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नीति आयोग की बैठक में उभरे सवाल, जन संघर्षी वादों से दूर हुई हेमंत सरकार?

राज्य सरकार के कार्यकाल को देखें तो अब तक की उपलब्धियां सीमित और वर्ग विशेष तक केंद्रित दिखती हैं- मईया सम्मान योजना, वकीलों के लिए स्वास्थ्य बीमा, सरकारी कर्मचारियों को महंगाई भत्ता और पुरानी पेंशन स्कीम की वापसी। इन योजनाओं का लाभ मुख्यतः संगठित वर्गों को मिला है। जबकि आदिवासी, किसान और वंचित वर्ग अब भी हाशिए पर हैं...

नई दिल्ली (एक्सपर्ट मीडिया न्यूज)। दिल्ली में आयोजित नीति आयोग की बैठक में झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने जो बातें कहीं, वह न केवल राज्य की विकास नीति की दिशा को दर्शाती हैं, बल्कि यह भी उजागर करती हैं कि उनकी सरकार अपने ही चुनावी वादों से कितनी दूर खड़ी है।

उन्होंने कहा कि झारखंड में टेनेंसी कानून (भूमि सुरक्षा कानून) विकास के रास्ते में बाधा बन रहे हैं और फॉरेस्ट क्लियरेंस  (वन स्वीकृति) की प्रक्रिया में देरी के कारण राज्य में नए उद्योग नहीं लग पा रहे हैं। उन्होंने केंद्र सरकार से इस प्रक्रिया को आसान करने की मांग की, जैसा कि उन्होंने उत्तर भारत के कुछ राज्यों में होते देखा है।

लेकिन इस वक्तव्य ने एक बड़ा सवाल खड़ा कर दिया है- क्या यह वही मुख्यमंत्री हैं, जिन्होंने चुनावों के समय लैंड बैंक खत्म करने, 1932 के खतियान आधारित डोमिसाइल नीति लाने, पेसा कानून लागू करने और वनाधिकार कानून के तहत आदिवासियों को जंगल की जमीन पर पट्टा देने का वादा किया था? अगर हेमंत सोरेन अब टेनेंसी एक्ट को ही विकास में बाधा मानते हैं तो क्या वे जल, जंगल, जमीन की रक्षा कर पाएंगे?

झारखंड मुक्ति मोर्चा (झामुमो) और उसके सहयोगी दल कांग्रेस इन दिनों सरना धर्म कोड की मांग को लेकर मुखर हैं। लेकिन जानकारों का मानना है कि यह धार्मिक और भावनात्मक मुद्दा, कहीं उन ठोस जनसरोकारों को नेपथ्य में डालने की रणनीति तो नहीं, जिनका हल राज्य सरकार को खुद करना था?

यह भी सच है कि सरना कोड  केंद्र सरकार की सहमति से ही संभव है। लेकिन लैंड बैंक खत्म करना, पेसा कानून लागू करना, या खतियान आधारित नीति बनाना- ये सभी राज्य सरकार के दायरे में आते हैं। ऐसे में सवाल उठता है कि अगर केंद्र सरकार की सहमति वाले मुद्दों पर आंदोलन हो सकता है तो अपने अधिकार क्षेत्र वाले वादों को क्यों ठंडे बस्ते में डाल दिया गया?

विश्लेषकों का कहना है कि हेमंत सोरेन की विकास की सोच में बदलाव अदानी समूह से हुई मुलाकात के बाद और तेज हुआ है। यह बदलाव नीतियों में भी झलकने लगा है। अब उद्योग लगाने की बात हो रही है, जंगल कानून को ‘विकास में बाधा’ बताया जा रहा है, और टेनेंसी एक्ट को आसान बनाने की मांग उठाई जा रही है।

झारखंड में पेसा कानून को लेकर लंबे समय से जनदबाव बना हुआ है, लेकिन सरकार अब तक इसे प्रभावी ढंग से लागू नहीं कर पाई है। वहीं वन क्षेत्र में बसे लाखों आदिवासियों को वनाधिकार कानून के तहत जमीन का हक भी नहीं मिल पाया है। सवाल यह है कि अगर हेमंत सरकार सच में आदिवासी हितों की पक्षधर है तो इन मुद्दों को प्राथमिकता क्यों नहीं दी जा रही है?

राज्य सरकार के कार्यकाल को देखें तो अब तक की उपलब्धियां सीमित और वर्ग विशेष तक केंद्रित दिखती हैं- मईया सम्मान योजना, वकीलों के लिए स्वास्थ्य बीमा, सरकारी कर्मचारियों को महंगाई भत्ता और पुरानी पेंशन स्कीम की वापसी। इन योजनाओं का लाभ मुख्यतः संगठित वर्गों को मिला है। जबकि आदिवासी, किसान और वंचित वर्ग अब भी हाशिए पर हैं।

बहरहाल, झारखंड की मौजूदा सरकार एक ओर सरना कोड की मांग को लेकर आंदोलनरत है, दूसरी ओर अपने ही वादों को निभाने में असहज दिख रही है। यह जनसरोकारों से विमुख एक रणनीति का हिस्सा है या राजनीतिक मजबूरी- यह तो आने वाला समय बताएगा। फिलहाल इतना तय है कि अगर आदिवासियों और वंचितों को न्याय दिलाना है तो इसका रास्ता केवल नीति आयोग की बैठकों से नहीं, बल्कि जन आंदोलनों और जनदबाव से होकर ही निकलेगा।

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