“क्या है नालंदा का सियासी मिजाज, ज्ञान की धरती नालंदा सीएम नीतीश कुमार का गढ़ माना जाता है। बदले सियासी समीकरण में क्या कहता है नालंदा का सियासी थर्मामीटर? नीतीश सरकार में नम्बर तीन की हैसियत रखने वाले एक स्थानीय मंत्री को क्या मिल सकता है नालंदा लोकसभा का टिकट? या फिर नीतीश के करीबी एक राज्य सभा सदस्य बाजी मारेगा या फिर सीटींग-गेटिंग ही आधार रहेगा। उधर बदले राजनीतिक महौल में इस बार कौन होगा महागठबंधन का उम्मीदवार? नालंदा लोकसभा सीट पर एक्सपर्ट मीडिया न्यूज की पड़ताल ……”
बदले हुए सियासी समीकरण में नालंदा का महौल कुछ बदला हुआ नजर आ रहा है।पिछले बार सीएम नीतीश कुमार की पार्टी जदयू अकेले चुनाव मैदान में थी और उसने कड़े मुकाबले में एनडीए के घटक लोजपा से कड़ी टक्कर के बाद महज साढ़े नौ हजार वोट से ही जीत सकी थी।
लेकिन इस बार समीकरण बदल गया है। एनडीए के साथ जाने के बाद जदयू को नालंदा में कितनी मजबूती मिलेगी, इसका आंकलन करना बड़ा मुश्किल है। उसके सामने जातीवादी राजनीति की जमीन पर उत्पन्न गोलबंदी से निपटना इस बार एक नया संकट दिख रही है।
क्योंकि नालंदा के बारे में काफी लंबे अरसे से यह मिथक कायम है कि नालंदा मतलब नीतीश कुमार और नीतीश कुमार मतलब नालंदा। नालंदा सीएम नीतीश कुमार का गृह जिला है। कभी भाकपा (माले) का गढ़ नालंदा में नीतीश कुमार की तूती बोलती है। लेकिन नीतीश कुमार की स्वजातीय आधार पहले सा ही सब पर भारी रहेगी, यह भी देखना बड़ा दिलचस्प होगा।
विपक्ष भी हमेशा यही आरोप लगाता आ रहा है कि उन्हें नालंदा के आलावे कुछ दिखाई नहीं देता है, जबकि परिस्थितियां कुछ और दिखती रही है। सच पुछिए तो विपक्ष की नालंदा को लेकर उदासीनता और पूर्वाग्रह ही यहां नीतीश कुमार को सबलता प्रदान किए हुए है।
यह सही है कि पिछले दो दशक से नालंदा की राजनीति की दशा और दिशा नीतीश कुमार ही तय करते आ रहे हैं। लेकिन यह चुनाव उनकी कौन सी नई छवि गढ़ेगी, एक बड़ा सबाल उभरकर सामने आया है।
1996 से राजनीति का पहिया नीतीश के हाथों ही घूम रहा है। नालंदा में मतदाता उम्मीदवार को नहीं सीधे नीतीश कुमार को मतदान करता है। सीएम नीतीश कुमार को जब बाढ़ ने 2004 में नकार दिया था, तब नालंदा ने ही उनके स्वजातीय वोटरों की बहुलता ने ही इज्जत बचाई थी।
कुर्मी बाहुल्लय नालंदा कभी पटना लोकसभा का अंग हुआ करता था ।तब यहां से पहले सांसद के रूप में कैलाशपति सिन्हा निर्वाचित हुए थे।
1962 में में यहां से कांग्रेस के सिदेश्वर प्रसाद चुनाव जीतने में सफल रहे। वे तीन बार नालंदा से सांसद चुने गए। जबकि भाकपा माले ने भी कभी नालंदा में अपना वर्चस्व दिखाया था। 1996 से 1999 तक नालंदा से पूर्व रक्षामंत्री जार्ज फर्नांडीस भी लोकसभा पहुँच चुके हैं।
सीएम नीतीश कुमार बाढ़ लोकसभा से चुनाव जीतते रहे थे। लेकिन जब उन्हें आभास हुआ कि वे इस बार बाढ़ से हार जाएंगे तो उन्होंने 2004 का लोकसभा चुनाव बाढ़ के अलावा नालंदा से भी लड़ा। बाढ़ से जैसी आशंका थी वो सच साबित हुई। नीतीश कुमार को बाढ़ से पराजय का सामना करना पड़ा। लेकिन नालंदा ने उनकी लाज बचा ली थी।
नालंदा के सियासत ने उन्हें और बुलंदी पर ले गई। लोकसभा सांसद रहते हुए उन्हें बिहार का सीएम बनने का मौका मिला और उन्होंने नालंदा से इस्तीफा देकर पूर्व सांसद रामस्वरूप प्रसाद को उपचुनाव में टिकट दिया।जहां उन्हें जीत नसीब हुआ।
