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CBI Court: फेक एनकाउंटर केस में 26 साल बाद थानेदार और दारोगा दोषी करार

पटना (एक्सपर्ट मीडिया न्यूज)। बिहार के पूर्णिया जिले में 1998 में हुए एक फर्जी एनकाउंटर मामले में सीबीआई की पटना विशेष अदालत (CBI Court) ने एक पूर्व थानाध्यक्ष और एक दारोगा को दोषी करार दिया है।

सीबीआई अदालत की अपर जिला एवं सत्र न्यायाधीश नवम सह विशेष न्यायाधीश अविनाश कुमार ने सुनवाई के बाद बड़हरा थाने के पूर्व थानाध्यक्ष मुखलाल पासवान को भारतीय दंड विधान की धारा 302, 201, 193 और 182 के तहत दोषी ठहराया है। वहीं बिहारीगंज थाना के दारोगा अरविंद कुमार झा को धारा 193 के तहत दोषी पाया करार दिया है।

जमानत रद्द और न्यायिक हिरासत में भेजे गए दोषीः विशेष अदालत ने दोनों अभियुक्तों का बंध पत्र रद्द करते हुए उन्हें न्यायिक हिरासत में ले लिया और जेल भेज दिया। अब सजा के बिंदु पर सुनवाई 8 अक्तूबर को होगी। अदालत ने इस मामले में अभियुक्त बनाये गये दारोगा कुमार संजय और सिपाही राम प्रकाश ठाकुर को साक्ष्य के अभाव में रिहा कर दिया।

क्या था मामलाः यह मामला वर्ष 1998 का है, जब पुलिस ने बिहारीगंज थाना क्षेत्र के फिद्दी की बस्ती गांव में अपराधी संतोष कुमार सिंह की तलाश में जगदीश झा के घर की घेराबंदी की थी। आरोप है कि पुलिस ने संतोष कुमार सिंह को गोली मारकर हत्या कर दी और बाद में इस घटना को एनकाउंटर का रूप देने का प्रयास किया।

जांच की जटिलताः इस मामले की जांच पहले स्थानीय पुलिस द्वारा की गई, लेकिन जब मामले की गंभीरता बढ़ी, तो इसे सीआइडी को सौंपा गया। अंततः सीबीआई ने इस मामले में गहराई से अनुसंधान करते हुए 45 गवाहों के बयान दर्ज कराए। सीबीआई ने यह साबित किया कि यह हत्या वास्तव में एक फर्जी एनकाउंटर था, जिसे अधिकारियों ने छुपाने की कोशिश की।

अभियुक्तों की ओर से बचावः मुखलाल पासवान और अरविंद कुमार झा की ओर से बचाव पक्ष के वकील राम विनय सिंह और एएच खान ने अदालत में अपने मुव्वकिलों की रक्षा की। वहीं अभियुक्त कुमार संजय की ओर से अधिवक्ता विजय आनंद ने बहस की। हालांकि अदालत ने उनकी दलीलों को खारिज करते हुए उन्हें दोषी ठहराया।

आगे की कार्रवाईः इस मामले में अब सजा के बिंदु पर सुनवाई 8 अक्तूबर को होगी। यह मामला न केवल स्थानीय पुलिस की कार्यप्रणाली पर सवाल उठाता है, बल्कि यह भी दर्शाता है कि न्याय व्यवस्था में सुधार की कितनी आवश्यकता है। फर्जी एनकाउंटर जैसे मामलों में दोषी अधिकारियों को सजा मिलना न्यायपालिका की सख्ती और पारदर्शिता का प्रतीक है।

इस मामले ने एक बार फिर यह सवाल उठाया है कि क्या पुलिस को कानून के दायरे में रहते हुए कार्य करना चाहिए या फिर उन्हें ऐसी घटनाओं को छिपाने के लिए अपराध करने का अधिकार दिया जाना चाहिए। आने वाले दिनों में इस मामले का फैसला और अधिक महत्वपूर्ण होगा, क्योंकि यह अन्य पुलिस अधिकारियों के लिए एक उदाहरण स्थापित कर सकता है कि कानून को तोड़ने वालों को कभी भी बख्शा नहीं जाएगा।

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