एक्सपर्ट मीडिया न्यूज नेटवर्क डेस्क। बिहार के सीएम नीतीश कुमार का सुशासन ज्यों-ज्यों दरख्त बनते जा रहा है, त्यों-त्यों उनके नीचे के अफसरों की अब अंतरात्मा और मानवता भी मरते जा रही है। या फिर वे अफसर के योग्य ही नहीं है। उन्हें पद और दायित्व का सही प्रशिक्षण ही नहीं मिला है।
श्री चंद्रमणि कुमार राजकीय मध्य विद्यालय धनरुआ में वर्ष 2014 से बतौर पंचायत शिक्षक पदास्थापित हैं। वे दोनों पैर से दिव्यांग हैं। उनकी दिव्यांगता 75 फीसदी है। वे बिना सहारा नहीं चल सकते। वे थ्री टायर साईकल (व्हीलचेयर ट्राय साईकिल) से पठन-पाठन कार्य करने स्कूल आते-जाते हैं। इस दौरान भी उन्हें दूसरों का सहारा लेना पड़ता है।
श्री चन्द्रमणि कुमार विद्यालय के बगल में ही किराए के एक मकान लेकर रहते हैं और ट्राई साइकिल के सहारे नियमित रुप से विद्यालय आते-जाते हैं। वे अपना दैनिक नित्य दैनिक कार्य भी किसी दूसरे व्यक्ति के सहायता के बिना नहीं कर सकते।
इसके बावजूद भी स्थानीय प्रशासन ने न जाने किस पूर्व के प्रतिशोध की भावना या लालचवश उन्हें प्रताड़ित करने के लिए निर्वाचन कार्य का पत्र निर्गत कर दिया। जिससे मुक्त मुक्त करने लिए उन्होंने अपने विद्यालय के प्रधानाध्यापक, धनरुआ प्रखंड शिक्षा पदाधिकारी, धनरुआ प्रखंड विकास पदाधिकारी को व्हाट्सएप एवं फोन कॉल के जरिए आग्रह किया कि उन्हें सिर्फ परेशान करने की नियत से राजधानी पटना अवस्थित कृष्ण मेमोरियल हॉल जाकर वहाँ मेडिकल टीम के पास जाकर नाम कटवाने का आदेश प्रदान दिया गया है। जिसमें वे शारीरिक एवं आर्थिक दोनों रुप से फिलहाल असमर्थ हैं।
इस पर प्रखंड शिक्षा प्रसार पदाधिकारी नवल किशोर सिंह ने टो टूक कहा कि किसी भी हाल में पटना कृष्ण मेमोरियल हॉल जाकर नाम कटवाना ही पड़ेगा, अन्यथा चुनाव अधिनियम के तहत कड़ी कार्रवाई की जाएगी।
फिर बेचारा दिव्यांग शिक्षक मरता क्या न करता। 4 हजार रुपए में एक वाहन किराए पर ली। साथ में दो अतिरिक्त दो आदमी पैसे देकर साथ लिए और किसी तरह पटना पहुंच कर अपना नाम कटवाया। हांलाकि वहाँ की मेडिकल टीम के लोग भी इस दिव्यांग शिक्षक की परिस्थिति देखकर आश्चर्य में पड़ गए।
दिव्यांग शिक्षक बताते हैं कि इस तरह से मुझे हर बार चुनाव ड्यूटी देकर रुपया खर्च करवाया जाता है। यह जानते हुए भी कि वे चुनाव ड्यूटी करने में सक्षम नहीं नहीं हूं। प्रमाण के तौर पर पटना सिविल सर्जन का बना हुआ दिव्यांग प्रमाण पत्र भी संलग्न करते हैं। फिर भी उन्हें अनावश्यक रूप से हर चुनाव में मेडिकल टीम के पास भेजा जाता है।
वे सवाल उठाते हैं कि एक तरफ चुनाव आयोग दिव्यांगों की सहायता के लिए हर बूथ पर रैंप एवं सहायक की व्यवस्था करता है तो वहीं दूसरी तरफ एक दिव्यांग शिक्षक को स्थानीय प्रशासन के इशारे पर चुनाव ड्यूटी देकर मानसिक-शारीरिक-आर्थिक तौर पर परेशान किया जाता है।
आखिर यह कैसी विडंबना है कि सारे नियम कानून को ताक पर रखकर 75% दिव्यांग को चुनाव ड्यूटी का पत्र निर्गत कर अनावश्यक रूप से प्रताड़ित व खर्च करने के लिए विवश किया गया? वे काफी तनाव में भयभीत थे कि कहीं चुनाव आयोग उन पर कार्रवाई न कर दे इसलिए वे रिजर्व वाहन एवं दो आदमी की सहायता लेकर नाम कटवाने के लिए पटना गए।
सबसे अहम सवाल कि जिस शिक्षक की नियुक्ति ही पचहत्तर फीसदी दिव्यांगता के आधार पर हुई हो। उसे चुनाव ड्यूटी देकर स्थानीय प्रशासन के नुमाइंदे अपने पद और दायित्व का दुरुपयोग कर क्या साबित करना चाहते हैं? क्या ऐसे अफसरों को अपने शिक्षकों की स्थिति पर भी रहम नहीं आता है, जबकि उन्हें सारी स्थिति का पता हो?
यही नहीं, प्रखंड शिक्षा प्रसार पदाधिकारी की लापरवाही कहिए या लालच से इस दिव्यांग शिक्षक के बकाए एक बड़ी राशि का भुगतान भी नहीं हो सका है। यह अफसर लाख अनुनय-विनय के बाबजूद दिव्यांग शिक्षक बकाए का बिल बनाकर जिला शिक्षा कार्यलाय द्वारा मांगे जाने के बावजूद को नहीं भेज रहा हैं।