
रांची (एक्सपर्ट मीडिया न्यूज / मुकेश भारतीय)। झारखंड की राजधानी रांची में जिला उपायुक्त मंजूनाथ भजंत्री द्वारा आयोजित साप्ताहिक जनता दरबार अब न केवल फरियादियों की शिकायतों का समाधान केंद्र बन चुका है, बल्कि सोशल मीडिया पर ‘वायरल’ कंटेंट का स्रोत भी। लेकिन इस प्रक्रिया में विकलांग, पीड़ित महिलाओं, बच्चों और लाचार लोगों की फोटो-वीडियो को आधिकारिक एक्स (पूर्व ट्विटर) हैंडल पर बिना सहमति के सार्वजनिक करना कितना उचित है? यह सवाल अब कानूनी, नैतिक और सामाजिक बहस का केंद्र बन गया है।
यह जनता दरबार, जो हर सोमवार को रांची के डिप्टी कमिश्नर कार्यालय में आयोजित होता है, उसका उद्देश्य आम जनता की समस्याओं का त्वरित निपटारा करना है। डीसी भजंत्री ने इसे ‘जन-केंद्रित शासन’ का प्रतीक बनाया है, जहां भूमि विवाद से लेकर स्वास्थ्य सेवाओं तक की शिकायतें सुनी जाती हैं।
आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार पिछले एक वर्ष में जनता दरबार में 5,000 से अधिक फरियादियां दर्ज की गईं, जिनमें से 80 प्रतिशत का समाधान स्थानीय स्तर पर ही हो गया। लेकिन समस्या तब शुरू होती है, जब इन आयोजनों की फोटो और वीडियो एक्स हैंडल @RanchiDC पर पोस्ट की जाती हैं। इन पोस्ट्स में अक्सर फरियादी विशेषकर कमजोर वर्ग के पीड़ितों के चेहरे स्पष्ट दिखाए जाते हैं, उनकी पीड़ा को ‘हाइलाइट’ करते हुए।
उदाहरण के लिए, 15 दिसंबर को पोस्ट किया गया एक वीडियो, जिसमें एक विकलांग बुजुर्ग महिला अपनी पेंशन संबंधी समस्या बयान कर रही हैं, उसने 10 हजार से अधिक व्यूज हासिल किए। लेकिन क्या यह ‘पारदर्शिता’ गोपनीयता के मौलिक अधिकार का उल्लंघन नहीं है?
कानूनी विशेषज्ञों का मानना है कि यह प्रथा भारत के संविधान के अनुच्छेद 21, जो जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता की रक्षा करता है, उसका स्पष्ट उल्लंघन है। सुप्रीम कोर्ट के ऐतिहासिक पुट्टास्वामी फैसले (2017) ने गोपनीयता को मौलिक अधिकार घोषित किया। जिसमें कहा गया कि किसी व्यक्ति की निजी जानकारी का अनधिकृत प्रसार उसकी गरिमा को ठेस पहुंचाता है।
मानवाधिकार वकील रीता सिंह बताती हैं कि जनता दरबार सार्वजनिक आयोजन है, लेकिन फरियादी सहमति के बिना अपनी पीड़ा को सोशल मीडिया पर प्रदर्शित नहीं होने देते। विशेषकर महिलाओं और बच्चों के मामले में गोपनीयता उल्लंघन और डिजिटल मीडिया एथिक्स कोड 2021 लागू हो सकते हैं। प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया के दिशानिर्देश भी पीड़ितों की पहचान छिपाने की सलाह देते हैं।
हाल के एक घटनाक्रम ने इस बहस को और तीव्र कर दिया है। 10 दिसंबर को जनता दरबार में एक पीड़ित महिला सहायता मांगने आई थीं, उसकी फोटो एक्स पर पोस्ट की गई। अगले ही दिन सोशल मीडिया पर उनकी पहचान उजागर होने से उन्हें स्थानीय स्तर पर अपमानजनक कमेंट्स और धमकियां मिलने लगीं।
महिला ने अपनी पहचान उजागर न करने की शर्त पर एक्सपर्ट मीडिया न्यूज को बताया कि मैं मदद मांगने आई थी, न कि अपनी जिंदगी को सबके सामने बेनकाब करने। अब मेरी फैमिली को खतरा महसूस हो रहा है। यह मामला झारखंड राज्य महिला आयोग का ध्यान आकर्षित कर चुका है, जो जल्द ही इस पर जांच की सिफारिश कर सकता है।
आलोचकों का तर्क है कि पारदर्शिता के नाम पर प्रचार अधिक हो रहा है। सामाजिक कार्यकर्ता सुनीता कुमारी, जो विकलांग अधिकारों पर काम करती हैं, वह कहती हैं कि यह कमजोर लोगों को ‘प्रोपगैंडा टूल’ बना देता है। यूनीसेफ जैसे अंतर्राष्ट्रीय संगठनों के दिशानिर्देश भी बच्चों और विकलांगों की पहचान छिपाने पर जोर देते हैं। रांची में ऐसे 20 से अधिक मामले सामने आ चुके हैं, जहां फोटो पोस्ट के बाद फरियादी हिचकिचाने लगे।
झारखंड में यह समस्या नई नहीं है। देवघर और बोकारो जैसे जिलों में भी जनता दरबार की फोटो पोस्टिंग पर इसी तरह की शिकायतें आई हैं। एक हालिया सर्वे (झारखंड हाई कोर्ट द्वारा निर्देशित) में पाया गया कि 65 प्रतिशत फरियादी गोपनीयता का उल्लंघन होने पर भविष्य में शिकायत दर्ज करने से कतराते हैं। विशेषज्ञ सुझाव देते हैं कि सरकारी हैंडल्स पर ‘सहमति फॉर्म’ अनिवार्य हो, चेहरे ब्लर किए जाएं या केवल सामान्य आंकड़े (जैसे ’50 शिकायतें सुलझी’) शेयर किए जाएं।
बहरहाल यह मुद्दा न केवल रांची, बल्कि पूरे झारखंड के प्रशासनिक तंत्र के लिए एक सबक है। क्या डिजिटल युग में ‘ओपन गवर्नेंस’ गोपनीयता की कीमत पर होगा या संतुलन की तलाश होगी? एक्सपर्ट मीडिया न्यूज इस पर नजर रखे हुए है। यदि आपका कोई अनुभव या शिकायत है तो हमें संपर्क करें।









