बिहार मतदाता सूची पुनरीक्षण: सुप्रीम कोर्ट में गूंजा लोकतंत्र का सवाल

नई दिल्ली (एक्सपर्ट मीडिया न्यूज)। बिहार में आगामी विधानसभा चुनाव 2025 से पहले मतदाता सूची के विशेष गहन पुनरीक्षण (Special Intensive Revision – SIR) अभियान को लेकर सुप्रीम कोर्ट में आज 10 जुलाई 2025 को एक महत्वपूर्ण सुनवाई हुई। इस सुनवाई ने न केवल बिहार की सियासत को गरमाया, बल्कि देश भर में लोकतांत्रिक प्रक्रिया और मतदाता अधिकारों पर एक नई बहस को जन्म दिया।
जस्टिस सुधांशु धूलिया और जस्टिस जॉय माल्य बागची की खंडपीठ ने इस मामले में याचिकाकर्ताओं और चुनाव आयोग की दलीलों को सुना, जिसमें कई गंभीर सवाल उठाए गए।
बता दें कि भारत निर्वाचन आयोग (ECI) ने 24 जून 2025 को बिहार में मतदाता सूची के विशेष गहन पुनरीक्षण अभियान की शुरुआत की थी। इस अभियान का उद्देश्य मतदाता सूची को शुद्ध करना, डुप्लिकेट प्रविष्टियों और अपात्र मतदाताओं को हटाना, साथ ही सभी पात्र नागरिकों को शामिल करना था।
आयोग ने इसके लिए 11 दस्तावेजों की सूची जारी की। जिसमें मतदाताओं से जन्म प्रमाण पत्र, पासपोर्ट या शैक्षिक प्रमाणपत्र जैसे दस्तावेज मांगकर उनकी नागरिकता और पात्रता की पुष्टि करने को कहा गया। जुलाई 1987 को जन्म तिथि की कट-ऑफ तारीख तय की गई थी।
हालांकि, इस प्रक्रिया पर विपक्षी दलों और सामाजिक संगठनों ने तीखी आपत्ति जताई। एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (ADR), राष्ट्रीय जनता दल (RJD), कांग्रेस और सात अन्य राजनीतिक दलों सहित कई याचिकाकर्ताओं ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर कर इस अभियान को असंवैधानिक और भेदभावपूर्ण करार दिया।
याचिकाकर्ताओं का दावा था कि यह प्रक्रिया गरीब, दलित, अल्पसंख्यक, प्रवासी और महिलाओं के मताधिकार को प्रभावित कर सकती है, जिससे लाखों लोग मतदान से वंचित हो सकते हैं।
आज की सुनवाई में सुप्रीम कोर्ट की खंडपीठ ने याचिकाकर्ताओं और चुनाव आयोग दोनों की दलीलों पर गंभीरता से विचार किया। सुनवाई की शुरुआत में वरिष्ठ अधिवक्ता कपिल सिब्बल, अभिषेक मनु सिंघवी, गोपाल शंकरनारायण और शादान फरासत ने याचिकाकर्ताओं की ओर से दमदार तर्क पेश किए। दूसरी ओर चुनाव आयोग की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता राकेश द्विवेदी, केके वेणुगोपाल, और मनिंदर सिंह ने पक्ष रखा।
संवैधानिक उल्लंघन: याचिकाकर्ताओं ने दावा किया कि यह अभियान संविधान के अनुच्छेद 14 (समानता का अधिकार), 19 (अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता), 21 (जीवन और स्वतंत्रता का अधिकार), और 326 (वयस्क मताधिकार) का उल्लंघन करता है। उन्होंने कहा कि जन्म प्रमाण पत्र जैसे दस्तावेजों की मांग गरीब और हाशिए पर रहने वाले समुदायों के लिए अव्यवहारिक है, क्योंकि उनके पास ऐसे दस्तावेज अक्सर उपलब्ध नहीं होते।
भेदभावपूर्ण प्रक्रिया: गोपाल शंकरनारायण ने तर्क दिया कि यह प्रक्रिया नियमों को दरकिनार कर शुरू की गई है। उन्होंने कहा कि 1 जनवरी 2003 के बाद मतदाता सूची में शामिल लोगों से दस्तावेज मांगना भेदभावपूर्ण है और यह प्रक्रिया मनमानी है।
लाखों मतदाताओं पर खतरा: याचिकाकर्ताओं ने दावा किया कि इस प्रक्रिया के कारण लाखों मतदाताओं के नाम मतदाता सूची से हटाए जा सकते हैं, खासकर उन महिलाओं और गरीबों के, जो दस्तावेज जमा करने में असमर्थ हैं। यह प्रक्रिया मतदान के अधिकार को कमजोर करती है।
समय की कमी: कपिल सिब्बल ने जोर देकर कहा कि इतने कम समय में, यानी 25 जुलाई 2025 तक, लगभग 7.9 करोड़ मतदाताओं की गणना और सत्यापन करना असंभव है। उन्होंने इसे जल्दबाजी में उठाया गया कदम करार दिया।
