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    Saturday, July 27, 2024
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      जब नीतीश की तंगहाली देख कर्पूरी ठाकुर ने दिया था नौकरी का ऑफर !

      पटना (एक्सपर्ट मीडिया न्यूज़ नेटवर्क ब्यूरो)। राजनीति भी जीवन का एक हिस्सा है। कभी-कभी कर्म मदद करता है। कभी घटनाएं। इंसान शिखर से सिफर और सिफर से शिखर भी हो सकता है। यह एक महत्वपूर्ण है कि आप शिखर पर रहते इंसानियत के कितने निकट रहते हैं। नरमी और नम्रता कालजयी होती है।

      आज ऐसे ही एक शख्स की जयंती है। जिन्हें ‘गरीबों का ठाकुर’ भी कहा जाता है। जिन्हें आम आदमी का आईना भी कहा जाता है। जिन्हें जननायक भी कहा जाता है। ऐसे ही जननायक कर्पूरी ठाकुर की जयंती है।

      मौजूदा राजनीति में एक नेता की शोहरत और बलन्दी उसकी चमक दमक ,धन दौलत ,रहन सहन और विदेशी डिग्री से होती है ,उस दौर में एक लीडर की इज्जत उसकी सादगी ,ईमानदारी और सिद्धांतवादिता से होती थी। कर्पूरी ठाकुर की सादगी, उनके हृदय की विशालता और पैमानों की इस उच्चाई के अनेक किस्से है।

      उन्होंने मुख्यमंत्री की कुर्सी को भाई भतीजावाद से परे रखा। यहां तक कि जबतक जीवित रहें अपने बेटे को भी राजनीति में नहीं उतारा।जब उनके बहनोई ने नौकरी की मांग की थी तब उन्होंने उन्हें उस्तूरा थमा दिया।

      जब विधायकों एवं पूर्व विधायकों के निजी आशियाने के लिए सरकार ने सस्ती जमीन देने का फैसला किया तो खुद कर्पूरी ठाकुर ने अपने दल के नेताओं से कहा कि आपलोग अपने स्थायी आवास के लिए जमीन ले लीजिए। नेताओं ने कर्पूरी ठाकुर से भी अपने लिए जमीन लेने की बात कहीं तो उन्होंने साफ मना कर दिया।

      इस पर एक मुंहबोले विधायक ने कहा ले लीजिए जमीन, क्योंकि जब आप नहीं रहेंगे तो आपका बाल बच्चा कहां रहेगा। उन्होंने छूटते ही कहा कुछ नहीं करेगा तो गांव में रहेगा। राजनीति सेवा के लिए है,मेवा के लिए नहीं।यह सिद्धांत था उनका।

      कर्पूरी ठाकुर के चेले नीतीश कुमार भी उनके ही सिद्धांत पर चलने वाले नेता बनकर उभरे। सीएम नीतीश कुमार ने 2019 लोकसभा चुनाव में राजनीति सेवा के लिए है,मेवा खाने की चीज नहीं है,इस सूत्र वाक्य को उन्होंने सबसे बड़ा मुद्दा बनाया।कभी इसी नीतीश कुमार की आर्थिक स्थिति को देखते हुए कर्पूरी ठाकुर ने नौकरी का आफर दिया था। लेकिन नीतीश कुमार ने मना कर  दिया।

      पिछले 16 साल से बिहार के सीएम नीतीश कुमार ने बिहार कॉलेज ऑफ इंजीनियंरिग (अब एनआइटी, पटना) से इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग में डिग्री हासिल की थी। उनके साथी सरकारी सेवा में चले गये, लेकिन वे 1974 के छात्र आंदोलन में सक्रिय रहे। कांग्रेस की तानाशाही के खिलाफ लड़ाई में शामिल हो गये। चमकते करियर को तिलांजलि दे दी।

      वे चाहते तो गजटेड ऑफिसर के रूप में नौकरी शुरू कर सकते थे। लेकिन ऐसा नहीं किया। 1977 में राजनीति बदलाव के लिए बहुचर्चित चुनाव हुआ। नीतीश कुमार को बिहार विधानसभा चुनाव में अपने गृहक्षेत्र हरनौत से जनता पार्टी का टिकट मिला। लेकिन वे हार गये। 1978 में नीतीश के पिता रामलखन प्रसाद सिंह का निधन हो गया।

      वे बख्तियारपुर के मशहूर वैद्य थे। उनका आयुर्वेदिक दवाखाना बहुत अच्छा चलता था। घर में रुपए-पैसों की कमी नहीं थी। लेकिन पिता के निधन से नीतीश कुमार की आर्थिक स्थिति कमजोर हो गयी। नीतीश उस समय युवा लोकदल के अहम सदस्य थे।

      जब नीतीश को पिता के निधन की सूचना मिली उस समय वे युवा लोकदल के एक कार्यक्रम के लिए वैशाली में थे। वे बख्तियारपुर लौटे। अब बख्तियारपुर का पैतृक घर ही उनका ठिकाना बन गया। पटना में रहने के लिए अपनी कोई जगह नहीं थी। वे सुबह घर से खाना खा कर ट्रेन से पटना जाते। विधायक क्लब में लोकदल के नेताओं से मिलते।