लेकिन 2005 में इस्लामपुर से अपने पुत्र के टिकट की चाहत रखने वाले रामस्वरूप प्रसाद को सीएम नीतीश का वरदान नहीं मिल सका और उन्होंने पार्टी लाइन से हटकर तत्कालीन यूपीए सरकार में एटमी डील के पक्ष में वोट डालकर सुर्खियों में आए थे। यही वजह रहा कि उन्हें टिकट से बेदखल कर सीएम नीतीश ने कौशलेन्द्र कुमार को टिकट दिया था।
2009 के लोकसभा चुनाव में सीएम नीतीश कुमार ने इस्लामपुर से अपने एक साधारण कार्यकर्ता कौशलेन्द्र कुमार को टिकट देकर सभी को सकते में ला दिया। लेकिन उनकी जीत ने सीएम नीतीश की साख और बढ़ा दी।
एनडीए से हटने के बाद 2014 का चुनाव उन्होंने अकेले लड़ा। फिर से उन्होंने सांसद कौशलेन्द्र कुमार पर भरोसा जताया। 2014 का लोकसभा चुनाव परिणाम जदयू के लिए काफी कांटे भरा था।
इस कड़े संघर्ष में कौशलेन्द्र कुमार ने लगभग साढ़े नौ हजार वोट से लोजपा के डॉ सत्यानंद शर्मा को हराया। हालांकि नीजि तौर पर श्री कुमार का खुद का कोई वजूद नहीं है। अब तक वे नीतीश कुमार की खड़ऊं ही माने जाते रहे हैं। खुद की कोई अलग छवि नहीं बनाने में विफल रहे हैं।
लेकिन इस बार सियासी समीकरण बदल गए है। सीएम नीतीश कुमार की जदयू फिर से एनडीए में शामिल हो गई है। ऐसे में नालंदा से एनडीए के घटक लोजपा के डॉ सत्यानंद शर्मा मैदान से बाहर है।
इससे जदयू की राह नालंदा में आसान हो गई है। यह सीधे तौर पर नहीं कहा जा सकता है। क्योंकि महागठबंधन भी बदली परिस्थितियों में यहां कड़ी चुनौती दे सकती है।
जदयू से तीसरी बार टिकट के दावेदार में सांसद कौशलेन्द्र कुमार दिख रहे हैं। लेकिन वे सीएम नीतीश की कृपा के बाबजूद हैट्रिक बनाने में सफल होंगे, कहना टेढ़ी खीर है। फिलहाल उनकी मुश्किलें जदयू से टिकट की लाइन में लगे कई दिग्गज हैं।
लेकिन यह माना जा रहा है कि सीएम नीतीश कुमार नालंदा लोकसभा चुनाव को लेकर उम्मीदवार चयन में हर बार की तरह कुछ नया धमाका जरूर करेंगे। लेकिन अब यहां पहले सा आलम नहीं दिख रहा है, जैसा कि पहले रहा है। नीतीश कुमार की नीति और कार्यशैली को लेकर उनके गांव जेवार में ही गंभीर सबाल उठ रहे हैं।
दूसरी तरफ महागठबंधन खेमे से यहां राजद और कांग्रेस के किसी दावेदार के पास कुछ करने की संभावना नहीं दिख रही हो, लेकिन उनकी रालोसपा, हम,वाम जैसी पार्टियों के साथ एकजुटता निर्णायक चुनौती दे सकता है। क्योंकि सबका अपना अलग-अलग जातिगत जनाधार है। पिछले लोकसभा चुनाव में कांग्रेस से उम्मीदवार रहे पूर्व डीजीपी आशीष रंजन को एक लाख से ज्यादा वोट मिला था।
महागठबंधन के पास भले ही स्थानीय स्तर का कोई दमदार चेहरा न दिख रहा हो, लेकिन उसके पास एक मजबूत जातीय समीकरण तो हैं ही। महागठबंधन के कुशवाहा- मांझी- तेजस्वी की तिकड़ी उलटफेर करने में सक्षम दिख रहे हैं।
वैसे राजनीति गलियारे में चर्चा है कि पूर्व शिक्षा मंत्री वृशिण पटेल को महागठबंधपन से उतारा जा सकता है। अगर कांग्रेस की झोली में सीट आई तो जिलाध्यक्ष दिलीप कुमार का दावा बन सकता है। इनके अलावा पूर्व प्रदेश प्रतिनिधि सुनील कुमार सिन्हा का नाम शामिल है।
वही राजद अगर यहां से अपना उम्मीदवार उतारता है तो प्रमुख नामों में हिलसा से विधायक और प्रवक्ता शक्ति यादव शामिल है। इनके अलावा युवा राजद के प्रदेश महासचिव सुनील कुमार यादव के नाम के भी चर्चे है।
कभी ‘कुर्मी महासम्मेलन’ का आयोजन कर सुर्खियों में आएं पूर्व विधायक सतीश कुमार भी अपने नई पार्टी जलोपा के साथ नालंदा में मजबूत जनाधार बनाने की कोशिश कर रहे हैं।
लोकसभा चुनाव जैसे-जैसे नजदीक आएगा, उम्मीदवार के नाम की घोषणा होगी, तस्वीर साफ होती जाएगी कि सीएम नीतीश का ‘अभेध किला’ नालंदा कोई भेद पाएगा या नहीं?