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बिहार दिवसः  कृतघ्न बिहार ने अपने निर्माता डॉ. सच्चिदानन्द सिन्हा को ही बिसार दिया !

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पटना (एक्सपर्ट मीडिया न्यूज़ नेटवर्क ब्यूरो)। “जिंदगी ऐसी बना जिंदा रहें दिलशाद तू, गर न हो दुनिया में तो दुनिया को याद आए तू” उक्त पंक्तियाँ अक्षरश: एक ऐसे व्यक्तित्व पर सटीक बैठती है , जिनका नाम है डॉ सच्चिदानंद सिन्हा।

Bihar Diwas The ungrateful Bihar has given its creator Dr. Sachchidanand Sinha only 2आज बिहार दिवस है। बिहार आज 110 साल का हो गया है।इस मौके पर आधुनिक बिहार के निर्माता डॉ सच्चिदानन्द सिन्हा को याद करना तो बनता है। भले ही सियासत और सियासतदां ने उन्हें भूला दिया। लेकिन जब तक बिहार रहेगा डॉ सच्चिदानन्द सिन्हा की यादें भी रहेंगी। उनके योगदान की भी चर्चा होगी।

आधुनिक बिहार के निर्माता डॉ सच्चिदानन्द सिन्हा, जिन्होंने बिहार के निर्माण के लिए अपना सवर्त्र त्याग दिया। उन्हीं की दान की गई भूमि में बिहार विधानसभा, विधानपरिषद, गांधी मैदान, बिहार बोर्ड कार्यालय और पटना का हवाई अड्डा बिहार के गौरवशाली अतीत की शोभा बढ़ा रहा है।

कह सकते हैं,इमारत बुलंद हुई और बुनियाद का पत्थर उन्हें भूल गई। आज कृतघ्न बिहार ने उन्हें बिसार दिया। यहां की हुकूमतों ने भी उन्हें आजतक उस श्रद्धा से याद नहीं किया, जिस ताम-झाम के साथ बिहार के दूसरे राजनीतिज्ञ को याद किया जाता है।

डॉ सिन्हा भारत की संविधान सभा के प्रथम अध्यक्ष थे। बिहार को बंगाल से पृथक राज्य के रूप में स्थापित करने का श्रेय उन्हें ही जाता है। इसके अलावा वे भारत के प्रसिद्ध सांसद, शिक्षाविद,अधिवक्ता और पत्रकार थे।

चार महाराजों को परास्त कर डॉ. सिन्हा केन्द्रीय विधान परिषद में प्रतिनिधि निर्वाचित होने वाले पहले व्यक्ति, साथ ही वे प्रथम भारतीय भी थे जिन्हें एक प्रांत का राज्यपाल और “हाउस ऑफ लॉडर्स” का सदस्य बनने का श्रेय है। साथ ही वे प्रिवी कौंसिल के भी सदस्य बनाए गए थे।

डॉ. सच्चिदानंद सिन्हा एक ऐसा व्यक्तित्व जिसने जीवन को अपनी मौज में शान और शौकत के साथ जीया किसी बात की उलझन नहीं किसी बात का मलाल नहीं। मानो लहरों की सवारी हो जहाँ भी ले जाए। जिन्दादिली का साक्षात नमूना जिस पर आयु भी हावी नहीं हो पाई। महफिलें जमाना उनका शौक था।

एक दौर था जब उनके चाहने वाले, उनके जलबों के हजारों दीवाने हुआ करते थें।मधुर व्यवहार के धनी,एक सफल राजनीतिज्ञ, मर्मज्ञ मनीषी, ममहित मानवता के पक्षधर एवं बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी। उनके अंतरंग से प्रवाहित होने वाली सहज आनंद की धारा किसी को भी अपना बना लेने की अदभूत क्षमता रखती थी।

उनका व्यक्तित्व, उनकी सरलता व सादगी लोगों के दिलों दिमाग पर राज करती थी और एक दौर आज का भी है,जब डॉ. सिन्हा बिहार के हुकूमत के लिए अछूत रह गए।

इस महान विभूति का जन्म बिहार के भोजपुर के डूमरावं अनुमंडल के चौगाई प्रखंड के अंतर्गत मुरार गाँव में 10 नवम्बर, 1871 में हुआ था। इनके पिता बख्शी शिव प्रसाद सिन्हा डूमराव महाराज के मुख्य तहसीलदार थे। इनकी प्रारंभिक शिक्षा गाँव के ही स्कूल में आरंभ हुई।जिला स्कूल आरा से इन्होंने मैट्रिक की परीक्षा उतीर्ण की।