राजनीतिक मंशा: विपक्षी दलों, विशेषकर RJD और कांग्रेस, ने आरोप लगाया कि यह अभियान सत्तारूढ़ दल के इशारे पर शुरू किया गया है ताकि विपक्ष के वोट बैंक को कमजोर किया जा सके।
वहीं चुनाव आयोग ने अपनी दलील में कहा कि यह अभियान 22 साल बाद जरूरी है ताकि मतदाता सूची से डुप्लिकेट प्रविष्टियां, अपात्र मतदाता और गैर-निवासी व्यक्तियों को हटाया जा सके। आयोग ने निम्नलिखित बिंदुओं पर जोर दिया-
पारदर्शिता और निष्पक्षता: आयोग ने दावा किया कि यह प्रक्रिया पूरी तरह पारदर्शी है। 57.48% मतदाताओं (4.53 करोड़) ने 15 दिनों में ही गणना फॉर्म जमा कर दिए हैं, जो प्रक्रिया में जनता की भागीदारी को दर्शाता है।
संवैधानिक प्रावधान: आयोग ने अनुच्छेद 326 का हवाला देते हुए कहा कि यह प्रक्रिया वयस्क मताधिकार के आधार पर सभी पात्र नागरिकों को मतदान का अधिकार सुनिश्चित करती है। गैर-निवासियों और अपात्र व्यक्तियों को हटाना लोकतंत्र को मजबूत करने के लिए जरूरी है।
दस्तावेजों में लचीलापन: आयोग ने स्पष्ट किया कि मतदाताओं को आधार कार्ड सहित 11 दस्तावेजों में से कोई एक जमा करना होगा। यदि दस्तावेज उपलब्ध नहीं हैं, तो 1 अगस्त 2025 को प्रारूप मतदाता सूची प्रकाशन के बाद दावे और आपत्तियों के दौरान इसे ठीक किया जा सकता है।
प्रक्रिया की वैधता: आयोग ने कहा कि यह अभियान जनप्रतिनिधित्व कानून 1950 और रजिस्ट्रेशन ऑफ इलेक्टर्स रूल 1960 के तहत वैध है। उन्होंने याचिकाकर्ताओं से मांगा कि वे यह साबित करें कि प्रक्रिया में क्या गलत है।
कोर्ट की टिप्पणियां: सुप्रीम कोर्ट ने दोनों पक्षों को सुनने के बाद कुछ सख्त टिप्पणियां कीं। जस्टिस सुधांशु धूलिया ने याचिकाकर्ताओं से कहा कि पहले यह साबित कीजिए कि चुनाव आयोग जो कर रहा है, वह गलत है।
कोर्ट ने यह भी संकेत दिया कि वह प्रक्रिया की वैधता और इसके प्रभाव को गंभीरता से जांचेगा। कोर्ट ने आयोग से पूछा कि क्या यह प्रक्रिया इतने कम समय में पूरी हो सकती है और क्या यह वास्तव में निष्पक्ष है।
सियासी हलचल और सड़क पर प्रदर्शनः इस सुनवाई से पहले, 9 जुलाई को विपक्षी महागठबंधन ने बिहार बंद का आह्वान किया था। कांग्रेस नेता राहुल गांधी, RJD नेता तेजस्वी यादव, CPI के डी. राजा, CPI(ML) लिबरेशन के दीपंकर भट्टाचार्य, और VIP के मुकेश सहनी जैसे नेताओं ने पटना में चक्का जाम और विरोध मार्च का नेतृत्व किया।
विपक्ष का कहना था कि यह अभियान गरीब, दलित और अल्पसंख्यक समुदायों को मतदान से वंचित करने की साजिश है। दूसरी ओर BJP ने इसे घुसपैठियों को हटाने की प्रक्रिया करार दिया, जिससे सियासी तनाव और बढ़ गया।
क्या है आगे का रास्ता? सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में अगली सुनवाई की तारीख तय नहीं की, लेकिन संकेत दिया कि वह आयोग की प्रक्रिया और याचिकाकर्ताओं की आपत्तियों को विस्तार से देखेगा।
आयोग ने भरोसा दिलाया कि 30 सितंबर 2025 को अंतिम मतदाता सूची प्रकाशन से पहले सभी विवरण कोर्ट को सौंपे जाएंगे। इस बीच विपक्ष ने सड़क से लेकर कोर्ट तक अपनी लड़ाई जारी रखने का ऐलान किया है।
बहरहाल बिहार में मतदाता सूची पुनरीक्षण का यह मामला न केवल चुनावी प्रक्रिया की पारदर्शिता पर सवाल उठाता है, बल्कि लोकतंत्र के मूल सिद्धांतों को भी कठघरे में लाता है। सुप्रीम कोर्ट का अंतिम फैसला बिहार विधानसभा चुनाव 2025 की दिशा तय करेगा। क्या यह अभियान वास्तव में मतदाता सूची को शुद्ध करेगा या लाखों लोगों को मतदान से वंचित कर देगा? इस सवाल का जवाब आने वाले दिनों में मिलेगा।