-: जयप्रकाश नवीन :- कांग्रेस में लंबे समय तक अध्यक्ष पद पर रही श्रीमती सोनिया गांधी के बयान ‘ अब मैं रिटायर हो जाऊंगी’ भारतीय राजनीतिक परिदृश्य में इसके कई मायने हो सकते है। सोनिया गांधी उम्र के जिस पड़ाव पर पहुँच चुकी हैं, वहाँ से राजनीतिक सक्रियता की की इजाजत उम्र नहीं दे रही थी।
पिछले 19 सालों से भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की अध्यक्ष रहना कोई आसान काम नहीं था। सोनिया गांधी राजनीति में उस समय आई जब कांग्रेस संक्रमण काल से गुजर रही थी। राजनीतिक पंडित कांग्रेस को डूबता जहाज बताने में लगें थे। वैसे भी सोनिया गांधी राजनीति में आना नहीं चाहती थी। पहले अपनी सास इंदिरा गांधी और फिर पति राजीव गांधी की नृशंस हत्या से टूट चुकी थी।
उन्होंने अपने नेतृत्व कौशल से पार्टी में एक नई जान ही नहीं फूंकी। बल्कि 2004 और 2009 में कांग्रेस को सत्ता भी दिलाई।
सबसे बड़ी बात कांग्रेस ने 2004 में जब तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में पूरे देश में ‘शाइनिग इंडिया’ की धूम मची हुई थी। बावजूद एनडीए की सरकार सोनिया गांधी के सामने नहीं टिक पाई। जनता ने वाजपेयी और उनकी शाइनिग इंडिया की बुरी गत कर दी थी।
2004 में जब सोनिया गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस ने शानदार वापसी की तब वह सता के बिल्कुल नजदीक थीं। पीएम की कुर्सी उनके हाथ में थीं। यहाँ तक हजारों समर्थक दस जनपथ पर सोनिया गांधी को पीएम की कुर्सी पर देखने के लिए खड़ा थी।
समर्थक सोनिया गांधी को पीएम बनता नहीं देख अपने कनपटी पर रिवाल्वर तक रख लिए थे। लेकिन अपने समर्थकों के लाख प्रयास के बाद भी सोनिया गांधी मनमोहन सिंह को पीएम पद के लिए नाम की घोषणा कर देती हैं। पीएम पद की कुर्सी को ठुकरा कर देश की राजनीति में एक मिसाल बन जाती हैं।
सोनिया गांधी ने जब पहली बार अध्यक्ष पद ठुकराया तो एक संदेश देने की कोशिश की थी वो गुटों से उपर हैं, सता, ताकत की लालसा उनमें नहीं है। वो इन सब से दूर सुकून की जिंदगी जीना चाहती हैं। राजीव गांधी फाउंडेशन का काम करना चाहती थी। अपने परिवार और धरोहर को बचाना चाहती थी।
यहाँ तक कि नरसिंह राव के शासन काल में भी उन्होंने कभी राजनीतिक हस्तक्षेप नही की। वह तब तक अपने दो बच्चों प्रियंका और राहुल के साथ दस जनपथ तक ही कैद थी।कांग्रेस में आने के लिए सोनिया ने कोई जल्दबाजी नही की।
हालांकि कांग्रेस की परंपरा रही है बिखरने की आपस में लड़ने और फूट जाने की। तब कांग्रेस को तत्काल सहारा देने के लिए सोनिया आगे आती हैं लेकिन सिर्फ़ चुनाव प्रचार तक ही।यानी राजनीति में आकर भी राजनीति से उपर। यानी वे जड़ में और चेतन में भी रहना चाहती थी।
जब कांग्रेस असहाय हो गई ।ऐसे में सोनिया गांधी को एक अवतार की तरह आगमन होता है। कांग्रेस की बागडोर वह थाम चुकी थी। लेकिन रह-रहकर उनके मन में यह विचार आ जाता था कि विदेशी मूल का जिन्न कभी भी बाहर आ सकता है।
ऐसा हुआ भी। जब सोनिया गांधी कांग्रेस की अध्यक्ष बनीं। कांग्रेस के तत्कालीन दिग्गज शरद पवार, पीए संगमा और तारिक अनवर ने ही विदेशी मूल का मुद्दा उठा उस जिन्न को बाहर निकाल दिया जो बोतल में बंद था । तीनों ने पार्टी छोड़ दी। पार्टी पर सोनिया गांधी का पूर्ण कब्जा हो चुका था।
लेकिन जिस विदेशी मूल को लेकर कांग्रेस छोड़कर जाने वाले और महाराष्ट्र को अपने पॉकेट में रखने वाले शरद पवार की औकात शीघ्र पता चल गया। जब उन्हें विधानसभा चुनाव में तीसरे नम्बर पर रहना पड़ा । विपक्ष विदेशी मूल का मुद्दा उठाकर सोनिया को लगातार घेर रही थी।
तत्कालीन पीएम अटल विहारी बाजपेयी कहने लगे थे संसद में कि मुझे पैतालीस साल का अनुभव है।ये चंद सालों वाली कौन होती है मुझे पाठ पढ़ाने वाली। यहाँ तक कि सभी विपक्षी राजनीतिक दल सोनिया को विदेशी मूल के नाम पर एक जुट होकर विरोध कर रहे थे।
लेकिन सोनिया गांधी ने अटल विहारी बाजपेयी के घमंड को चकनाचूर ही नहीं किया उनकी ‘शाइनिग इंडिया ‘ को धूल चटा दी। जिस वाजपेयी जी केन्द्र में सत्ता पाने में 45 साल से ज्यादा का समय लग गया था। वो भी 22 राजनीतिक दलों के सहारे। लेकिन सोनिया ने चंद वर्ष में वह सारी दूरी पार कर ली थी। विदेशी मूल का मुद्दा पीछे छूट चुका था।
अपने 19 साल के राजनीतिक कैरियर में सोनिया गांधी सबसे ज्यादा समय तक कांग्रेस की अध्यक्ष रहने का रिकार्ड भी बना चुकी हैं। लेकिन अब उनका राजनीतिक संयास एक नया आयाम गढ़ेगा। कांग्रेस की राजनीति कमान फिर से गांधी परिवार के बीच ही रहेगा।उनकी कमी राजनीतिक तथा संसद में खलेगी।
कांग्रेस के नए अध्यक्ष के रूप में राहुल गांधी की ताजपोशी भी ऐसे समय हुई है। जब कांग्रेस पिछले तीन साल से कई विधानसभा चुनाव लगातार हार रही है। एक गंभीर नेतृत्व संकट से गुजर रही है।
भारतीय राजनीति से एक करिश्माई नेतृत्व का संयास लेना एक राजनीतिक शून्यता पैदा तो करती ही है। उनकी कमी भारतीय राजनीति को जरूर अखरेगी।