महज 18 साल की उम्र में 26 दिसम्बर, 1889 को बिहार से उच्च शिक्षा के लिए विदेश रवाना हुए। बिहार से विदेश जाने वालों में प्रथम हिन्दू छात्र थे।वहाँ से तीन साल तक बैरिस्टरी की पढ़ाई कर 1893 में स्वदेश लौट आए।

जहां उन्होंने कलकता उच्च न्यायालय में अपने कैरियर की शुरुआत की।1896 में डॉ. सिन्हा इलाहाबाद उच्च न्यायालय में प्रैक्टिस शुरू की।दस साल तक इलाहाबाद उच्च न्यायालय में वकालत करने के बाद जब 1916 में पटना उच्च न्यायालय की स्थापना हुई तो वे पटना आ गए।

बिहार के निर्माण में योगदान: बिहार बंगाल का एक उपेक्षित प्रांत था। बिहारियों का कोई नागरिक जीवन नहीं था। हद दर्जे के काहिल। न पटना से कोई अखबार निकलता था,न यहां थियेटर की कोई परंपरा थी। साहित्य-संस्कृति के क्षेत्र में भी बिहारियों का पढ़ा- लिखा तबका बंगालियों का पिछलग्गू था।

डॉ. सिन्हा पहले बिहारी थे, जिन्होंने इस अस्तित्वहीन बिहार की वास्तविक स्थिति को समझा और बिहार को बंगाल से आजाद कराने के लिए अपने जीवन का लक्ष्य बनाया। पृथक बिहार को लेकर आंदोलन चलाया।

जब वे विदेश से वापस लौट रहे थे तो एक पंजाबी सहपाठी ने डॉ. सिन्हा से पूछा वे किस प्रांत से हैं, सिन्हा ने जबाब दिया बिहार से। इस पर पंजाबी मित्र को आश्चर्य हुआ कि बिहार नाम का तो कोई प्रांत नहीं है। तब सिन्हा ने पंजाबी को कहा था, है तो नहीं लेकिन जल्द होगा।

डॉ. सिन्हा जब बिहार के सिपाहियों को ‘बंगाल पुलिस’ का बैच लगा देखते थे तो उनका खून खौल उठता था। उन्होंने बिहार राज्य की मांग को लेकर आंदोलन शुरू कर दिया। उनके इस मुहिम में महेश नारायण, अनुग्रह नारायण सिन्हा, नंदकिशोर लाल,राय बहादुर तथा कृष्ण सहाय जैसे मुट्ठी भर लोग शामिल हुए।

बिहार में उस समय ‘द बिहार हेराल्ड’ समाचार पत्र निकलता था। जो बिहार के पृथक राज्य का विरोध करता था। अलग बिहार राज्य के पक्ष में जनमत तैयार करने के उद्देश्य से उन्होंने 1894 में अपने कुछ सहयोगियों के साथ ‘द बिहार टाइम्स’ नामक साप्ताहिक समाचार पत्र की नींव रखी। आगे चलकर इलाहाबाद से निकलने वाले ‘कायस्थ समाचार’ पत्रिका को खरीद लिया और उसे ‘हिंदुस्तान रिव्यू’ बना दिया।

इसके अलावा वह “भारतीय राष्ट्र” के प्रकाशक भी बने। अलग बिहार राज्य के समर्थन में लगातार लिखने के बाद बिहार राज्य को लेकर जनता का जनसर्मथन मिलना शुरू हो गया।

डॉ सिन्हा ने ‘हिन्दुस्तान रिव्यू’ के संपादकीय में उन्होंने राजेन्द्र प्रसाद पर टिप्पणी की थी, जब प्रवेशिका परीक्षा में उन्होंने कलकत्ता विश्वविद्यालय में प्रथम आकर कमाल का प्रदर्शन किया था। दरअसल डॉ सिन्हा ने इसे बिहार के उभरते गौरव‌ के रूप में देखा था।जो आगे चलकर अक्षरशः सत्य हुआ।

1907 में महेश नारायण की मृत्यु के बाद डॉ. सिन्हा अकेले हो गए लेकिन उन्होंने अलग बिहार की मांग को लेकर आंदोलन जारी रखा। डॉ. सिन्हा के प्रयास का ही यह परिणाम था कि तत्कालीन ब्रिटिश सम्राट जार्ज पंचम ने 12 दिसम्बर, 1911 को बिहार और उड़ीसा को बंगाल से अलग करने की घोषणा की।