      फिर देर शाम पटना से घर लौट आते। तब उनकी जेब में इतने पैसे नहीं होते थे कि वे दोपहर में कुछ खा-पी सकें। सुबह में खाते तो फिर रात में घर पर ही खाना मिलता। विधायक क्लब के कैंपस में छोटी सी एक चाय दुकान थी। रोज उठने बैठने से दुकानदार से जान पहचान हो गयी।

      वह कभी-कभार नीतीश कुमार को उधार चाय -बिस्कुट दे देता था। उनकी आमदनी का एक मात्र जरिया कुछ खेती-बाड़ी थी। घर में बड़े भाई सतीश कुमार के परिवार और मां की देखभाल की जिम्मेवारी थी। खेती से अनाज और कुछ पैसा मिलता तो उससे जरूरतें पूरी नहीं होतीं। नीतीश कुमार गरीबी से जूझते रहे, लेकिन किसी से मदद नहीं मांगी।

      कर्पूरी ठाकुर का नीतीश पर विशेष स्नेह था। वे नीतीश की प्रतिभा और उनकी खुद्दारी से बहुत प्रभावित थे। नीतीश पटना जाते तो कर्पूरी ठाकुर से भी मिलते। उस समय कर्पूरी ठाकुर लोकदल के राष्ट्रीय अध्यक्ष थे। नीतीश की तंगहाली देख कर एक दिन कर्पूरी ठाकुर ने उनसे कहा कि अगर वे कहें तो उनको बिहार बिजली बोर्ड में इंजीनियर की नौकरी दिला सकते हैं।

      नीतीश ने इस प्रस्ताव को विनम्रता से ठुकरा दिया। उन्होंने कहा, मैं राजनीति में कुछ करने के लिए आया हूं। नौकरी करनी होती को कब का कर लिया होता। आप ने इतना स्नेह दिखाया, इसके लिए धन्यवाद।

      नीतीश कुमार ने नौकरी तो नहीं की लेकिन उनको इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ा। वे बहुत दिनों तक तंगी में रहे। उनके बहनोई देवेन्द्र सिंह रेलवे में मुलाजिम थे। नीतीश के एक इंजीनियर दोस्त नरेन्द्र सिंह ठेकेदार बन गये थे। बहुत जरूरी होने पर नीतीश इन्हीं दो लोगों से मदद लिया करते थे। 1980 का चुनाव हार जाने के बाद उनकी आर्थिक परेशानी और बढ़ गयी।

      कहा जाता है कि नीतीश कुमार इस हार से काफी टूट गये थें। उन्होंने राजनीति को अलविदा कह देने का मन‌ बना लिया था। इसलिए उन्होंने अपनी इंजीनियरिंग की डिग्री में आग लगा दी और अपने एक मित्र से ठेकेदारी का लाइसेंस बनबा लिया।

      लेकिन तब उनके साथी और बाद में बाढ़ लोकसभा क्षेत्र से परंपरागत प्रतिद्वंद्वी विजय कृष्ण ने उन्हें ठेकेदारी में जाने से रोका। विजय कृष्ण ने उन्हें हार नहीं मानने की सलाह दी।उनके मनाने पर नीतीश कुमार फिर से राजनीति में आएं।

      1985 के विधानसभा चुनाव में लोकदल ने उन्हें फिर हरनौत से टिकट दिया। नीतीश के पास चुनाव लड़ने के लिए पैसा नहीं था। तब पार्टी की तरफ से उन्हें एक लाख रुपये और एक पुरानी जीप मिली। इस मुश्किल वक्त में पत्नी मंजू सिन्हा ने भी मदद की। वे सरकारी स्कूल में शिक्षक थीं। उन्होंने भी 20 हजार रुपये दिये।

      इन सीमित संसाधनों के साथ नीतीश चुनाव मैदान में उतरे। आखिरकार तीसरी बार किस्मत मेहरबान हुई। नीतीश 50 हजार से अधिक वोटों से चुनाव जीत गये। बहुत संघर्ष के बाद नीतीश को राजनीति में कामयाबी मिली। फिर तबसे पीछे मुड़कर नहीं देखा।

      अगर वे आज कर्पूरी ठाकुर की सलाह मान लेते तो आज राजनीति में इस मुकाम पर नहीं होते।भले आज कर्पूरी ठाकुर जीवित नहीं है, लेकिन उनके दो चेलों लालू प्रसाद यादव और बाद में नीतीश कुमार मुख्यमंत्री बने।

      नीतीश कुमार उनके द्वारा लागू किए शराबबंदी कानून को बिहार में पिछले छह साल से लागू किए हुए हैं। जब कर्पूरी ठाकुर शिक्षा मंत्री थे। तब उन्होंने बिहार बोर्ड में अंग्रेजी बिषय में पास होने की अनिवार्यता समाप्त कर दी थी। तब बिहार में छात्रों से कहा जाता था कि कर्पूरी डिवीजन से पास हो।

      सीएम नीतीश कुमार के शासन में भी बिहार बोर्ड में अंग्रेजी की अनिवार्यता समाप्त कर दी गई है। कभी कर्पूरी ठाकुर का बिहार आज नीतीश कुमार का बिहार हो चुका है। कर्पूरी ठाकुर की जयंती पर अब हर कोई उनकी सियासत और विरासत के लिए तो लड़ रहा है। मगर उनकी सादगी और ईमानदारी को कोई गले नहीं लगाना चाहता।

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