
रांची (एक्सपर्ट मीडिया न्यूज)। सूचना का अधिकार अधिनियम, 2005 को लोकतंत्र में जनता की आँख कहा जाता है, लेकिन झारखंड में यह आँख बीते चार वर्षों से लगभग बंद पड़ी है। निचले स्तर पर जन सूचना अधिकारियों की मनमानी, अपीलीय अधिकारियों की असहायता और सबसे ऊपर राज्य सूचना आयोग का अस्तित्वहीन होना । इन सबने मिलकर RTI कानून को लगभग निष्क्रिय बना दिया है।
कांके अंचल कार्यालय से जुड़ा ताज़ा मामला इस पूरे सिस्टम फेल्योर की जीवंत मिसाल बनकर सामने आया है। रांची जिले के कांके अंचल में भूमि से जुड़ी गंभीर अनियमितताओं पर दाखिल RTI आवेदन में 25 डिसमिल भूमि पर 37 डिसमिल की रसीद, फर्जी/संदिग्ध दाखिल-खारिज, जमाबंदी विसंगति, भौतिक सत्यापन और जिला-स्तरीय जांच जैसे अहम बिंदुओं पर जानकारी मांगी गई थी। लेकिन जन सूचना अधिकारी सह कांके अंचलाधिकारी अमित भगत ने न तो 30 दिन में सूचना दी और न ही बाद में।
प्रथम अपीलीय पदाधिकारी सह रांची SDO उत्कर्ष कुमार ने चार बार लिखित आदेश जारी किए। सुनवाई तय की। नोटिस भेजे। फिर भी सूचना नहीं दी गई। लगता है कि सबकुछ कागजों पर ही होते रहे।
सबसे चिंताजनक बात तब सामने आई जब प्रथम अपीलीय पदाधिकारी ने यह कहकर जिम्मेदारी से हाथ खड़े कर दिए- “यदि कांके CO सूचना नहीं देते हैं तो मेरे पास उन्हें पत्र लिखने के अलावा कोई अधिकार नहीं है।”हालांकि यह बयान केवल एक अधिकारी की मजबूरी नहीं, बल्कि पूरे RTI तंत्र की कमजोर रीढ़ को उजागर करता है।
RTI Act की आत्मा राज्य सूचना आयोग है। लेकिन झारखंड में पिछले लगभग चार वर्षों से राज्य सूचना आयोग का गठन ही नहीं हुआ है। नतीजा यह है कि द्वितीय अपील का संवैधानिक अधिकार ठप है। PIO पर जुर्माना लगाने वाली धारा 20 निष्क्रिय है। अधिकारी आदेश न मानें तो भी कोई डर नहीं है। यानी RTI कानून मौजूद है, लेकिन उसे लागू कराने वाला संस्थान गायब है।
कानूनी विशेषज्ञों और सामाजिक कार्यकर्ताओं का मानना है कि आयोग न होने से दंड का भय समाप्त हो गया। अधिकारी जानते हैं कि अपील कहां जाएगी ही नहीं। प्रथम अपीलीय अधिकारी केवल “डाकिया” बनकर रह गए। इसी कारण कांके जैसे मामलों में अधिकारी चार आदेशों को भी नजरअंदाज कर रहे हैं।
सूचना का अधिकार अनुच्छेद 19(1)(a) से जुड़ा मौलिक अधिकार है। सुप्रीम कोर्ट द्वारा पारदर्शिता का आधार माना गया है। लेकिन झारखंड में आयोग का गठन न होना सीधे-सीधे संविधान की भावना का उल्लंघन है। नागरिक अधिकारों का हनन है। लोकतांत्रिक जवाबदेही का पतन माना जा रहा है।
आज झारखंड में RTI आवेदक के सामने विकल्प बेहद सीमित हैं। PIO सूचना नहीं देता है। FAA आदेश देकर भी लागू नहीं करा पाता है। राज्य सूचना आयोग मौजूद नहीं है। हाईकोर्ट जाना आम नागरिक के लिए महंगा और जटिल है। इसका अर्थ है कि सूचना का अधिकार व्यवहार में मृतप्राय हो चुका है।
RTI एक्टिविस्टों का कहना है कि जब तक राज्य सूचना आयोग का तत्काल गठन नहीं होगा, RTI कानून केवल फाइलों की शोभा बना रहेगा। कांके मामला अकेला नहीं, यह सिस्टम की बीमारी का लक्षण है।
कांके अंचल का मामला यह साबित करता है कि कानून होने से ही अधिकार सुरक्षित नहीं होते हैं। संस्थागत ढांचा न हो तो कानून बेमानी हो जाता है।
बहरहाल, झारखंड में RTI सिस्टम आज उसी मोड़ पर खड़ा है, जहां सूचना मांगना अधिकार नहीं, संघर्ष बन गया है। अब सवाल सिर्फ एक RTI का नहीं, बल्कि पूरे राज्य में सूचना के अधिकार को जिंदा रखने का है।



