“राजनीतिक पंडितों को लगता है कि नीतीश एक बार फिर यू-टर्न मार सकते हैं। वैसे भी 2009 में वह बिहार को विशेष राज्य का दर्जा दिलाने के नाम पर यूपीए का समर्थन कर बैठे थे, इस बार भी वह ऐसा ही कर सकते हैं…”
पटना (एक्सपर्ट मीडिया न्यूज नेटवर्क ब्यूरो)। लोकसभा के पांच चरण का चुनाव समाप्त हो चुका है। सिर्फ दो चरण के चुनाव शेष है। ऐसे में बिहार एनडीए में सब कुछ ठीक नहीं लग रहा है।
चुनावी फिजा में फिर यह सवाल उड़ रहा है कि क्या सीएम नीतीश कुमार एक बार फिर पाला बदलेगें। अगर एनडीए बहुमत से दूर रहा तो क्या बिहार के सीएम एनडीए को टाटा-बाई -बाई बोल देंगे। या फिर खुद को पीएम पद के दावेदार के रूप में पेश करेंगे।
आरजेडी नेता तेजस्वी यादव ने कहा कि 23 तारीख को भूचाल आएगा। उन्होंने कहा कि 23 मई के बाद बीजेपी और जेडीयू में लड़ाई होना तय है और इसके बाद नीतीश कुमार इस्तीफा दे देंगे। 23 मई के बाद एनडीए के दल डायनासोर की तरह गायब हो जाएंगे।
लोकसभा चुनावों के बीच में बिहार के राजनीतिक गलियारों में सवाल उठ रहा है कि अगर एनडीए बहुमत हासिल करने में नाकाम रहा तो एनडीए बिहार में बीजेपी के दोनों सहयोगी जेडीयू और एलजेपी का आगे का क्या रूख रहेगा।
बिहार में पांचवें चरण तक 40 में से 23 सीटों पर मतदान हो चुका है। इसके साथ ही सियासी फिजां में चर्चा शुरु हो गई है कि केंद्र में एनडीए को बहुमत नहीं मिला तो चुनाव बाद बिहार की राजनीतिक तस्वीर क्या बनने वाली है?
चर्चा है कि बिहार में जदयू नीतीश कुमार की छवि बदौलत अपनी प्रतिष्ठा तो कुछ हद तक बचा लेगी। लेकिन लोजपा का ‘मुगल वंश’ खतरे में दिखता है तो क्या लोजपा के परिवारवाद की राजनीति खतरे में है?।
जैसा कि आशंका है कि लोक जनशक्ति पार्टी के सुप्रीमो राम विलास पासवान के दोनों भाई और बेटे की हाजीपुर, समस्तीपुर और जमुई से जीत की गुंजाइश कम दिख रही है।
अगर ऐसा होता है तो दलितों के मसीहा के तौर पर खुद के पेश करते रहे राम विलास को असम से राज्यसभा भेजने का चुनाव से पहले किया गया वादा भी बीजेपी तोड़ सकती है।
राजनीति में संभावनाएँ कुछ भी हो सकती है। अगर पासवान परिवार का ‘मुगल वंश’ खतरे में आ जाएगा तब ऐसा पहली बार होगा जब मौसम वैज्ञानी रामविलास पासवान की भविष्यवाणी फेल हो जाएंगी। यह पहली बार होगा जब जनता के मन मिजाज को भांपने में चूक हो जाएगी।
बिहार की अलग-अलग लोकसभा सीटों से जो खबरें आ रही हैं, जिससे संकेत मिलते है कि एलजेपी अस्तित्व बचाने के लिए संघर्ष कर रही है। राजनीतिक विश्लेषण बताते हैं कि बहुत अच्छा प्रदर्शन रहा तो एलजेपी एक या दो सीट जीत सकती है, और बुरे हालात में इसका सफाया हो सकता है।
पिछले लोकसभा चुनाव के मुकाबले यह एकदम उलट स्थिति है, जब एलजेपी ने सात सीटों पर चुनाव लड़ा था और 6 पर जीत हासिल की थी। वहीं उस समय एनडीए में रही आरएलएसपी ने तीन सीटों पर चुनाव लड़ा था और तीनों सीटें जीती थीं, जबकि बीजेपी ने 22 सीटों पर बाजी मारी थी।
