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नीतीश कुमार का हरनौत से राजभवन तक का रोमांचक सफर

मांगी हुई साइकिलों पर हरनौत की गलियों में घूमते हुए  नीतीश कुमार सामाजिक सद्भाव की अपील करते थे। लेकिन उनके अपने समाज ने उन्हें ‘बागी’ करार दे दिया। लोग ताने मारते कि ‘जो अपने समाज का साथ नहीं दे सकता, वह किसी की रक्षा कैसे करेगा…?

नालंदा (मुकेश भारतीय)बिहार की राजनीति में नीतीश कुमार का नाम किसी महाकाव्य का नायक बन चुका है। एक साधारण इंजीनियर से बिहार के सबसे लंबे समय तक शासन करने वाले मुख्यमंत्री तक का उनका सफर उतार-चढ़ाव, विश्वासघात और जीत की ऐसी कहानी है, जो हरनौत की मिट्टी से शुरू होकर पटना के राजभवन तक पहुंची।

2025 के विधानसभा चुनावों की दहलीज पर खड़े नीतीश का यह सफर न केवल प्रेरणादायक है, बल्कि आज भी बिहार की जनता के लिए एक रहस्यमयी पहेली बना हुआ है। आइए, उनकी जिंदगी के उन अनछुए पन्नों को पलटें, जहां हर हार ने जीत की नींव रखी और हर दोस्त ने कभी न कभी दुश्मन की भूमिका निभाई।

फिएट कार से शुरू हुआ विवाह और विश्वासघात का सफर

23 फरवरी 1973, पटना का गांधी मैदान। लाला लाजपतराय भवन से एक सफेद फिएट कार बख्तियारपुर की ओर बढ़ रही थी, जिसके नंबर प्लेट पर बीआरपी 111 लिखा था। इस कार में बैठे थे नवविवाहित नीतीश कुमार और ड्राइवर की सीट पर उनके पारिवारिक मित्र भोला प्रसाद सिंह।

लेकिन तब कौन जानता था कि यह वही भोला बाबू होंगे, जिन्हें चार साल बाद नीतीश को हरनौत विधानसभा में हराने का गौरव प्राप्त होगा? नीतीश को अक्सर यह सवाल सताता था कि जिस मित्र ने उनके विवाह का रथ चलाया, वही बार-बार उनकी राजनीतिक राह में कांटे क्यों बिछाता रहा?

हरनौत नालंदा का वह ऐतिहासिक क्षेत्र हौ, जो कभी प्राचीन नालंदा विश्वविद्यालय का प्रवेश द्वार था। आज नीतीश की जन्मभूमि और कर्मभूमि के लिए जाना जाता है। पंचाने नदी के तट पर बसा यह कस्बा जहां खेतों की हरियाली और मेहनतकश किसानों की कहानियां गूंजती हैं।

लालू का उगता सूरज, नीतीश का ढलता सितारा

Nitish Kumar lalu yadav exciting journey from Harnaut to Raj Bhavanजब लालू प्रसाद यादव 1977 में आपातकाल विरोधी लहर पर सवार होकर छपरा से लोकसभा पहुंचे, नीतीश की राहें कांटों भरी थीं। लालू 1980 और 1985 में सोनपुर से विधानसभा जीतकर बिहार की राजनीति में चमक रहे थे, लेकिन नीतीश का शुरुआती रिकॉर्ड हार का पर्याय बन चुका था।

1977 में हरनौत विधानसभा का गठन हुआ। नीतीश को जनता पार्टी का टिकट मिला, लेकिन बेलछी नरसंहार ने उनके खिलाफ माहौल बना दिया। नीतीश समाजवादी विचारधारा के पक्के सिपाही थे। लोहिया और किशन पटनायक के विचारों को आत्मसात करने वाले नीतीश ने उत्पीड़कों का पक्ष लेने से इन्कार कर दिया।

मांगी हुई साइकिलों पर हरनौत की गलियों में घूमते हुए वे सामाजिक सद्भाव की अपील करते थे। लेकिन उनके अपने समाज ने उन्हें ‘बागी’ करार दे दिया। लोग ताने मारते कि ‘जो अपने समाज का साथ नहीं दे सकता, वह किसी की रक्षा कैसे करेगा?’

