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एशिया में बौद्ध धर्म के विकास में नालंदा के पाण्डुलिपियों का अविस्मरणीय योगदान

नालंदा ( राम विलास )। प्राचीन नालंदा विश्वविद्यालय तत्कालीन युग का एक अद्वितीय शिक्षा केंद्र था। इस विश्वविद्यालय में बौद्ध ग्रंथों की अनेक पांडुलिपियां, शास्त्र और साहित्यिक की रचना की गई । इस शिक्षा केंद्र में प्रवेश हेतु चार द्वार पंडितों के द्वारा योग्यता परिचय लिया जाता था। योग्यता परीक्षा में सफल व्यक्ति को ही प्रवेश की अनुमति होती थी।

नव नालंदा महाविहार डीम्ड विश्वविद्यालय, नालंदा में आयोजित ‘मैन्युस्क्रिप्ट्स ऑफ़ बिहार इन रिच द एशियन बुद्धिज्म’ विषयक तीन दिवसीय राष्ट्रीय सेमिनार के समापन के मौके पर प्रोफेसर रत्ना वसु ने सोमवार को यह कहा।

rajgir news1उन्होंने कहा कि उन द्वार पंडितों में आचार्य शीलभद्र और अतिश दीपंकर तिब्बत के तत्कालीन सम्राट के आमंत्रण पर 11वीं शताब्दी में तिब्बत गये थे। इन आचार्यो के द्वारा बहुत सारे ग्रंथों को नालंदा से तिब्बत ले जाया गया था। इन्हीं बौद्ध ग्रंथों से तिब्बत में बौद्ध धर्म का प्रचार व प्रसार हुआ। ह्वेनसांग जैसे चीनी विद्यार्थी नालंदा आए और अनेक ग्रंथों की मूल प्रतियां अपने साथ ले गए।

उन्होंने बताया कि 20 वीं सदी में पंडित राहुल सांकृत्यायन तिब्बत और नेपाल आदि देशों से अनेक पांडुलिपियों को भारत लाए थे। जिसका संग्रहण बिहार रिसर्च सोसायटी और के पी जायसवाल रिसर्च इंस्टिट्यूट पटना में संग्रहित है। इनमें मुख्य रुप से प्रमाणवार्तिक, ज्ञान श्रीमित्र आदि का संपादन किया गया है। इससे स्पष्ट होता है कि बिहार पांडुलिपियों का अमूल्य खजाना था। इन पांडुलिपियों का एशियाई देशों में बौद्ध धर्म के विकास का महत्वपूर्ण योगदान है।

दिल्ली विश्वविद्यालय के रिटायर्ड प्रोफेसर सत्यपाल ने कहा किया मानव जीवन अनमोल है। इसी जीवन में अनंत ज्ञान अर्थात बुद्ध बनने की असीम संभावनाएं हैं । उस ज्ञान को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पहुंचाने के लिए पांडुलिपि सशक्त माध्यम है।

पांडुलिपि के नाम का रहस्योद्घाटन करते हुए उन्होंने कहा कि कोई भी लिपि धीरे-धीरे पीला हो जाता है। इसीलिए इसे पांडुलिपि कहा जाता है । उन्होंने कहा कि 75 वर्ष पुरानी हस्तलेख को पाण्डुलिपी कहा जाता है।

इस राष्ट्रीय सेमिनार के समन्वयक एवं नव नालंदा महाविहार डीम्ड विश्वविद्यालय के दर्शन शास्त्र विभागाध्यक्ष डॉक्टर बुद्धदेव भट्टाचार्य ने कहां की तीन दिवसीय सेमिनार में दर्शनशास्त्र, इतिहास , संस्कृत, पालि, प्राकृत के विद्वानों और पांडुलिपिविदो ने पांडुलिपियों के महत्व उसके संरक्षण और संवर्धन पर महत्वपूर्ण विचार व्यक्त किया । इस सेमिनार के विवेचन उपरांत शोध के बहुत सारे आयाम खुलकर सामने आया है।

विद्वानों के अनुसार प्राचीन नालंदा विश्वविद्यालय, विक्रमशिला विश्वविद्यालय और उदंतपुरी विश्वविद्यालय में बने पांडुलिपि का एशिया महादेश में बौद्ध धर्म के प्रचार – प्रसार व विकास में अविस्मरणीय योगदान है। इस तथ्य को प्रकाश में लाने का सारा श्रेय पंडित राहुल सांकृत्यायन को जाता है।

उन्होंने कहा पंडित राहुल सांकृत्यायन अनेक देशो व जगहों से पांडुलिपियों को खोज कर लाये थे। इस सेमिनार में पांडुलिपियों के गुरुत्व और महत्व पर विस्तार से चर्चा की गई। उन पांडुलिपियो में शोध कार्य करने की नई दिशा मिली है। पांडुलिपियो के वैज्ञानिक दृष्टिकोण से संरक्षण एवं संवर्धन के लिए यह सेमिनार प्रासंगिक है।

उन्होंने रहस्योद्घाटन करते हुए कहा कि बिहार रिसर्च इंस्टिट्यूट और के पी जायसवाल शोध संस्थान में संग्रहित पांडुलिपियों में 10 फ़ीसदी पर भी काम नहीं हो सका है।

उन्होंने इस क्षेत्र में शतप्रतिशत कार्य संपन्न कराने की आवश्यकता पर जोर दिया। डॉक्टर भट्टाचार्य ने कहा कि इन पांडुलिपियों का संपादन और अनुवाद देवनागरी लिपि में किया जाना चाहिए, जिससे आम लोग लाभान्वित हो सके।

इस अवसर पर नव नालंदा महाविहार के पूर्व निदेशक डा उमा शंकर व्यास, उमेश चंद्र द्विवेदी, सीपी सिन्हा , प्रवीण प्रकाश, डा धम्म ज्योति, आदि स्कॉलरो ने विचार व्यक्त किया।

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