बहरहाल, यह पहला मौका नहीं है जब राम विलास पासवान ऐसे हालात का सामना कर रहे हैं। और इन हालात के लिए किसी और को नहीं बल्कि खुद राम विलास पासवान को ही जिम्मेदार ठहराया जा सकता है।
2009 के चुनाव में एलजेपी के हिस्से में एक भी सीट नहीं आई थी, साथ ही कांग्रेस-आरजेडी-एलजेपी गठबंधन का सफाया हो गया था। हालांकि इस चुनाव में कांग्रेस की अगुवाई वाले यूपीए ने सत्ता में वापसी की थी।
लेकिन बीजेपी की अगुवाई वाले एनडीए ने कुल 32 सीटें जीती थीं। इनमें से 20 पर जेडीयू और 12 पर बीजेपी ने जीत हासिल की थी।
दरअसल, राम विलास पासवान इतनी बार पाला बदल चुके हैं कि शायद उन्हें खुद भी याद नहीं होगा। फरवरी 2014 के तीसरे सप्ताह तक कोई सोच भी नहीं सकता था कि पासवान मोदी कैंप में चले जाएंगे। लेकिन गिरिराज सिंह जैसे नेताओं के विरोध के बावजूद बीजेपी ने उन्हें अपने खेमे में जगह दे दी थी।
प्रशांत किशोर के जेडीयू उपाध्यक्ष बनने के बाद पार्टी ने अपने दरवाजे कांग्रेस और दूसरे विपक्षी नेताओं के लिए खुले ही रखे हैं। प्रशांत किशोर कई मौकों पर कह भी चुके हैं कि उन्होंने तो चुनाव से पहले ही बीजेपी की पांच सीटें कम कर दीं।
2014 में बीजेपी ने 22 सीटें जीती थीं, लेकिन इस बार वह चुनाव सिर्फ 17 पर लड़ रही है। यह संख्या और कम ही होने की संभावना है क्योंकि सभी 17 सीटों पर तो बीजेपी को जीत नहीं हासिल होने वाली।
दावे और प्रति दावों का दौर जारी है। लेकिन हकीकत यह है कि बिहार में बीजेपी के नेता और कार्यकर्ता दोनों मायूस दिखने लगे हैं, क्योंकि जेडीयू और एलजेपी की तरह उनकी पार्टी के पास तो पाला बदलने की भी गुंजाइश नहीं है।
वैसे भी बीजेपी और जेडीयू के बीच खटपट अब सार्वजनिक मंचों पर दिखने लगी है। हाल ही में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के वंदे मातरम नारे पर नीतीश कुमार चुप रहे थे। पीएम ने कई बार नारा दोहराया, लेकिन नीतीश टस्स से मस्स नहीं नहीं हुए।
नीतीश के इस रवैये को राजनीतिक विश्लेषक एनडीए की 2009 की पंजाब रैली से जोड़ रहे हैं जब नीतीश ने काफी बेदिली से हाथ जोड़े थे।
देखा जाए तो नब्बे के दशक से ही नीतीश कुमार अपने राजनीतिक महत्वाकांक्षा के लिए पार्टियाँ तोड़ते-बनाते रहे हैं, पाला बदलते रहे हैं।
यह राजनीतिक महत्वाकांक्षा ही थी कि 10 साल तक लालू -राबड़ी शासन को जंगल राज बताने वाले नीतीश उनके साथ ही हो लिए।
भले ही बाद में उन्होंने राजद से नाता तोड़कर एनडीए के साथ मिल गए। वही पीएम नरेंद्र मोदी के साथ प्रोटोकॉल से बचने के लिए उन्होंने जीतनराम मांझी को बिहार का नया सीएम भी घोषित कर दिया।
लेकिन फिर नौटंकी करते हुए सीएम की कुर्सी पर विराजमान हो गए। उनका डीएनए ठीक हो गया। फिर से पीएम नरेंद्र मोदी के साथ आ गए ।
इन सब बातों के मद्देनजर नीतीश कुमार का अगला कदम क्या होगा, राजनीतिक पंडित भी इसका अनुमान नहीं लगा पा रहे हैं। लेकिन सवाल वही है क्या एनडीए बहुमत से दूर रहा तो पीएम पद की दौड़ में सीएम नीतीश कुमार शामिल होंगे या नहीं? जवाब 23 मई को ही मिलने की संभावना है।