“जिस तरह से उन्होंने बीजेपी को कंधे पर चढ़ाकर इस बार फिर से उन्हें सरकार दी है, भले ही वो राज्य के मुख्यमंत्री हों, कहीं वो भविष्य में गोवा की उस महाराष्ट्रवादी गोमांतक पार्टी की तरह न बन जाएं जिससे कि बीजेपी ही वहां सबकुछ हो जाए। गोवा की तरह कहीं नीतीश बिहार में न पिछड़ जाएं। वो बैकसीट पर आ जाएं और आगे की सीट पर बीजेपी चली जाए। बिहार में जेडीयू के महाराष्ट्रवादी गोमांतक पार्टी बनने का ख़तरा दिखाई देता है। ”
यह तो बिलकुल साफ-साफ दिखता है, क्योंकि नीतीश कुमार एक ज़माने में नरेंद्र मोदी से इस कदर चिढ़ते थे कि उस तरह से चिढ़ने वाले लोग तो कांग्रेस में भी नहीं थे। कांग्रेस में तो लोग मोदी के विरोधी थे, उनके आलोचक थे।
ऐसा नहीं था कि दिल्ली में भारत सरकार की किसी मीटिंग में बतौर गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी आए हुए हों तो कांग्रेस का कोई मुख्यमंत्री उनसे हाथ से नहीं मिलाए। लेकिन नीतीश कुमार जब बिहार के मुख्यमंत्री थे और नरेंद्र मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री थे तो पंजाब की एक रैली में नीतीश उनसे हाथ मिलाने में इस कदर शरमा रहे थे कि पूछिए मत।
दूसरी तरफ़ पटना में भारतीय जनता पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की मीटिंग के दौरान उन्होंने बीजेपी नेताओं के लिए जो डिनर रखा था, उसे भी नरेंद्र मोदी की मौजूदगी के कारण रद्द कर दिया था।
तीसरी बात जब गुजरात की नरेंद्र मोदी सरकार ने बिहार के बाढ़ पीड़ितों के लिए आपदा सहायता भेजी तो उन्होंने उसको भी लौटा दिया था।
उपरोक्त तीन उदाहरणों से ये समझा जा सकता है कि मोदी के प्रति नीतीश की चिढ़ कुछ ज़्यादा थी और इस वक्त भी उनका जो आत्मसमर्पण है, वह भी कुछ ज़्यादा ही है।
वे दो एक्सट्रीम पर गए हैं, एक तरफ़ तो वे इस कदर विरोधी थे और आज वे इतने समर्पित हैं कि उनका मानना है कि नरेंद्र मोदी अपराजेय हैं।
अचानक ऐसा क्या बदल गया?
भारत की मीडिया ने अभी तक इस सवाल का जवाब नहीं खोजा है। किसी राजनेता ने भी इस सवाल का जवाब अभी तक ठीक से नहीं दिया है। अनुमान और अटकलें ही केवल लगाई जा रही हैं।
मीडिया में बहुत सारी अपुष्ट ख़बरें आई हैं, लेकिन सच पूछिए तो ये भारतीय मीडिया की क्षमता की भी ये एक चुनौती है।
अभी तक ये कोई ठीक से समझ नहीं पाया और इसको विस्तार से साक्ष्यों के साथ नहीं पेश कर सका कि आखिर अचानक पिछले कुछ महीने से नीतीश कुमार का जो हृदय परिवर्तन हुआ है, उसकी असल वजह क्या है?
सिर्फ़ एफआईआर तो नहीं हो सकती कि उनके उपमुख्यमंत्री पर एक एफआईआर था और वे इससे दुखी थे। या जैसा उनका कहना था कि दखलंदाज़ी होती थी।
लेकिन जहां तक जानकारी है कि लालू प्रसाद की अब इतनी राजनीतिक हैसियत नहीं रह गई थी कि वो बहुत ज़्यादा हस्तक्षेप करें। सारी प्रशासनिक नियुक्तियां नीतीश कुमार की मर्ज़ी से ही होती थीं।
नीतीश का राजनीतिक भविष्य
स्पष्ट है कि नीतीश विपक्ष की तरफ़ से प्रधानमंत्री पद का चेहरा नहीं बन सकते थे क्योंकि किसी भी गठबंधन में सबसे बड़ी पार्टी इस पर दावेदारी करेगी। नीतीश कुमार की पार्टी बिहार में बहुत छोटी-सी पार्टी है।
जिस तरह से नीतीश कुमार का हृदय परिवर्तन हुआ है और उन्होंने गठबंधन के साथी बदले हैं, उससे तो ये दिखता है कि उनका भविष्य अब एनडीए के साथ ही है।
भविष्य में वे कभी एनडीए से अलग भी होंगे तो बीजेपी के ख़िलाफ़ बनने वाले किसी विपक्षी गठबंधन में उन्हें कोई बहुत ज़्यादा तवज्जो नहीं मिलने वाली है।
पार्टी की अंदरूनी खटपट
अली अनवर और केरल से वीरेंद्र कुमार के साथ ये तीन सांसद इनके विरोध में हैं। शरद यादव का महत्व इसलिए ज़्यादा है कि वे पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष रह चुके हैं।
राज्यसभा में शरद यादव का अभी लंबा कार्यकाल बाकी है, इसलिए वो शायद पार्टी में बने रहेंगे, लेकिन उन्हें एक बाग़ी के तौर पर ही देखा जाएगा।