Home देश वर्ष 1992  में वितरहित शिक्षकों के मसीहा बने थे रघुवंश बाबू

वर्ष 1992  में वितरहित शिक्षकों के मसीहा बने थे रघुवंश बाबू

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पटना (एक्सपर्ट मीडिया न्यूज नेटवर्क ब्यूरो)। बिहार की शिक्षा व्यवस्था का एक कोढ़ जिसे वितरहित शिक्षा नीति के नाम से पिछले चार दशक से जाना जाता रहा है। सरकारें आई, गई, लेकिन वितरहित शिक्षा नीति सियासतदां के लिए अछूत रही,अंतहीन रही।

राज्य के 725 माध्यमिक स्कूल, 507 इंटर कॉलेज तथा 225 डिग्री कालेजों के लगभग 50 हजार से ज्यादा शिक्षक एवं शिक्षकेतर कर्मचारी पिछले 40 साल से इस शिक्षा नीति का दंश झेलते हुए सैकडों काल के गाल में समा गये तो हजारों बिना वेतन के रिटायर्ड हो गये या फिर आजीविका का अन्य सबंल अपना लिया।

1980 के दशक से वितरहित शिक्षा नीति की समाप्ति को लेकर आंदोलन दर आंदोलन चलता रहा। विरोध प्रदर्शन, हर सत्र में विधानमंडल का घेराव, संसद मार्च,नंग धड़ंग प्रदर्शन, जेल भरो अभियान सब कुछ हुआ लेकिन वितरहित शिक्षा नीति समाप्त नहीं हुई। वितरहित शिक्षा नीति संयुक्त मोर्चा भी नकारा साबित हुई। कांग्रेस मुख्यमंत्रियों ने सिर्फ़ आश्वासन ही दिया।Raghuvansh Prasad Singh 1 1

लेकिन, लालू प्रसाद यादव ने चुनाव पूर्व वितरहित शिक्षकों के घर दीपावली मनाने का आश्वासन भी दिया। लेकिन सत्ता में आते ही वह भी वितरहित शिक्षकों के अंतहीन दर्द पर मरहम लगाने के वजाय उनके जख्म को और गहरा कर गयें।

कहते हैं किसी के दर्द को वहीं समझ सकता है जो उस दर्द से गुजरा है। एक शिक्षक का दर्द एक शिक्षक ही समझ सकता है। ऐसे में वितरहित शिक्षकों के लिए एक आशा की किरण बनकर सामने आए रघुवंश प्रसाद सिंह।

रघुवंश प्रसाद सिंह 1992में विधानसभा परिषद के सदस्य थे। उन्होंने अपने दल के खिलाफ जाकर वितरहित शिक्षकों की आवाज बने। उन्होंने विधानपरिषद में वितरहित शिक्षा नीति को लेकर सवाल किया।

वितरहित शिक्षा नीति की समाप्ति के लिए तत्त्कालीन सभापति ने एक कमिटी बनाई जिसके अध्यक्ष स्वंय रघुवंश प्रसाद सिंह थे।

मार्च,1992 विधानमंडल का सत्र चल रहा था। बिहार के विभिन्न जिलों के सैकडों डिग्री कालेजों के हजारों शिक्षक पटना में डेरा डालो आंदोलन में शामिल होने पहुंचे हुए थे।

27 मार्च,1992 वितरहित शिक्षा नीति संयुक्त मोर्चा के नेतृत्व में शिक्षकों ने गांधी मैदान से विधानसभा के लिए जुलूस निकाला तो पूरी राजधानी ठप्प पड़ गई। चारों ओर वितरहित शिक्षा नीति समाप्त करो के शोर गूंज रहे थें।

वितरहित शिक्षकों के आंदोलन से बिहार की राजनीति गरमा गई थी।दोनों सदनों में वितरहित शिक्षा नीति को लेकर आवाज उठनी लगी। काम काज ठप्प पड़ गया। सदन को कई बार स्थगित करने की नौबत आ पड़ी। सत्ता पक्ष इस मामले में कुछ जबाब नहीं दे पा रही थी।

विधान परिषद में शून्यकाल चल रहा था। अचानक जनता दल के सदस्य रघुवंश प्रसाद सिंह अपनी सीट से उठे और सभापति को संबोधित करते हुए वितरहित शिक्षकों के आंदोलन पर ध्यान आकृष्ट कराते हुए सदन में चर्चा की मांग की।

उनकी इस मांग से भाजपा और कांग्रेस के सदस्य भी आश्चर्य चकित नजर आए। सता दल का एक नेता भी ऐसा मांग कर सकता है। उनके द्वारा उठाये गए सवाल और चर्चा के बाद सभापति ने सदस्यों की एक कमिटी उनके नेतृत्व में बनाई।

उस कमिटी ने  अपनी रिपोर्ट 31 दिसंबर, 1993 को सौंप दी। कमिटी ने वित्तरहित शिक्षा नीति की समाप्ति के साथ ही इसके लिए बजट में राशि का प्रावधान करने, कॉलेजों में शिक्षक-शिक्षकेतर कर्मचारियों के वर्चस्व वाली प्रबंध समिति बनाने, वित्तीय संकट की स्थिति में सुरक्षा कोष की राशि सूद के साथ कॉलेजों को लौटाने, आंतरिक संसाधन जुटा प्रबंध समिति द्वारा भुगतान की गारंटी और उसकी निगरानी की व्यवस्था करने, शिक्षक-कर्मियो की सेवा नियमित करने तथा सभी शर्तों को पूरा करने वाले कॉलेजों को परमानेंट एफलिएशन देने और चरणबद्ध रूप से अंगीभूत करने की अनुशंसा अपनी रिपोर्ट में की थी।

इससे शिक्षकों के आंदोलन पर रघुवंश-कमेटी की रिपोर्ट का रंग चढ़ गया। अब, शिक्षकों की एक ही मांग थी कि रघुवंश-कमेटी की रिपोर्ट लागू किया जाए। लेकिन, न रिपोर्ट लागू हुई और न ही आंदोलन थमा।

हां, एक बार फिर बिहार की सत्ता जरूर बदल गयी। नीतीश कुमार मुख्यमंत्री बने। नयी सरकार के सामने वित्तरहित शिक्षा नीति एक बड़ी चुनौती थी। और, साल 2008 से वित्तरहित स्कूल-कॉलेजों को उसके छात्र-छात्राओं के रिजल्ट के आधार पर अनुदान देने की लागू हुयी  व्यवस्था से वित्तरहित शिक्षा नीति समाप्त हुई। लेकिन वह आज भी उन शिक्षकों के लिए ऊंट के मुंह में जीरा के समान है।

भले ही रघुवंश प्रसाद सिंह आज नहीं है। लेकिन जब भी शिक्षकों के आंदोलन की चर्चा होगी रघुवंश -कमिटी की रिपोर्ट को लेकर शिक्षकों के बीच जरूर याद किये जाएंगे, जिसको लेकर वितरहित शिक्षक सालों आंदोलन पर डटे रहें और जिसकी अनुशंसाओं को लागू करने की मांग डेढ़ दशक से ज्यादा समय से करते आ रहे हैं।

बहरहाल, रघुवंश-कमिटी की रिपोर्ट आज भी प्रासंगिक है और, अपनी रिपोर्ट में जिंदा रहेंगे रघुवंश बाबू!

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