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      आखिर जनता अपने चुने हुए प्रतिनिधि के बारे में किससे करे मन की बात ?

      इंडिया न्यूज रिपोर्टर डेस्क। आने वाले समय में लोकसभा की 543 सीटों के स्थान पर 1000 सीटें हो सकती हैं। इसके लिए बाकायदा तैयारियां भी आरंभ होती दिख रही हैं। देश की सबसे बड़ी पंचायत अर्थात लोकसभा में एक पंच अर्थात सांसद के द्वारा अनुमानित 25 लाख लोगों की आवाज को केंद्र में बुलंद किया जाता है।

      आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि एक सांसद जितनी जनता का प्रतिनिधित्व करता है उससे कम आबादी तो भूटान, बोत्ववाना, एस्टोनिया, स्लोवेनिया आदि देशों की है। 2026 तक नए सीमांकन और अनुपात के हिसाब से जो तैयारियां होती दिख रहीं हैं, उसके मुताबिक लोकसभा की सीटें बढ़कर 1000 होने की उम्मीद है।

      अर्थात देश के 775 जिलों में एक एक सांसद के हिसाब से भी देखा जाए तो यह संख्या सवा गुना के करीब आ सकती है।

      अगर देश की संसद के उन आंकड़ों जो पीआरएस इंडिया के द्वारा अपनी वेब साईट पर प्रदर्शित किए गए हैं उसका अगर अध्ययन किया जाए तो 2021 के मानसून सत्र में लोकसभा में डेढ़ दर्जन से ज्यादा विधेयकों में औसत महज 34 मिनिट की चर्चा के साथ ही इन्हें मंजूरी दे दी गई।

      अनिवार्य रक्षा सेवा विधेयक 2021 में तो महज 12 मिनिट की चर्चा के बाद ही इसे मंजूरी मिली तो इससे आधे समय में दिवाला और दिवालियापनल संहिता संशोधन विधेयक 2021 में सिर्फ पांच मिनिट की चर्चा ही हो पाई।

      आश्चर्य की बात तो यह है कि सभी विधेयक ध्वनिमत से पारित हुए, एक भी विधेयक को संसदीय समिति के पास नहीं भेजा गया। इन आंकड़ों से यह प्रतीत होता है कि संसद में बहस की संसदीय परंपरा क्या अवसान की ओर है। सांसद वरूण गांधी के शब्दों में अगर कहा जाए तो संसद क्या महज डाकघर बनकर रह गई है!

      याद दिला दें कि संविधान बनाने के वक्त भारत की संविधान सभा की बहस 1946 में दिसंबर में आरंभ हुई थी और यह जनवरी 1950 में 166 दिन तक चली। अगर किसी भी मामले में सदन में स्वस्थ्य बहस होती है तो इसका अर्थ यही निकाला जाता है कि जो भी कानून बन रहे हैं उनकी गुणवत्ता, उद्देश्य, कार्यप्रणाली, लागू करने के उपरांत उसकी उपयोगिता और लागू करने के तरीकों आदि में सुधार के अनेक मार्ग प्रशस्त होते हैं।

      बात अगर विदेशो की करें तो दुनिया पर लंबे समय तक राज करने वाले ब्रिटेन के प्रधानमंत्री को हर बुधवार को वेस्टमिंस्टर में हाऊस ऑफ कामन्स में सांसदों के सवालों का उत्तर देना होता है। यह परंपरा कोविड काल में भी जीवित रही।

      इस दौरान ब्रिटिश प्रधानमंत्री ने सांसदों के सवालों के जवाब वर्चुअली दिए गए पर उन्होंने जवाब जरूर दिए, बात भारत की हो तो कोविड काल में देश में प्रश्नकाल को ही विलोपित कर दिया गया था।

      आज अगर परिसीमन या पुर्नआरक्षण के जरिए देश में संसदीय सीटों को 543 से बढ़ाकर एक हजार के आसपास करने की कवायद हो रही है तब इस बारे में भी विचार किया जाना चाहिए कि सांसदों की जवाबदेही जनता के प्रति कैसे बढ़ाई जा सकती है।

      सांसदों को लोकसभा या राज्य सभा में और अधिक उत्तरदायी कैसे बनाया जा सकता है। जनता का जनादेश पाकर सांसद तो संसद की सीढ़ियां चढ़ते नजर आते हैं, पर जिस जनता ने उन्हें चुना है उस जनता के प्रति वे हर साल कितने जवाबदेह रहे हैं इसका आडिट करवाने के लिए तंत्र विकसित करने की आवश्यकता है।

      हमने बार बार कहा है कि देश में 543 सांसद हैं और सभी सांसदों को बराबरी के अधिकार हैं, इसके बाद भी कोई संसदीय क्षेत्र हीरे के मानिंद चमक रहा है तो कहीं काम के लाले पड़े हुए हैं।

      आज आवश्यकता इस बात की भी है कि संसदीय समितियां चाहे संसद की हों या राज्यों की विधान सभाओं की, उसमें एक संसदीय समिति इस बात के लिए भी बनाई जाना चाहिए जो यह तय करे कि जनता के द्वारा चुने जाने के बाद उनके प्रतिनिधि के द्वारा उस जनता का कितना ख्याल रखा गया, जिसके द्वारा पांच साल हेतु उसे चुना था।

      इसके लिए बाकायदा एक मंच बनाया जाना चाहिए, जहां जनता के द्वारा अपनी बात को सप्रमाण रखा जाए और उसके बाद संसदीय समिति उस पर विचार करे एवं जनप्रतिनिधि का रिपोर्ट कार्ड तैयार करे।

      यह रिपोर्ट कार्ड हर साल संसद या विधान सभा के पहले सत्र के पूर्व ही जारी किया जाए ताकि जनता को भी पता चल सके कि पांच सालों के लिए उसने जिसके हाथ में अपने क्षेत्र का भविष्य सौंपा था उन्होंने अपने दायित्यों का निर्वहन कितनी ईमानदारी से किया।

      अगर ऐसा होता है तो निश्चित तौर पर जनप्रतिनिधियों को आत्मावलोकन करने का न केवल मौका मिलेगा वरन वे जनता के प्रति वास्तव में और अधिक जवाबदेह हो पाएंगे, जो वक्त की जरूरत भी महसूस हो रही है।

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