पटना (एक्सपर्ट मीडिया न्यूज)। बिहार में जदयू एक ऐसी राजनीतिक दल है, जिसके नेता रिकार्ड समय तक मुख्यमंत्री तो बने, लेकिन विधानसभा में कभी अकेले बहुमत नहीं प्राप्त कर सके हैं। उन्होंने कभी राजद तो कभी कांग्रेस तो कभी भाजपा समेत अन्य दलों के साथ ही सरकार चलाया है। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार बिहार में एक बड़ा चेहरा तो हैं, लेकिन उनकी पार्टी जदयू तीसरे नबंर पर आ गिरी है। सीटों के हिसाब से राजद सबसे बड़ी पार्टी है। राजद के साथ पुनः सरकार बनाने के बाद उन्होंने दो टूक कहा था कि वे मिट्टी में मिल जाएंगे, लेकिन अब भाजपा के साथ नहीं जाएंगे। ऐसे में सवाल उठना लाजमि है कि क्या वे येन केन प्रकेरेण सातवीं बार मुख्यमंत्री बनने के बाद अब मिट्टी में मिलने को तैयार हैं?
बिहार की राजनीति के अंदरखाने से बड़ी खबर यह है कि जेडीयू के मंत्री और विधायकों को पटना में ही रहने का निर्देश दिया गया है। ऐसा क्यों है इसको लेकर कई तरह की खबरें सामने आ रही हैं।
बताया जा रहा है कि एक बार फिर बिहार की राजनीति में उथल पुथल हो सकता है और गठबंधन का नया स्वरूप सामने आ सकता है। आरजेडी और जेडीयू की सीट शेयरिंग को लेकर अलग-अलग राय कहीं ना कहीं ये इशारा भी दे रहा है कि बिहार की राजनीति में सब कुछ सहज नहीं है और कुछ बड़ा खेल होने वाला है।
बिहार की राजनीति में कभी भी कोई बड़ा बदलाव हो सकता है। इस बात के संकेत आने शुरू हो गए हैं। कई मसलों पर राजद और जदयू की राय अलग है। 24 जनवरी को कर्पूरी ठाकुर की 100वीं जयंती पर ये दोनों ही दल अपना अलग अलग कार्यक्रम करने जा रहे हैं।
दरअसल, पहले जदयू ने कर्पूरी जयंती की सभा कैंसल की थी, मगर राजद ने 23 जनवरी को भव्य जयंती समारोह की घोषणा के बाद जदयू ने उसके अगले दिन ही वेटनरी ग्राउंड में जयंती का ऐलान किया है। पूरे पटना में माइकिंग के जरिए आमंत्रित किया जा रहा है। जाहिर है अब राजद-जदयू आमने सामने है।
जदयू की मांग पर लालू यादव के अलग सुरः अलग-अलग रैलियों के आयोजन के साथ ही सीट शेयरिंग को लेकर लालू यादव का बयान भी काफी दिलचस्प है। नीतीश कुमार की पार्टी जदयू ने जहां 17 सीटों पर लड़ने की घोषणा की है, और इंडिया अलायंस में जल्द से जल्द सीट शेयरिंग की मांग उठा रही है।
वहीं लालू यादव साफ और स्पष्ट रूप से कह रहे हैं कि सीट शेयरिंग की जल्दी क्या है, यह अपने समय पर होगा। जाहिर है जदयू की जल्दी और राजद की देरी, ये दोनों ही संकेत बिहार की राजनीति की काफी कहानी कह देती है।
राहुल का फोन, तेजस्वी का एक्शन और नीतीश की चुप्पीः हाल के दिनों में नीतीश कुमार और तेजस्वी यादव की दूरी लगातार दिख रही है। प्रकाश पर्व में नीतीश तेजस्वी की दूरी, शिक्षक नियुक्ति पत्र वितरण समारोह में श्रेय लेने की होड़ हो या फिर हाल में ही बिजनेस समिट में इन दोनों नेताओं के बीच की दूरी साफ दिखी है।
