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युगांत लालू शैलीः एक बार ही पैदा होते हैं रघुवंश बाबू जैसे लोग

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वे व्यक्तित्व, वे जिंदादिली, विरोधी को अपनी बातों से बगले झांकने पर मजबूर कर देने वाले सब को साथ लेकर चलने की भावना रखते थे। वे सज्जनता, वे महानता, वह शिक्षा शायद निकट भविष्य में देखने को नहीं मिलेगी। उनके जैसे नेता सदियों में एक बार पैदा होते हैं….

पटना (एक्सपर्ट मीडिया न्यूज़ नेटवर्क ब्यूरो)। बिहार की राजनीति में साढ़े चार दशक की कठिन यात्रा का एक पथिक चला गया। अभी कुछ दिन पूर्व ही अपने दल में एक बाहुबली को शामिल होने को लेकर उनकी नाराजगी चल रही थी। जिस वजह से पहले उन्होंने राष्ट्रीय उपाध्यक्ष पद से इस्तीफा दिया फिर पार्टी से।

Raghuvansh Prasad Singh 5लेकिन किसे पता था, वे दुनिया से इस्तीफा देकर चले जाएगें। बिहार के सियासत का एक कदावर नेता रघुवंश प्रसाद सिंह का निधन राजनीति के एक अध्याय का अंत है। रघुवंश प्रसाद सिंह का जाना बिहार की राजनीति में वह शून्यता है, जिसकी भरपाई दशकों तक संभव नहीं है।

रघुवंश प्रसाद सिंह बिहार के दूसरे लालू प्रसाद यादव के तौर पर जाने जाते थें। उनके अंदर भी लालू शैली कूट-कूटकर भरी हुई थी। वही हाव भाव, प्रेम-गुस्सा और अंदाज।वही वाक पटूता, बिना लाग लपेट के अपनी बात कह देना। संसद में उनको सुनने का इंतजार सांसद ही नहीं आम जनता भी बेसब्री से करती थी। लगता लालू प्रसाद यादव ही बोल रहे हैं।

उनके निधन से लालू शैली युग का अंत हो गया।जेपी आंदोलन का एक सच्चा सिपाही आज दुनिया से कूच कर गया। बिहार की राजनीति में बहुत कम नेता हुए हैं, जिन्हें आप नेता कह सकते हैं। राजद में सबसे ज्यादा पढ़े लिखे एक राजनेता थें। जिनके लिए लालू प्रसाद यादव के दिल में भी आदर और सम्मान रहता था।

गणित के प्रोफेसर रहे रघुवंश प्रसाद सिंह समाजवाद का वह चेहरा थे। जिन पर कभी भ्रष्टाचार का आरोप नहीं लगा। राजद में लालू प्रसाद यादव का दाहिना हाथ रहे रघुवंश प्रसाद सिंह ने ज्यादातर मौकों पर दिल्ली की राजनीति में राजद का प्रतिनिधित्व करते रहे।

जब चारा घोटाला में लालू यादव जेल गये तो एक सच्चे सिपहसालार के रूप में उनके परिवार और पार्टी के साथ खड़े रहे। यूपीए सरकार में ग्रामीण विकास मंत्री रहे रघुवंश प्रसाद सिंह ने देश में मनरेगा की शुरुआत की थी।

रघुवंश प्रसाद सिंह यूपीए एक में ग्रामीण विकास मंत्री थे और मनरेगा क़ानून का असली शिल्पकार उन्हें ही माना जाता है। देश में बेरोज़गारों को साल में 100 दिन रोज़गार मुहैया कराने वाले इस क़ानून को ऐतिहासिक माना गया था। कहा जाता है कि यूपीए दो को जब फिर से 2009 में जीत मिली तो उसमें मनरेगा की अहम भूमिका थी। 

रघुवंश प्रसाद सिंह हमेशा अपनी सादगी और गवंई अंदाज के लिए जाने जाते थें। सादगी ऐसी कि उनमें डा राजेन्द्र प्रसाद और लालबहादुर शास्त्री नजर आते। कभी कभी रात में भुंजा फांक कर ही सो जाते। 

जब देश में छात्र आंदोलन हो रहा था तब बिहार के सीतामढ़ी में गोयनका कालेज में गणित के अध्यापक रहें रघुवंश प्रसाद सिंह ने छात्र आंदोलन को एक धार रूप देने का काम कर रहे थे। सोशलिस्ट पार्टी के जिला सचिव रहे रघुवंश प्रसाद को पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया।

 

तीन महीने जेल में रहे। जेल से बाहर आने पर उनके मकान मालिक ने उन्हें घर खाली करने का फरमान सुना दिया। जहाँ से वह कालेज के हास्टल आ गये। उनके पास उस समय कुछ किताबें और एक जोड़ी धोती कुर्ता था। उस समय उनका वेतन इतना कम था कि खुद गुजारा नही हो पाता था। 

वर्ष 1977 में विधानसभा चुनाव के दौरान सीतामढ़ी के बेलसंड सीट से चुनाव लड़े और जीत भी हासिल की। उनकी यह जीत का सिलसिला 1985 तक चलता रहा।

वर्ष 1996 में लालू यादव ने उन्हें वैशाली से लोकसभा चुनाव लड़ने का ऑफर दिया। वे चुनाव लड़े और जीतकर पटना से दिल्ली चले गए।

जब केंद्र में देवगौड़ा पीएम बनें उनके कैबिनेट में वे मंत्री भी बने। जब देवगौड़ा के बाद इंद्र कुमार गुजराल पीएम बनें, तब रघुवंश प्रसाद सिंह एक बार फिर से मंत्री बनने का सौभाग्य मिला। वे केंद्रीय खाध और उपभोक्ता मंत्री बनें। 

वर्ष 1999 में जब लालू प्रसाद यादव लोकसभा चुनाव हार गये, तब रघुवंश प्रसाद सिंह को दिल्ली में राष्ट्रीय जनता दल के संसदीय दल का अध्यक्ष बनाया गया। रघुवंश प्रसाद सिंह वैशाली से लगातार पांच बार लोकसभा सदस्य रहे, लेकिन 2014 में उन्हें हार का सामना करना पड़ा। इस हार से वह हिल से गये थे।

कहते हैं कि जब सांसद थे तो वह हर शुक्रवार अपने लोगों से जनता से मिलने निकल जाते थे। मकर संक्रांति के मौके पर उनके द्वारा दिया गया चूड़ा दही का भोज यादगार रहता था। वे हमेशा लालू प्रसाद यादव के मुश्किल समय में उनके साथ खड़ा रहते थे।

जब एक समय शिवानन्द तिवारी और श्याम रजक जैसे दिग्गज लालू प्रसाद को छोड़कर नीतीश कुमार के साथ हो लिए तब भी रघुवंश प्रसाद डटे रहे। कहने को रघुवंश प्रसाद सिंह अगड़ी जाति से आते थें लेकिन कभी उन्होंने जातिवाद हावी होने नहीं दिया। 

जिस वैशाली को उन्होंने अपना कर्मभूमि बनाया, सर्वत्र जनता के लिए न्योछावर कर दिया। उसी जनता ने उन्हें दो बार नकार दिया। जनता के इस रवैये से वह हमेशा दुखी रहते थे।

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