यहां कांग्रेस हो या कोई अन्य क्षेत्रीय दल, वह बिना राजद की चुनावी वैतरनी नहीं पार कर सकती। यही हाल एनडीए का भी है। चाहे जदयू हो, लोजपा हो या रालोसपा उसे भी भाजपा या फिर राजद के बिना चुनावी सफलता मिलनी बड़ी टेढ़ी खीर है।
पटना। पिछले दिनों कांग्रेस सांसद अखिलेश सिंह का यह बयान कि ‘बिहार में राजद कांग्रेस से बड़ी पार्टी है और लालू प्रसाद एक बड़े जनाधार वाले नेता हैं। इस हिसाब से राजद को लोकसभा में जयादा सीटें मिलनी चाहिए’ ने राजद छोड़कर सभी दलों के बड़बोले नेताओं की भृकुटी ताने दी।
कई ऐसे नता भी इस पर अपनी नकारात्मक प्रतिक्रिया देने से नहीं चुके जो खुद कई दलों का दरवाजा घूमने के बाद अंतत्वोगत्वा भाजपा, जदयू या कांग्रेस में आए हैं। ऐसे नेता और विधायक लगभग हर दल में हैं।
अखिलेश सिंह ने जो कहा, वह कहीं भी गलत नहीं हैं। बिहार में भाजपा से अलग होने के बाद जदयू 2014 का लोकसभा चुनाव अकेले अपने दम पर लड़ी, जिसमें वह मात्र दो सीटों पर सिमट कर रह गई और नीतीश कुमार को अपने चेहरे की चमक की पहचान हो गई।
लोकसभा चुनाव में अपना हश्र देखते हुए जदयू ने बिहार की जनता को चौंकाते हुए मजबूरन 2015 में राजद और कांग्रेस के साथ गठबंधन कर महागठबंधन बनाया। इस चुनाव में भी सबसे ज्यादा 80 सीटें राजद को ही मिली।
राजद और लालू प्रसाद के बूते और और उनके ‘माय’ समीकरण को नकारा नहीं जा सकता। आज भले ही लालू प्रसाद जेल में हो उनका परिवार भी संकटों में है। इससे लालू के जनाधार पर कोई असर नहीं पड़ा बल्कि, उसमें बढ़ोतरी ही हुई। जिसका उदाहरण जहानाबाद सहित तीन जगहों पर विधानसभा और एक जगह लोकसभा के हुए उपचुनाव का परिणाम है।
अगर आरक्षण के सवाल पर सवर्ण समूदाय के मतदाता भी बिहार में महागठबंधन के साथ हो जाएं तो चुनाव का परिणाम एकतरफा भी हो सकता है।
कल तक एनडीए को समर्थन देन वाले सवर्णों में इस बात की साफ कसक देखी जा रही है कि एनडीए में शामिल सवर्ण जाति के बड़बोल नेता और प्रवक्ता भी आरक्षण के मुद्दे पर खामोश हैं।
आज अगर बिहार के सभी दल अपने दम पर अकेले चुनाव लड़ें तो भाजपा और राजद को छोड़ सबकी औकात की थाह लग जाएगी। रही बात अखिलेश सिंह की तो इसमें कहीं दो राय नहीं कि राजनीति में वो राजद और लालू प्रसाद की उपज हैं।
महागठबंधन में होने के कारण लालू प्रसाद और राजद प्रति उनकी सोच और सहानुभूति लाजिमी है। बिहार की राजनीति में ऐसे कई उदाहरण हैं जहां ‘दल से बड़ा दिल’ और ‘जातीय राजनीति और पार्टी’ से ज्यादा दोस्ती और पुराने संबध को तरजीह मिली है।
ताजा उदाहरण मोकामा से लगातार तीन बार जदयू और 2015 में निर्दलीय प्रत्याशी के रुप में जीतने वाले विधायक अनंत सिंह और बेलागंज के राजद विधायक सुरेन्द्र यादव का है। दोनों की पार्टियां एक-दूसरे की धूर विरोधी हैं, पर इन दोनों की दोस्ती और अपनापन में कभी कोई दरार नहीं आया।
हाल के दिनों में केन्द्र सरकार द्वारा देश में आरक्षण बील पास कर देने के बाद तो राजनीतिक हालात और समीकरण बदलने की पूरजोर संभावना है। पूरे देश में सवर्ण जाति के युवा इसके विरोध में हैं। वे गरीबी के आधार पर सवर्णों को भी आरक्षण देने की मांग कर एनडीए सरकार का विरोध कर रहे हैं।
ऐसे में आने वाले लोकसभा चुनाव के पूर्व कांग्रेस का यह पूर्ण प्रयास होगा कभी उसके परंपरागत वोटर रहे सवर्ण मतदाताओं की वह सहानुभूति फिर से बटोरे। कांग्रेस के इसी प्रयास के तहत बिहार कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष का जिम्मा अखिलेश सिंह को दिया जा सकता है।