” अगर भाजपा और निर्दलीय के समर्थन से नीतीश सरकार बना भी लेते है तो भाजपा का गेम प्लान कारगर हो जाएगा। कुछ दिन बाद ही भाजपा नीतीश से समर्थन वापस लेकर राज्य में मध्यावधि चुनाव व उसके पूर्व राष्ट्रपति शासन की मांग कर सकती है।”
बेचैनी और सिलवटें इधर भी है और उधर भी…..
पटना (विनायक विजेता)। उप मुख्यमंत्री और राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद के बेटे तेजस्वी यादव के मामले को लेकर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की हालत अब सांप-छुछुन्दर वाली वाली है। पहले जदयू ने तेजस्वी मामले को लेकर गेद राजद और लालू यादव के पाले मे डाल दी थी।
अब राजनीति में काफी परिपक्व हो चुके नीतीश को भली भांति यह एहसास होगा कि वह अगर गठबंधन तोड़कर भाजपा से समर्थन लेते हैं तो यह उनके भविष्य के लिए सबसे बड़ा आत्मघाती कदम होगा। भाजपा अब तक बिहार में भोज के बहाने नरेन्द्र मोदी का अपमान और बिहार में एनडीए गठबंधन तोड़ने के वाक्ये और अपमान को भूला नहीं पायी है।
पूरा बिहार ही नहीं संपूर्ण देश जानता है कि नीतीश वक्त के यार हैं। वर्ष 2000 में जब वो सात दिनों के लिए मुख्यमंत्री बने थे तो 16 बाहुबली और इनमें जेल में बंद कई निर्दलीय विधायकों द्वारा बनाए गए ‘निर्दलीय विधायक मोर्चा’ से तब उन्होंने समर्थन लेने में कोई हिचकिचाहट नहीं दिखाई थी।
बाद के दिनों में मुख्यमंत्री बनने पर इन्होंने वैसे सारे विधायकों और अंधसमर्थकों को दूध में गिरी मख्खी की तरह निकाल फेंका। नीतीश कुमार लालू राज को जंगल राज की उपाधि देकर सवर्णो के मिले एक मुश्त वोट पर सत्ता पर काबिज हुए। जिसमें तब उनके गठबंधन में शामिल भाजपा का भी महत्वपूर्ण योगदान था पर बाद के दिनों में नीतीश ने अल्पसंख्यक वोट पर अधिकार के लिए भोज रद्द कर भाजपा और नरेन्द्र मोदी को अपमानित किया और भाजपा से गठबंधन तोड़कर राजद और कांग्रेस के बाहरी समर्थन से सरकार बनायी।
दिखावे के लिए 2014 में हुए लोकसभा चुनाव में अपमानित हार के लिए मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देकर जीतनराम मांझाी को मुख्यमंत्री बनाया पर कुर्सी की चाह उन्हें अपने फैसले से ज्यादा दिन विमुख नहीं रख सकी और फिर मांझी को हटाकर खुद मुख्यमंत्री बन गए।
पर अब तेजस्वी के मामले को लेकर नीतीश के लिए उहापोह की स्थिति है। राजनीति के परिपक्व खिलाड़ी लालू प्रसाद ने तेजस्वी के इस्तीफे न देने की बात कहकर नीतीश के लिए मुश्किलें और उहापोह की स्थिति खड़ी कर दी हैं। अब नीतीश के सामने मात्र चार विकल्प बचे हैं।
पहला यह कि वह गठबंधन तोड़ मंत्रिमंडल भंग कर फिर से अपना बहुमत सबित करें। अगर ऐसी स्थिति आती है और अगर भाजपा नीतीश को बाहर से समर्थन देती भी है तो उस स्थिति में कांग्रेस लालू के साथ रहेगी। पर तब भी बहुमत का आंकड़ा दोनों दलों से कुछ दूर ही रहेगा।
अगर भाजपा और निर्दलीय के समर्थन से नीतीश सरकार बना भी लेते है तो भाजपा का गेम प्लान कारगर हो जाएगा। कुछ दिन बाद ही भाजपा नीतीश से समर्थन वापस लेकर राज्य में मध्यावधि चुनाव व उसके पूर्व राष्ट्रपति शासन की मांग कर सकती है।
नीतीश यह भलि-भांंति जानते हैं कि लालू के वोट बैंक या उनके आधार मत पर कोई सेंध नहीं मार सकता इसलिए नीतीश अभी कोई्र ऐसा कदम नहीं उठाएंगे जिससे उनकी कोई घोर राजनीतिक क्षति हो। मुख्यमंत्री शयद यह भी जानते हैं कि वर्तमान हालात में अगर राजय में मध्यावधि चुनाव होगा तो भाजपा भले हा बहुमत से दूर रहे पर वह सबसे बड़े दल के रुप में उभर सकती है जबकि राजद दूसरे नंबर पर।
और अगर राजद और कांग्रेस गठबंधन के साथ चुनाव हुआ तो तो कई क्षेत्रीय पार्टियां भी इस गठबंधन में शामिल होकर सबसे बड़े दल या बहुमत का आंकड़ा पार कर सरकार बना सकती है। प्रमाण नीतीश पिछले विधानसभा चुनाव में देख चुके है। जब लालू ने राजद कोटे के कुल 101 सीटो में से 80 सीटो पर कब्जा कर सबसे बड़ी पार्टी बनने का गौरव प्राप्त किया।
संभावना यह है कि लालू यादव के बयान के बाद अब नीतीश गेंद जांच ऐजेंसिंयो के पाले डालकर कर वर्ष1997 की तरह उस पल का इंतजार करने को बाध्य होंगे,जब चारा घोटाले में लालू यादव ने खुद इस्तीफा दिया था और सरेंडर कर जेल गए थे। हालांकि चिंता की लकीरें और ललाट पर सिलवटें नीतीश और लालू दोनों के माथे पर दिख रही है।
बहरहाल अभी मीडिया को महागठबंध की इस महानौटंकी का मजा लेने के सिवा कुछ ज्यादा देखने और सुनने के सिवा कुछ विशेष मिलने वाला दिखाई नहीं देता।