के दोनों आला नेताओं ने नीतीश को ही विपक्षी दलों को एक मंच पर लाने का टास्क दे दिया।

      नीतीश रेस हुए और उन्होंने ममता बनर्जी, अखिलेश यादव, शरद पवार, उद्धव ठाकरे, अरविंद केजरीवाल, हेमंत सोरेन और नवीन पटनायक जैसे नेताओं से मुलाकात के लिए उनके गृह राज्यों का दौरा किया। नवीन पटनायक ने तो पहले ही दिन पल्ला झाड़ लिया था, लेकिन बाकी ने साथ आने पर हामी भर दी।

      नीतीश को पहली ही बैठक में लगा झटकाः मेल-मुलाकातों के बाद ममता बनर्जी का सुझाव मानते हुए नीतीश कुमार ने विपक्षी दलों की पहली बैठक पटना में रखी। बैठक में दर्जन भर से ज्यादा विपक्षी दलों के नेता जुटे।

      नीतीश ने यहां अपनी सांगठनिक क्षमता का परिचय दिया। ममता बनर्जी, अरविंद केजरीवाल और अखिलेश यादव जैसे कांग्रेस विरोधी नेताओं को एक मंच पर लाने में नीतीश को कामयाबी मिल गई।

      बैठक में मल्लिकार्जुन खरगे के अलावा राहुल गांधी ने भी शिरकत की। इतना करने के बावजूद नीतीश कुमार को पहला झटका भी उसी बैठक में लगा, जब राहुल गांधी के दूल्हा बनने और विपक्षी नेताओं को बराती बनने की बात कह कर लालू यादव ने विपक्षी एकता की कमान कांग्रेस के हाथ में जाने का संकेत दे दिया।

      पहली बैठक से ही गच्चा खाते रहे नीतीशः नीतीश कुमार की सारी मेहनत पर पानी फिर गया। नीतीश का मजमा लालू और राहुल ने लूट लिया। सियासी हल्के में यह बात खूब चर्चा में रही कि नीतीश कुमार को विपक्षी गठबंधन का संयोजक बनाया जा सकता है। पहली बैठक में तो इसकी चर्चा ही नहीं हुई और बाद की बैठकों में भी संयोजक बनाने की बात नहीं उठी।

      लालू यादव ने खुद ही कह दिया कि संयोजक बनाने की जरूरत ही क्या है। कांग्रेस के नेतृत्व में विपक्षी गठबंधन चुनाव लड़ेगा। बेंगलुरू में हुई विपक्षी दलों की दूसरी बैठक में नीतीश की ऐसी फजीहत हुई कि साझा प्रेस कांन्फ्रेंस में शामिल हुए बगैर समय की कमी बता कर वे निकल गए। सच कहें तो उनके पास समय की कमी थी ही नहीं, क्योंकि वे चार्टर्ड प्लेन से गए थे।

      प्रधानमंत्री के लिए खरगे का नाम आने से खफाः दिल्ली में 19 दिसंबर को हुई विपक्षी गठबंधन की चौथी बैठक में नीतीश कुमार गए तो उम्मीदों के साथ, लेकिन उनकी उम्मीदों पर पानी फिर गया। हालिया विधानसभा चुनावों में कांग्रेस की पराजय से सबको यही लगता था कि कांग्रेस अब बैकफुट पर आ गई है। नेतृत्व की जिम्मेवारी अब दूसरे किसी को सौंपी जा सकती है।

      नीतीश ने चूंकि शुरुआत की थी, इसलिए कई लोगों को पक्का भरोसा था कि नीतीश की लॉटरी लग जाएगी। पर, ममता ने खरगे के नाम का प्रस्ताव प्रधानमंत्री पद के लिए कर दिया। संयोजक पर तो कोई बात ही नहीं हुई। इसका कैसा असर नीतीश कुमार पर हुआ होगा, इसकी सिर्फ कल्पना ही की जा सकती है। उनकी नाराजगी इससे भी समझी जा सकती है कि उन्होंने साझा प्रेस कांफ्रेस में शामिल हुए बगैर पटना का रुख कर लिया। लालू और उनके बेटे तेजस्वी भी नीतीश के साथ ही निकल गए।

      नीतीश के साथ लालू को भी लगा झटकाः ऐसा नहीं है कि नीतीश को गठबंधन में कोई महत्वपूर्ण जिम्मेवारी न मिलने से सिर्फ वे ही नाराज हैं। नाराजगी तो सबसे अधिक लालू यादव की भी है। लालू ने सपना देखा था कि नीतीश इसी बहाने अगर राष्ट्रीय राजनीति में चले जाते हैं तो बिहार में मुख्यमंत्री की कुर्सी उनके बेटे तेजस्वी यादव को मिल जाएगी।

      नीतीश और लालू की नाराजगी क्या गुल खिलाएगी, यह तो समय बताएगा, लेकिन जिस तरह कांग्रेस ने 300 सीटों पर लड़ने का प्लान बनाया है, अगर उतनी सीटों पर विपक्षी दलों में रजामंदी नहीं हुई तो इंडिया अलायंस के बिखरने की एनडीए की भविष्यवाणी के सच साबित होने में देर भी नहीं लगेगी।

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