रांची (मुकेश भारतीय)। झारखंड की राजधानी रांची परिधि क्षेत्र में बसे पीपरा चौड़ा मुस्लिम बस्ती को दरिंदों ने उजाड़ दिया। हैवानियत का नंगा नाच करने वाले पड़ोस के नेवरी गांव के मुसलमान ही थे। एक जमीन दलाल की दूसरे साथी जमीन दलाल ने ही रात अंधेरे लेन देन के क्रम में हत्या कर दी। इससे नेवरी गांव के लोग उपद्रवी हो उठे और पीपरा चौरा बस्ती के घरों में लूट पाट मचाने के बाद उसे आग के हवाले कर दिया। आज समूचे गांव राख में हर तरफ राख ही राख दिखाई दे रहा है। अगर भीड़ हिंसक होती तो खून खराबा करती लेकिन यह भीड़ लूटेरी थी, लूटपाट के बाद साक्ष्य मिटाने को घरों में आग लगा दी।
इस बरसात के मौसम में पीड़ित लोग सप्ताह भर से भूखे नंगे बिलबिला रहे हैं। न किसी के तन पर कपड़ा बचा है और न खाने को एक एक कतरा अनाज। आततायियों ने एक अपराध और अपराधी की सजा पूरे गांव को दे डाली। उनका सब कुछ छीन लिया। कहते हैं कि रमजान के दिनों में सच्चे मुसलमानों का दिल पाक साफ होता है। कोई भी बेईमानी हराम कहलाती है। लेकिन क्या पीपरा चौरा बस्ती हो या नेवरी गांव, यहां के लोग मुस्लमान नहीं हैं या फिर इंसान नहीं हैं?
यह सबाल उन मुल्ला, मौलवी, कठमुल्लों से लेकर सत्ता और विपक्ष की राजनीति करने वाले बगुला भगतों से है, जो एक अदना घटना को लेकर ही स्वार्थ की तुफान खड़ा कर देते हैं।
वेशक पीपरा चौड़ा गांव की स्थिति काफी भयावह है। लेकिन, उनके घावों पर सीएम रघुवर दास के दो बोल तो दूर, उनके पार्टी के स्थानीय सांसद और विधायक तक उसे गांव के दर्द में झांकना गवारा नहीं समझा है। और न ही विपक्ष का भी कोई कोई छोटा या बड़ा नेता ने सुध ली है। जबकि यह गांव राष्ट्रीय उच्च मार्ग एनयएच 33 से सटे है।
सबसे बड़ी बात कि मुस्लिम समुदाय का भी कोई संगठन या संस्था ने भी इस घटना पर कोई दुःख जताया है और न ही कोई मदद की पहल की है। सिर्फ यहां के न्यूज चैनल चीख रही है। रोजाना अखबार अपने पन्ने रंग रहे हैं। इसका किसी पर कोई प्रभाव पड़ता नहीं दिख रहा है।
सबाल उठता है कि अगर पीड़क और पीड़ित एक ही मुस्लिम समुदाय के न होते तो क्या सत्ता सुख भोगने वाले दल या वोट की राजनीति करने वाले विपक्ष के धुरंधर यूं ही खामोश रहते। अगर खुद को भीतरी और दूसरे को बाहरी बता कर दूसरे समुदाय के साथ दरिंदगी का ऐसा खेल होता तो क्या मुल्ले-मौलवी चुप बैठते ?