उनके सामने थे भोला प्रसाद सिंह, वही मित्र जो उनकी शादी में फिएट चलाया करते थे। भोला चतुर, अवसरवादी और दांव-पेंच के माहिर थे। नीतीश के पास न धन था, न बाहुबल। उनके समर्थक दलित और पिछड़ी जातियां थीं और वे आदर्शवाद में डूबे थे। नतीजा? 1977 में पहली हार। 1980 में भोला ने अरूण चौधरी को समर्थन देकर नीतीश को फिर हराया। ये हार नीतीश को भीतर तक तोड़ गई।

टूटते सपनों के बीच ठेकेदारी का इरादा

लगातार दो हार ने नीतीश को हताश कर दिया। परिवार पर ध्यान नहीं था। पुत्र निशांत का जन्म हो चुका था, जो नाना-नानी के पास पल रहा था। आर्थिक तंगी थी, कोई आय का स्रोत नहीं। नीतीश ने ठेकेदारी शुरू करने का फैसला किया, लेकिन तभी उनके जीवन में विजय कृष्ण आए।

बख्तियारपुर से थोड़ा आगे अठमलगोला के इस मित्र ने नीतीश को रोका और कहा कि  ‘तुम्हारा रास्ता राजनीति है, ठेकेदारी नहीं।’ विजय बाद में उनके शत्रु बने, लेकिन उस समय उन्होंने नीतीश को हिम्मत दी।

मुन्ना सरकार की राजदूत: लकी चार्म

नीतीश के लिए एक और दोस्त मुन्ना सरकार की राजदूत मोटरसाइकिल लकी साबित हुई। इसका नंबर बीएचक्यू 3121, जिसका जोड़ 7 था, वह नीतीश के लिए शुभ माना गया। मुन्ना ने नामांकन के लिए अपनी मां से पैसे लिए। 1985 का चुनाव नीतीश का आखिरी दांव था। शर्त थी कि हार गए तो राजनीति छोड़ ठेकेदारी करेंगे। इंदिरा-राजीव लहर थी, भोला का नारा ‘बम चले या गोला, जीतेगा तो भोला’ गूंज रहा था। लेकिन इस बार नीतीश तैयार थे।

विजय कृष्ण ने राजपूत समुदाय का समर्थन जुटाया। मित्र नरेंद्र ने 40 हजार रुपये खर्च किए। नीतीश ने 22 हजार वोटों से जीत हासिल की और विधानसभा पहुंचे। उनके भाषणों ने कर्पूरी ठाकुर का ध्यान खींचा। युवा लोकदल के अध्यक्ष बने। 1989 में बाढ़ लोकसभा से रामलखन सिंह यादव को हराकर संसद पहुंचे। अटल बिहारी वाजपेयी के संदेश और वीपी सिंह की लहर ने मदद की। नीतीश कृषि राज्य मंत्री बने।

कुर्मी चेतना रैली: एक नया नीतीश

1994 की कुर्मी चेतना रैली नीतीश के लिए टर्निंग पॉइंट थी। सतीश कुमार ने इसे आयोजित किया, लेकिन नीतीश के भाषण ने भीड़ का दिल जीत लिया। लालू का विरोध कर वे कुर्मी समाज के नायक बन गए। सतीश को मलाल रहा कि उनकी रैली की मलाई नीतीश ले गए।

जनता दल से अलग होकर समता पार्टी बनी। 1995 में 7 सीटें, फिर 1999 में जेडीयू विलय और बीजेपी गठबंधन। 2000 में 42 सीटें, लेकिन बहुमत नहीं। 3 मार्च 2000 को नीतीश पहली बार सीएम बने, पर 10 दिन में इस्तीफा देना पड़ा। 2005 में पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता में आए और तब से 20 साल तक अजेय हैं।

हरनौत की जनता अब निशांत को विरासत सौंपने की बात उठा रही है, लेकिन नीतीश परिवारवाद से दूर हैं। अब क्या नीतीश बिहार को नई दिशा देंगे या नई पीढ़ी को मौका? 2025 का रण रोचक होगा। नीतीश का सफर सिखाता है कि हार की राख से जीत की चिंगारी निकलती है। हरनौत का यह बेटा आज भी बिहार की धड़कन है।

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