हालांकि, राहुल गांधी के फोन के बाद तेजस्वी यादव ने मुख्यमंत्री आवास जाकर यह दूरी पाटने की कवायद की थी, लेकिन नीतीश कुमार की लगातार चुप्पी काफी कुछ इशारा कर रही है कि बिहार में क्या कुछ होने वाला है।
राजद नेताओं के बयानबाजी से सियासी संकेतः बढ़ी हुई दूरी की खबरों के बीच 13 जनवरी को पटना के गांधी मैदान में यह जिक्र करना कि 2005 के पहले बिहार में कैसे हालात थे, यह सीधा-सीधा राजद के शासनकाल पर हमला था।
इसके अगले दिन ही मकर संक्रांति के दिन नीतीश कुमार का बैक गेट से राबड़ी आवास जाकर लालू यादव से मिलना और लालू यादव का नीतीश कुमार को दही का टीका नहीं लगाने की खबरें तो आम हैं।
इसके साथ ही राजद और जदयू के नेताओं का परोक्ष रूप से बयानबाजी भी बढ़ी दूरी की ओर इशारा कर रहे हैं। हाल में ही नीतीश के विरोधी सुनील सिंह और सुधाकर सिंह जैसे नेताओं के तेवर भी फिर तल्ख हो गए हैं।
गृह मंत्री अमित शाह के बयान के सियासी मायनेः संकेत भाजपा के शीर्ष नेताओं और एनडीए के घटक दलों से भी आ रहे हैं कि अंदरखाने सियासी खिचड़ी पक रही है।
दरअसल, हाल में ही केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने एक साक्षात्कार में पूछे गए सवाल कि- पुराने साथी जो छोड़कर गए थे नीतीश कुमार आदि, ये आना चाहेंगे तो क्या रास्ते खुले हैं?
इस पर अमित शाह ने कहा था कि- जो और तो से राजनीति में बात नहीं होती। किसी का प्रस्ताव होगा तो विचार किया जाएगा। उनके इस बयान को भी एक भाजपा और जदयू के बीच घटती दूरी का एक संकेत माना जा रहा है।
एनडीए के घटक दलों के नेताओं का इशाराः इसके साथ ही बड़े संकेत एनडीए के घटक दलों के नेताओं के बयानों से भी मिल रहे हैं। हिंदुस्तानी आवाम मोर्चा के नेता संतोष मांझी ने भी कहा है कि नीतीश कुमार के एनडीए में आने पर उन्हें कोई ऐतराज नहीं। लोजपा के पशुपति कुमार पारस भी यही बात दोहराते रहे हैं कि नीतीश कुमार एनडीए में आने वाले हैं। वहीं, सबसे बड़ा संकेत चिराग पासवान की ओर से मिला है जो अब तक नीतीश कुमार पर लगातार तल्ख रहे हैं। अब उन्होंने भी अपना रुख नर्म कर लिया है।
22 जनवरी तक बिहार की सियासत में बदलाव के कयासः राजनीति के जानकारों की मानें तो बदलाव के संकेत उस समय से ही मिलने शुरू हो गए हैं जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की बेतिया में प्रस्तावित 13 जनवरी की रैली को टाल दिया गया। अब यह रैली 27 जनवरी को होने वाली है।
इससे पहले मकर संक्रांति और रामलला की प्राण प्रतिष्ठा की 22 जनवरी की तिथि के बीच की अवधि काफी महत्वपूर्ण है। इस दौरान बिहार की सियासत में बहुत बड़े बदलाव के संकेत मिल रहे हैं। जैसे संकेत हैं, इससे आने वाले समय में एनडीए का हिस्सा नीतीश कुमार बन जाएं तो इसको लेकर कोई बड़ी बात नहीं होगी।
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