पहले भारतीय वित सदस्य: 1 अप्रैल, 1912 को कानूनी मान्यता के साथ ही आधुनिक बिहार के एक नए युग का आरंभ हुआ। डॉ. सच्चिदानंद सिन्हा 1899 से 1920 तक भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के सदस्य भी रहे तथा एक बार सचिव भी बनाए गए। उन्होंने होमरूल आंदोलन में भी हिस्सा लिया।

1921 में डॉ. सिन्हा बिहार के अर्थ सचिव एवं कानून मंत्री बनाए गए। वे बिहार और उड़ीसा सरकार के कार्यकारी काउंसलर और वित सदस्य भी थे। इस तरह वे पहले भारतीय थे, जिसे कभी एक प्रांत के वित सदस्य के रूप में नियुक्त किया गया। डॉ. सिन्हा बिहार विधानसभा के सदस्य भी रहे।उपकुलपति रहते हुए उन्होंने बिहार की शिक्षा व्यवस्था को एक नया आयाम दिया।

संविधान सभा के पहले अध्यक्ष: विश्व के सबसे बडे लोकतंत्र के लिए संविधान गढ़ना कोई सरल नहीं था।लेकिन संविधान निर्माण के लिए डॉ. सच्चिदानंद सिन्हा को चुना गया। 9 दिसम्बर, 1946 को उन्हें संविधान सभा के अंतरिम अध्यक्ष बनाया गया।

यह पूरे बिहार का सौभाग्य था कि इतनी महती भूमिका में वे पूरी तरह खरे उतरे।बाद में अप्रत्यक्ष चुनाव के बाद उनकी जगह डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने ले ली।

कहा जाता है कि जब संविधान की मूल प्रति तैयार हुई तो तब डॉ. सिन्हा पटना में काफी बीमार पड़ गए। उसी समय उनके हस्ताक्षर के लिए संविधान की मूल प्रति को विशेष विमान से पटना लाया गया।

सन 1946 ई. में बिहार लेजेस्लेटिव एसेंबली के रुप में निर्वाचित होनेवाले डा. सच्चिदानंद सिन्हा ने भारतीय संविधान सभा के प्रथम सत्र की अध्यक्षता भी की। 14 फरवरी, 1950 ई. को उन्होंने भारतीय संवैधानिक दस्तावेज पर हस्ताक्षर किया।

जब डॉ. राजेन्द्र प्रसाद देश के प्रथम राष्ट्रपति बनें तो वे डॉ. सिन्हा से आशीर्वाद लेने पटना पहुँचें।

पत्नी राधिका सिन्हा की याद में सिन्हा लाइब्रेरी का निर्माण: डॉ. सच्चिदानंद सिन्हा ने 1924 में अपनी पत्नी राधिका सिन्हा की स्मृति में ‘राधिका सिन्हा संस्थान ‘की स्थापना की। जो आज ‘सिन्हा लाइब्रेरी’ के नाम से जाना जाता है।

सिन्हा लाइब्रेरी की सबसे महत्वपूर्ण बात थी कि भारतीय संविधान की मूल कॉपी यहां थी। इस मूल कॉपी में डॉ सिन्हा के हस्ताक्षर थे।

इस लाइब्रेरी का उद्घाटन 1924 में बिहार और उड़ीसा के गवर्नर हेनरी व्हीलर ने किया था। जिनके नाम पर व्हीलर सीनेट हॉल है।

डॉ सच्चिदानंद सिन्हा की लगभग पांच हजार किताबें उनके पर्सनल कलेक्शन की थीं। 10000 किताबों से हुई लाइब्रेरी में आज यहां 1.26 लाख किताबें हैं। 1903 से लेकर अब तक के न्यूज़ पेपर का संग्रह यहां मिल जाएंगे।

1955 में राज्य सरकार ने इस लाइब्रेरी का अधिग्रहण कर लिया। बिहार के औरंगाबाद में इनके नाम पर 1943 में डॉ. सच्चिदानंद सिन्हा कॉलेज की स्थापना की गई।

बिहार की राजनीति के पितामह आज भी उपेक्षित: बिहार की राजनीति के ‘पितामह’ डॉ सच्चिदानंद सिन्हा आज बिहार में राजनीतिक रूप से उपेक्षित क्यों है?

