पटना (एक्सपर्ट मीडिया न्यूज)। बिहार की सियासी जमीन पर धूल उड़ाने वाली जंग अब लखीसराय सीट पर सिमट चुकी है, जहां भाजपा के ‘फायर ब्रांड’ नेता और उपमुख्यमंत्री विजय कुमार सिन्हा अपनी चौथी लगातार जीत की उम्मीदों के साथ मैदान में उतर चुके हैं।भूमिहार बहुल इस सीट को भाजपा का किला माना जाता है, लेकिन इस बार हवा में सत्ता विरोधी लहर (एंटी-इनकंबेंसी) का जबरदस्त तूफान है।
क्या सिन्हा अपनी ‘हैट्रिक’ को ‘फोर ट्रिक’ में बदल पाएंगे या महागठबंधन की एकजुट ताकत उनकी राह में कांटों का जाल बिछा देगी? चुनावी रणनीतिकारों की नजरें इसी मुकाबले पर टिकी हैं, जो न सिर्फ लखीसराय बल्कि पूरे बिहार की सियासत को नया मोड़ दे सकता है।
विजय कुमार सिन्हा को बिहार में भाजपा का ‘सिपहसालार’ कहा जाता है। एक ऐसा योद्धा जो सदन में अपनी तीखी बहसों से विपक्ष को कटघरे में खड़ा कर देता है। 2014 और 2019 के विधानसभा चुनावों में उन्होंने लखीसराय से शानदार जीत हासिल की और 2020 में भी महागठबंधन के तीर को भेदते हुए अपनी हैट्रिक लगाई। लेकिन 2025 के इस चुनाव में सिन्हा का इम्तिहान पहले चरण से ही शुरू हो गया है।
सत्ता के पांच सालों में भ्रष्टाचार के आरोप, विकास कार्यों में देरी और किसानों की बढ़ती नाराजगी ने विपक्ष को मजबूत हथियार थमा दिया है। सिन्हा खुद मानते हैं कि ‘एंटी-इनकंबेंसी’ का असर है और इसके खिलाफ वे गांव-गांव जाकर जनसभाओं का आयोजन कर रहे हैं। उनकी बातों में अब पहले जैसी आक्रामकता कम नजर आ रही है।
इस बार सिन्हा के सामने खड़े हैं कांग्रेस के प्रत्याशी अमरेश कुमार अनीश, जो बड़हिया के एक साधारण परिवार से ताल्लुक रखते हैं। लेकिन सियासी जंग के मैदान में कोई नौसिखिया नहीं। अनीश ने 2020 में लखीसराय से ही चुनाव लड़ा था, जहां वे महज कुछ हजार वोटों से हार गए थे। उस हार का राज था भाजपा के वोटों का बंटवारा।
पूर्व विधायक फुलैना सिंह को 10,938 वोट और निर्दलीय उम्मीदवार सुजीत कुमार को 11,570 वोट मिले थे, जिसने अनीश की राह कठिन बना दी। लेकिन इस बार का खेल बिल्कुल उलट है। फुलैना सिंह और सुजीत कुमार दोनों ही अब अनीश के कंधे से कंधा मिलाकर खड़े हैं।
अनीश ने एक्सपर्ट मीडिया न्यूज से खास बातचीत में कहा कि हमारी लड़ाई सत्ता के अहंकार के खिलाफ है। सिन्हा जी ने वादे तो किए, लेकिन पूरा कौन सा? अब समय आ गया है बदलाव का। यह एकजुटता महागठबंधन की सबसे बड़ी ताकत साबित हो रही है।
लखीसराय के चाय-होटलों से लेकर खेतों तक, चर्चा यही है कि विपक्ष के सभी धड़े कांग्रेस, आरजेडी और अन्य छोटे सहयोगी सिन्हा को हराने के लिए एकजुट हो चुके हैं। ग्रामीण इलाकों में अनीश की सभाओं में भीड़ उमड़ रही है, जहां वे भूमिहारों के अलावा यादव, मुस्लिम और दलित वोटबैंक को निशाना बना रहे हैं।
पिछले चुनाव में वोट बंट गए थे, लेकिन अब सब एक हैं। सिन्हा की हार से भाजपा का किला ढह सकता है। वहीं, भाजपा की ओर से सिन्हा के समर्थक दावा कर रहे हैं कि केंद्र की योजनाओं जैसे पीएम किसान सम्मान निधि और आयुष्मान भारत का फायदा लखीसराय को मिला है, जो मतदाताओं को याद दिलाया जा रहा है।
लखीसराय की यह सीट न सिर्फ सिन्हा के व्यक्तिगत कद को परखेगी, बल्कि भाजपा की बिहार इकाई की मजबूती को भी आइना दिखाएगी। अगर सिन्हा जीत जाते हैं, तो उनका कद राष्ट्रीय स्तर पर और ऊंचा होगा। लेकिन हार का मतलब? यह भाजपा के लिए झटका होगा, खासकर जब नीतीश कुमार की जेडीयू के साथ गठबंधन पहले ही कमजोर पड़ चुका है।
चुनाव आयोग के आंकड़ों के मुताबिक लखीसराय में कुल 2.5 लाख से ज्यादा मतदाता हैं, जिनमें 40% से अधिक भूमिहार समुदाय के हैं। लेकिन इस बार अनीश का फोकस ‘परिवर्तन’ पर है बेरोजगारी, बाढ़ प्रभावित इलाकों का विकास और महिलाओं की सुरक्षा जैसे मुद्दों पर।
जैसे-जैसे वोटिंग की तारीख नजदीक आ रही है, लखीसराय के बाजारों में सियासी नारों की गूंज तेज हो रही है। क्या सिन्हा अपनी चतुराई से तूफान को शांत कर पाएंगे या अनीश की एकजुटता इतिहास रच देगी? बिहार की इस छोटी सी सीट से निकलने वाला फैसला पूरे राज्य की सियासत को हिला सकता है।









