“सदियों से चली आ रही मनुवाद की जमीं पर आज की जातीवादी राजनीति ने समाज में एक ऐसे जहरीले कीड़े को बल दिया है, जिसके शिकार इन्सान न मर सकता है और न जिंदा ही रह सकता है। सबाल सिर्फ मानवता की नहीं है, सीधा सबाल शासन-प्रशासन की भी है। “
-: मुकेश भारतीय :-
बिहार और झारखंड में एक साथ दो घटनाएं घटी है। ये दोनों घटनाएं मानवता को शर्मसार करती है। ऐसी विषजात समस्याओं का मूल समाधान क्या है? इसका सीधा जबाव ढूंढा जाना चाहिये।
सिर्फ इतना कि वह नाई जाति का है और गांव आज की राजनीति का सिरमौर दबंग यादव-कुर्मी बहुल है। गांव-समाज का हर व्यक्ति जानता है कि नाई जाति की सामाजिक भूमिका क्या है? अन्य जातियों की सेवादारी करना। मानव समाज के हर संस्कारों में नाई समाज का अहम योगदान है। मरनी-हरनी, शादी-विवाह, न्योता-प्योता आदि सब में उसकी भागीदारी होती है।
लेकिन, आज की परिस्थियां विषम हो चली है। समाज और प्रशासन का एक बड़ा तबका भी उसी मानसिकता का शिकार दिखता है, जैसा कि वे अलग-अलग कुत्सित संस्कारों में पले-बढ़े हैं।
वेशक आज कोई राजा-महाराजाओं या जमींदारों का युग नहीं है। आज हमारा समाज एक स्वस्थ लोकतांत्रित संविधान द्वारा संचालित है। यह व्यवस्था हर एक नागरिक को जीने का समान अधिकार देता है और अगर कोई किसी के अधिकार को छीनने-कुचलने का कुत्सित प्रयास करता है, शासन-प्रशासन का मूल दायित्व अपनी निष्पक्ष भूमिका का निर्वाह करना है। लेकिन कहीं ऐसा देखने को मिल नहीं रहा है।
आज महेश ठाकुर और उसका पूरा परिवार दाने-दाने को मोहताज है। प्रशासन की ओर से कोई सहायता राशि नहीं दी गई है। दबंगों ने उसकी दुकान हड़प ली है, इस दिशा में कोई ठोस भी प्रयास नहीं किया गया है।
महेश ठाकुर की बेटी की शादी तय हुई थी, घटना के बाद वह शादी भी टूट गई है। उसका पूरा परिवार इस भय और आत्मग्लानी के साये में जीने को विवश है कि शैतानी मानसिकता के बीच उसकी इंसानियत कब तक जिंदा रहेगी।
वह जानता है कि पुलिस-प्रशासन के लोग सिर्फ कोरम पूरा करती है। भविष्य में कभी कोई ऐसा नहीं करेगा, उसकी गारंटी नहीं लेता। घटना के बाद महेश ठाकुर व उसके परिवार को पूरे गांव में अजीब सी नजर से देख रहे है।
बकौल महेश ठाकुर, घटना ने उसे पूरी तरह झकझोर कर रख दिया है। ग्लानी से वह कहीं आ-जा नहीं पा रहा है। घर के चूल्हे भी ठंडे हैं। वह जहां भी जाता है, लोग उससे घटना के बारे में पूछने लगते है, जिसका उसके पास कोई जबाब नहीं होता। उसे सिर्फ शर्मिंदगी महसूस होती है। उसके जीवनयापन का एकमात्र सहारा गांव स्थित सैलून दुकान थी, जिसे दबंगों ने हड़प लिया। फिलहाल उसके सामने रोजी-रोटी की अहम समस्या है।
सबसे पीड़ादायक बात है कि जात की जगह जमात की बात करने वाले लोग कहां हैं। विधायक-मंत्री, सांसद या मुख्यमंत्री हीं क्यों न हों, उनकी समाज के प्रति क्या कोई जबावदेही नहीं है? शौच से मुक्ति से चेहरा चमकाने वाले ये लोग अपनी सोच से मुक्ति कब पायेगें।
महेश ठाकुर के साथ जो अपराध हुआ है, वह सिर्फ व्यक्ति विशेष के प्रति अपराध से जुड़ा मामला नहीं है। मामला है समाज और मानवता की है। लेकिन उन्हें यह सब दिखाई नहीं देता। क्योंकि ये वोट की राजनीति बहुत कमीनी चीज है। उन्हें सिर्फ अधिकाधिक वोट से मतलब है। चाहे वे बहुतायात समाज के दरिंदे ही क्यों न हों। ऐसे लोग पुलिस-प्रशासन यानि व्यवस्था के हाथ-पांव भी बांध रखते हैं ताकि उसके जनाधार में कोई खलल न हो।
आखिर क्या वजह है कि विधायक-मंत्री, सांसद या फिर मुख्यमंत्री ने अब तक अजनौरा गांव की अमानवीय घटना की कोई सुध न ली। कर्पूरी ठाकुर, लोहिया, जयप्रकाश की बात करने वालों से समाज को सीधा मैसेज देने का दायित्व तो बनता ही है। लेकिन वे ऐसा क्यों करेगें? उन्हें महापुरुषों के विचारों की सिर्फ दिखावटी राजनीति करनी है। समाज के बीच उसे स्थापित थोड़े करनी है!
उधर, झारखंड को देखिये। भय, भूख और भ्रष्टाचार को मुद्दा बना देश में 2 से 282 सीटों तक भाजपा राज को देखिये। स्थितियां ठीक विपरित है। यहां सिर्फ भय है, भ्रष्टाचार है और भूख है।
झारखंड के सिमडेगा में भूख से एक बच्ची की मौत हो गई। आधार और राशन कार्ड की हेराफेरी में उससे शासकीय भोजन का अधिकार से बंचित कर दिया गया। मामला जब तूल पकड़ा तो उसके परिवार को दबंगों ने शासन-प्रशासन के संरक्षण में गांव से भगा दिया। केन्द्रीय जांच टीम भी रांची से ही गोल-गोल घुमाकर वैरंग वापस हो गया। शीर्ष स्तर से सफाई दी जा रही है कि बच्ची की मौत भूख से नहीं बीमारी से हुई है।
इसी बीच एक अन्य अमानवीय खबर धनबाद के झरिया से आई है कि उस रिक्शा चालक की भूख से मौत हो गई, जिसके घर में अनाज का एक दाना नहीं था। सरकारी राशन दुकान से उसे कोई सामग्री नहीं मिल रही थी।