पिछले साल बिहार विधानसभा भवन का शताब्दी समारोह मनाया गया था। उसमें राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद भी शामिल हुए थे। विधानसभा भवन किसने बनवाया, किस शैली में बना है, कहां की ईंट और कहां का चूना इस्तेमाल हुआ है, इसकी विस्तार से जानकारी उस शताब्दी समारोह में सीएम नीतीश कुमार के द्वारा दी गई थी। लेकिन किसी ने यह बताने की जरूरत नहीं समझी कि यह भवन बिहार निर्माता और संविधान सभा के अंतरिम अध्यक्ष डॉ सच्चिदानंद सिन्हा की दान दी हुई जमीन पर बना है।

संभवतः विधानसभा सचिवालय को भी इसका इतिहास पता न हो।शायद पता करने की जरूरत भी नहीं समझी गई। जिस विधानसभा भवन की शताब्दी समारोह मनाई गई, उस भवन की जमीन बिहार निर्माता डॉ सच्चिदानंद सिन्हा की दान की हुई जमीन थी।

सिर्फ इतना ही नहीं विधानपरिषद्, पटना हवाई अड्डा, पटना गोल्फ क्लब सब बैरिस्टर सिन्हा की दान की हुई जमीन है। डॉ सच्चिदानंद सिन्हा का एक कृषि फार्म हुआ करता था। जो उन्होंने तत्कालीन सरकार को दान दे दिया था। तब जाकर वहां विधानसभा और विधानपरिषद् भवन‌ का निर्माण हुआ था।

बिहार परीक्षा समिति भवन पहले डॉ सिन्हा का आवास था। उन्होंने उसे भी दान दे दिया। तब उसमें परीक्षा समिति कार्यालय खुला। उन्होंने अपनी निजी लाइब्रेरी भी सरकार को दान कर दी। जो बदहाल है, आजाद भारत की कई सरकारें आईं और गईं लेकिन सिन्हा लाइब्रेरी की हालत और बदतर होती चली गई।

डॉ सच्चिदानन्द सिन्हा आज की जातिवादी राजनीति में शायद फिट नहीं बैठते हैं। इसलिए उनकी जयंती और स्मृति दिवस पर बिहार ने बिसार दिया है। नयी पीढ़ी को तो यह भी पता नहीं है कि डॉ सच्चिदानंद सिन्हा थे कौन? यह अत्यंत पीड़ादायक है।

डॉ सिन्हा ने राजनैतिक तौर पर  बिहार को अलग प्रान्त बनाने में केंद्रीय भूमिका निभाई और सामाजिक स्तर पर बिहार में रेनेसां अथवा नवजागरण का सूत्रपात किया। ऐसे महान व्यक्तित्व को विधानसभा की शताब्दी समारोह में विस्मृत करने का जो पाप हुआ है।

बिहार जैसा कृतघ्न समाज दुनिया में खोजे नहीं मिलेगा। जिस डॉ सच्चिदानंद सिन्हा ने बिहार को अलग प्रांत बनवाया, विधान परिषद, विधान सभा और हवाई अड्डा के लिए जमीन दी, उनका स्मरण कराने के लिए कहीं एक शिलालेख तक नहीं है।

विधानमंडल परिसर में अनेक स्मृतियों को संजोया गया है, लेकिन पता नहीं क्यों सच्चिदानन्द सिन्हा को भुला दिया गया, उन्हें बिसार दिया गया। आज बिहार में दूसरे क्रांतिकारियों, आजादी की लड़ाई में शामिल नेताओं की जयंती-पुण्यतिथि धूमधाम से मनाई जाती है।

लेकिन डॉ सच्चिदानंद सिन्हा जैसे क्रांतिकारी, देशभक्त, बिहार निर्माता सियासत के लिए अछूत रहे हैं। उनका देश प्रेम, त्याग भले सियासत भूल जाएं, लेकिन एक सच्चा देशभक्त उनके बलिदान को कभी भूल नहीं सकता।

6 मार्च,1950 को 79 साल की उम्र में यह व्यक्तित्व अंधेरे में कहीं गुम हो गया।आज इनका कोई पुरसा हाल नहीं। लोगों के मानस पटल से उनकी यादें विस्मृत हो रही है।किसी ने सही कहा है- “किसी ने मेरे दिल का दिया जला तो दिया, ये और बात पहले सी रौशनी नहीं रही।”

ऐसे महान विभूति तथा राजनीति के धरोहर से बिम्बित में बिम्ब किसके मानस -पटल से विस्मृत हो सकते हैं।

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