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अशोक चौधरीः बिहार की सियासत का अनोखा दलित चेहरा!

अशोक चौधरी बिहार की राजनीति में एक ऐसी पहेली हैं, जिसे सुलझाना आसान नहीं। उनकी दलित पहचान, सवर्ण पारिवारिक कनेक्शन, और विभिन्न दलों में फैला परिवार यह सवाल उठाता है कि क्या वे वास्तव में दलित हितों के लिए लड़ रहे हैं, या सिर्फ सत्ता के खेल में माहिर हैं?

पटना (एक्सपर्ट मीडिया न्यूज)। बिहार की राजनीति में कुछ चेहरे ऐसे हैं जो न केवल चर्चा का केंद्र रहते हैं, बल्कि सियासी गलियारों में एक पहेली बनकर उभरते हैं। ऐसा ही एक नाम है अशोक चौधरी। एक ऐसा दलित नेता, जिनकी कहानी सुनकर जाति, विचारधारा और राजनीति तीनों शर्मसार हो जाएं। उनकी जिंदगी और सियासी सफर एक ऐसी किताब है, जिसमें हर पन्ना विरोधाभासों से भरा है। आइए इस अनोखे किरदार की कहानी को करीब से देखें।

अशोक चौधरी खुद को महादलित समुदाय का नेता बताते हैं, और बिहार की 19.65% दलित आबादी के बीच उनकी यह पहचान एक मजबूत आधार देती है। लेकिन उनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि इस पहचान को एक जटिल रंग देती है।

उनकी मां कायस्थ समुदाय से हैं, पत्नी ब्राह्मण हैं और दामाद भूमिहार हैं। यह सामाजिक मिश्रण बिहार की जातिगत राजनीति में एक अनोखा प्रयोग है, जो यह सवाल उठाता है कि क्या चौधरी की दलित पहचान सिर्फ सियासी रणनीति का हिस्सा है?

चौधरी का यह सामाजिक समीकरण न केवल उनकी व्यक्तिगत जिंदगी को दर्शाता है, बल्कि बिहार की जटिल जातिगत गतिशीलता को भी उजागर करता है। जहाँ एक तरफ वे दलित वोटों को साधने की कोशिश करते हैं, वहीं उनके परिवार के सवर्ण कनेक्शन उन्हें व्यापक सामाजिक स्वीकार्यता दिलाने में मदद करते हैं। लेकिन क्या यह संतुलन सियासी अवसरवादिता का परिणाम है?

अशोक चौधरी की सियासी यात्रा भी उतनी ही रोचक है। उनके पिता, स्वतंत्रता सेनानी और कांग्रेस के कद्दावर नेता महावीर चौधरी नौ बार विधायक रहे और कई मंत्रालयों में सेवा दी। अशोक ने भी अपनी राजनीति की शुरुआत कांग्रेस से की। 2000 में बरबीघा विधानसभा से विधायक बने और राबड़ी देवी सरकार में कारा राज्यमंत्री रहे। 2013 में उन्हें बिहार कांग्रेस का प्रदेश अध्यक्ष बनाया गया और वे राहुल गांधी के करीबी माने गए।

लेकिन 2018 में एक नाटकीय मोड़ आया। कांग्रेस में आंतरिक कलह और आरोपों के बीच चौधरी ने पार्टी छोड़ दी और नीतीश कुमार की जदयू में शामिल हो गए। नीतीश ने उन्हें न केवल अपनी कैबिनेट में जगह दी, बल्कि भवन निर्माण, शिक्षा, और ग्रामीण कार्य जैसे महत्वपूर्ण विभाग भी सौंपे। आज वे नीतीश के सबसे भरोसेमंद सहयोगियों में से एक हैं और हाल ही में जदयू के राष्ट्रीय महासचिव नियुक्त हुए हैं।

चौधरी की सियासी कहानी सिर्फ उनकी अपनी नहीं, बल्कि उनके परिवार की भी है। उनकी बेटी शांभवी चौधरी लोक जनशक्ति पार्टी (रामविलास) से समस्तीपुर की सांसद हैं और देश की सबसे युवा सांसदों में से एक हैं। उनके दामाद सायण कुणाल राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) के कोटे से बिहार धार्मिक न्यास पर्षद के सदस्य बने हैं। इस तरह चौधरी का परिवार कांग्रेस, जदयू, लोजपा (रामविलास) और आरएसएस जैसे अलग-अलग सियासी और वैचारिक ध्रुवों को जोड़ता है।

यह पारिवारिक गठबंधन बिहार की राजनीति में एक अनोखा उदाहरण है। जहाँ एक तरफ चौधरी खुद को दलित हितों का पैरोकार बताते हैं, वहीं उनके परिवार के सदस्य सवर्ण-प्रधान संगठनों और दलों से जुड़े हैं। यह सियासी रणनीति क्या वास्तव में विचारधारा से प्रेरित है, या सिर्फ सत्ता और प्रभाव को बनाए रखने का एक खेल?

अशोक चौधरी के आलोचक उन्हें पलटनीति का मास्टर कहते हैं। उनके लिए न तो विचारधारा मायने रखती है, न ही कोई दल स्थायी है। चाहे कांग्रेस का उदारवाद हो या जदयू का सामाजिक न्याय, चौधरी हर जगह फिट हो जाते हैं। उनकी यह क्षमता उन्हें हर सरकार में मंत्री बनने की कला सिखाती है। लेकिन यह सवाल उठता है कि क्या यह सियासी चतुराई है या अवसरवादिता?

हाल के वर्षों में उनके कुछ बयानों ने विवाद भी खड़ा किया। 2024 में भूमिहार समुदाय पर उनकी टिप्पणी ने जदयू के भीतर हलचल मचा दी। वहीं एक कविता पोस्ट करने पर नीतीश कुमार ने उन्हें फटकार लगाई। जिसके बाद चौधरी ने नीतीश को मानस पिता कहकर सफाई दी। ये घटनाएँ उनकी सियासी शैली को दर्शाती हैं- विवाद पैदा करना, फिर उसे संभाल लेना।

चौधरी की कहानी बिहार की उस राजनीति का प्रतीक है, जहाँ कुर्सी और सत्ता अंतिम लक्ष्य हैं। उनकी पारिवारिक और सियासी गठजोड़ यह दिखाते हैं कि बिहार में जाति और विचारधारा सिर्फ सियासी औजार हैं, जिनका इस्तेमाल वक्त और जरूरत के हिसाब से किया जाता है। चौधरी का यह सफर न केवल उनकी व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा को दर्शाता है, बल्कि बिहार की सियासत की उस हकीकत को भी उजागर करता है, जहाँ न कोई सिद्धांत स्थायी है, न कोई गठबंधन।

समाचार स्रोत:

  • प्रभात खबर, 24 फरवरी 2018
  • आज तक, 27 सितंबर 2024
  • विकिपीडिया, 22 नवंबर 2020
  • बीबीसी, 2 सितंबर 2024
  • नवभारत टाइम्स, 17 जून 2025
  • X पर पोस्ट, 16 सितंबर 2024

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