किसी भी सभ्यता और संस्कृति में बेहतरी के लिये यह जरुरी नहीं है कि उसका मूल ही नष्ट कर दिया जाये। नालंदा की पावन पर्यटकीय नगरी राजगीर में तांगा विशेष आकर्षण का केन्द्र है। लेकिन, लोमड़ी प्रवृति के लोग इस अनमोल विरासत को नष्ट करने में तुले हैं।
एक्सपर्ट मीडिया न्यूज डेस्क (मुकेश भारतीय)। आधुनिकता की इस दौर में तांगा सवारी देश के बहुत कम क्षेत्रों में बचा है। उसमें राजगीर और उसके आसपास का ईलाका एक मिसाल है। लेकिन इस मिसाल को वहां के शासन-प्रशासन और बिचौलिये तत्व नष्ट करने पर तुले हैं।
खबर है कि बीते शुक्रवार को राजगीर में तांगा चालकों व ई रिक्शा वालों के बीच फिर विवाद हुआ है। इस दौरान तांगा चालकों ने ई रिक्शा को अपने कब्जे में लेकर राजगीर थाना को सुपुर्द करते हुये कहा कि सैकडों वर्षो से राजगीर में तांगा परिचालन कर अपना व परिवार का जीविकोपार्जन कर रहे हैं। इसलिए ई रिक्शा का परिचालन बंद किया जाय।
ई रिक्शा वालों का तर्क है कि राजगीर के पर्यावरण व पर्यटकों की सुविधा का ध्यान रखते हुए ई-रिक्शा का परिचालन कहीं से भी आपत्तिजनक नहीं है, क्योंकि उसे कहीं भी रोजी-रोटी करने का संवैधिनिक अधिकार है!
सबाल उठता है कि राजगीर जैसे पर्यटकीय परिसर में ई-रिक्शा चलाने की अनुमति किसने दी। बिहार सरकार के पर्यटन विभाग ने, नालंदा जिला प्रशासन ने या अनुमंडल प्रसाशन ने या फिर इन सबों से इतर लूट-खसोंट मचाने वाले सब पर हावी बिचौलियों ने?
अगर किसी ने भी नहीं दी तो फिर राजगीर में ई-रिक्शा को परिचालन कैसे हो रहा है। क्या राजगीर पुलिस-प्रशासन के लोग ऐसे गंभीर मामलों से अनभिज्ञ हैं? ऐसा नहीं हो सकता। सब अपनी काली कमाई की जुगाड़वश लगे रहते हैं। सरकारी मुलाजिमों में राजगीर के धरोहरों की रक्षा की कोई चिंता नजर नहीं आता। वे माफियाओं की तरह पूरी सौंदर्य-प्रकृति का दोहन करते साफ दिख रहे हैं।
बहरहाल, राजगीर में तांगा की जगह ई-रिक्शा के परिचालन की बात हो रही है। आखिर उसकी वजह क्या है? इसका ठोस जबाव किसी के पास नहीं है। शासन-प्रशासन के लोग भी उसी ऑफर पर अधिक ध्यान देतें हैं, जिसमें अधिक कमाई छुपी होती है। तांगा वाले हटेगें, ई-रिक्शा वाले आयेगें और उनकी काली कमाई के स्रोत में ईजाफा होगा।
इस मानसिकता से न तो विरासत के बिचौलिये मुक्त हो रहे हैं और न ही उसके जिम्मेवार शासनिक मतवाले। वे सब कुछ बदल देना चाहते हैं। उनकी नजर में हरे-भरे वादियों के बीच मनोरम खिलखिलाहट कोई मायने नहीं रखते। उन्हें कंक्रीट के जंगल के बीच सरसराती इलेक्ट्रॉनिक शैली अधिक भाती है।
तांगा वालों के बारे में कहा जाता है कि उनमें उदंड प्रवति देखी जाती है। सैलानियों के प्रति उनका व्यवहार ठीक नहीं होता है। वे भयादोहन करते हैं। उनके कारण यातायात व्यवस्था में भी समस्या पैदा होती है। वे यत्र-तत्र काफी बेतरतीव तरीके से अपना टांगा लगाते हैं।
क्या इसके लिये सिर्फ तांगा वाले ही दोषी हैं। बदलते परिवेश में तांगा वालों का व्यवहार एक समस्या हो सकती है। लेकिन इसके लिये यह बिल्कुल जरुरी नहीं है कि सभ्यता और संस्कृति को ही खत्म कर दिया जाये।
मेरी समझ में तांगा संचालन से जुड़ी जितनी भी समस्याएं दिखती है, उसके लिये सीधे तौर पर पुलिस-प्रशासन औऱ उसके बिचौलिये ‘सभ्रांत लोग’ अधिक दोषी हैं। सारी दिक्कतें उनकी निकम्मेपन से ही उत्पन्न हुई है।
राजगीर और उसके आसपास के समाज के एक बड़े तबके के लोग पुरातन काल से तांगा के सहारे अपनी आजीविका चला रहे हैं। ऐसे में ई-रिक्शा का परिचालन दबंग प्रवृति के लोगों की दिमागी कुराफात है। इससे तांगा चालकों को परेशानी और उनमें अपनी आजीविका के भविष्य को लेकर चिंता स्वभाविक है।
पर्यटकों का भी मानना है कि तांगा की सवारी से राजगीर घूमने का आनंद दोगुणा हो जाता है। इसमें घुमने का आनंद के बखान सिर्फ पर्यटक ही नहीं, प्रदेश के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार भी यदा-कदा करते रहते हैं। यहां एक आम कहावत है कि जिसने तांगा नहीं चढ़ा, उसने राजगीर के सौंदर्य का क्या खाक आनंद लिया।
वेशक यहां तांगा खुद ऐतिहासिक पर्यटकीय धरोहर है, सौन्दर्य है। इसे हर हाल में बचाया जाना चाहिये। उसे बढ़ावा मिलनी चाहिये। जहां तक तांगा परिचालन की कुव्यवस्था और उसके चालकों की मनमानी या उदंड व्यवहार की बात है तो इसके निदान की दिशा में ठोस कदम उठाये जानी चाहिये।
राजगीर में तांगा पड़ाव की कहीं कोई मुकम्मल व्यवस्था नहीं दिखती। यहां लोग अपनी टमटमें जहां-तहां खड़ा कर डालते हैं। इससे आम लोगों को काफी परेशानी होती है।
प्रशासन को चाहिये कि राजगीर के महत्वपूर्ण स्थानों, खासकर कुंड क्षेत्र, बस स्टैंड और विश्व शांति स्तूप के पास तांगा पड़ाव सुनिश्चित करे, जहां प्रशासन से जुड़े लोग हों और कड़ी नजर रखने के लिये सबों को आधुनिक नेटवर्क से जोड़ दिया जाये।
हर तांगा पर उसका निबंधन संख्या दर्ज हो और उसके चालकों को प्रशासन द्वारा जारी परिचय पत्र गले में टांगने की बाध्यता हो। ताकि सैलानी लोग के साथ अगर कोई तांगा वाला सही व्यवहार नहीं करता है, उसका भयादोहन करता है तो उसकी आसानी से शिनाख्त किया जा सके।
लेकिन, राजगीर-पुलिस प्रशासन को समस्या समाधान में कभी कोई खास दिलचस्पी नहीं दिखी। खासकर जब वहां के जनप्रतिनिधि और कथित सामाजिक खेवनहार निकम्मे हो जायें तो उस परिस्थिति में क्या उम्मीद किया जाए।