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’10 से 14 साल के बच्चों को मार कर पुलिस ने बताया था कुख्यात नक्सली’

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एक्सपर्ट मीडिया न्यूज । घटना के बाद डीजीपी डीके पांडेय और तत्कालीन एडीजी अभियान एसएन प्रधान ने मारे गए सभी को कुख्यात नक्सली बताया था। कथित मुठभेड़ में मरने वाले 12 में से 5 नाबालिग थे, यह घटना के वक्त पुलिस को पता चल गया था।”

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आठ जून 2015 की रात बकोरिया में हुए कथित मुठभेड़ में पुलिस ने नक्सली अनुराग और 11 निर्दोष लोगों को मार दिया था। मारे गए लोगों में पांच नबालिग थे।

उनमें से दो की उम्र मात्र 12 साल व एक 14 साल थी। चरकू तिर्की और महेंद्र सिंह की उम्र सिर्फ 12 साल थी।

महेंद्र सिंह के आधार कार्ड में जन्म का वर्ष 2003 लिखा हुई है, जबकि प्रकाश तिर्की की उम्र 01.01.2001 लिखा हुआ है।

इस तरह दोनों की उम्र क्रमशः 12 व 14 साल थी। मारे गए पांच नाबालिगों में से एक उमेश सिंह की उम्र सिर्फ 10 साल बतायी जा रही है।

सूत्रों के मुताबिक पुलिस को नाबालिगों के गांव-घर की जानकारी भी मिल गयी थी। लेकिन पुलिस ने उनके शवों की पहचान नहीं करायी।

क्योंकि पुलिस नहीं चाहती थी कि घटना के तुरंत बाद यह बात सामने आए कि जिन 12 लोगों को कथित मुठभेड़ में मारा गया, उनमें पांच नाबालिग थे।

मासूम बच्चों को पुलिस ने कथित मुठभेड़ में मार गिराया। अखबारों में तसवीरें छपी। बच्चों की मां-पिता, भाई-बहनों ने तसवीरें देखा। अपने कलेजे के टुकड़े को पहचान भी लिया। पर चुप रहे।

उस मां-पिता की तकलीफ दर्द का अनुभव न तो झारखंड के मुख्यमंत्री रघुवर दास कर सकते हैं, न डीजीपी डीके पांडेय, घटना का सच जानने के बाद चुप रहने वाले सरकार के बड़े अफसर और न ही कोर्ट के न्यायाधीश।

अगर दर्द को समझ पाते तो मासूमों के शव के सामने लाखों रुपये का पुरस्कार नहीं बांटते। उस दर्द का हम सिर्फ कल्पना ही कर सकते हैं।

पुलिस और जेजेएमपी का डर ऐसा कि अभागे मां-बाप अपने कलेजे के टुकड़े के शव से लिपट कर रो भी नहीं पाए। पुलिस ने शवों के साथ क्या किया, ढ़ाई साल बाद भी उन्हें इसकी जानकारी नहीं।

उमेश की मां पचिया देवी बताती हैं। उमेश गारू मध्य विद्यालय में पढ़ता था। गाय चराने जंगल गया था, लौट कर नहीं आया। दूसरे दिन कलेजे के टुकड़े के मारे जाने की खबर मिली, पर डर से शव लेने नहीं गए। कलेजे के टुकड़े को अंतिम बार देख भी नहीं सकें। शव ले लिपट कर रो भी नहीं सके। (साभारः न्यूज विंग)

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