रांची (एक्सपर्ट मीडिया न्यूज)। जरा कल्पना कीजिए कि जब झारखंड की राजधानी रांची में ही प्रशासन आम आदमी के सूचना अधिकार अधिनियम (RTI) जैसे अधिकारों के प्रति लापरवाह हो जाए तो फिर सुदूर जिला क्षेत्रों में आलम क्या होगा? आखिर पारदर्शिता की बात पर सारी व्यवस्था क्यों कांप उठती है? उनकी पतलून तक गीली क्यों होने लगती है?
दरअसल कांके अंचल कार्यालय ने सूचना का अधिकार अधिनियम को खुली चुनौती दे दी है। एक साधारण आरटीआई आवेदन पर न तो जनसूचना अधिकारी सह अंचलाधिकारी अमित भगत ने तय अवधि में कोई जवाब दिया और न ही प्रथम अपीलीय प्राधिकारी सह रांची सदर अनुमंडल पदाधिकारी उत्कर्ष कुमार के निर्धारित तीन-तीन लिखित नोटिसों का कोई असर हुआ।
आश्चर्यजनक रूप से जब आवेदक ने आगे की कार्रवाई की बात की तो एसडीओ कार्यालय से साफ कह दिया गया कि “हमारे पास पीआईओ पर कोई कार्रवाई करने का अधिकार ही नहीं है।”
दरअसल अप्रैल महीने में आवेदक ने कांके अंचल से जीवीकोपार्जन से जुड़े कुछ जमीन और राजस्व रिकॉर्ड संबंधी सूचनाएँ माँगी थीं। नियत तीस दिन गुजर गए, लेकिन कोई जवाब नहीं आया। इसके बाद आवेदक ने रांची सदर एसडीओ के पास प्रथम अपील दायर की। जुलाई से नवंबर के बीच एसडीओ ने तीन अलग-अलग तारीखों पर पीआईओ को नोटिस भेजकर सूचना उपलब्ध कराने का आदेश दिया।
गंभीर पहलु है कि हर बार नोटिस गया, मगर न तो सूचना आई, न नोटिस का जवाब आया और न ही कोई स्पष्टीकरण पेश किया गया। आखिरकार जब आवेदक ने पूछा कि अब क्या होगा तो जवाब मिला कि उनके पास इसके आगे कुछ करने की कोई शक्ति नहीं है।
यह मामला सिर्फ एक व्यक्ति की परेशानी नहीं है, बल्कि पूरे आरटीआई कानून के अमल की पोल खोलता है। कानून की धारा 20(1) स्पष्ट रूप से कहती है कि अगर पीआईओ बिना उचित कारण के सूचना देने से बचता है तो प्रथम अपीलीय प्राधिकारी उस पर प्रतिदिन दो सौ पचास रुपये का जुर्माना, अधिकतम पच्चीस हजार रुपये तक लगा सकता है। धारा 20(2) बार-बार लापरवाही करने पर अनुशासनात्मक कार्रवाई की अनुशंसा करने का अधिकार देती है।
धारा 19(8)(b) तो यहाँ तक कहती है कि अपीलीय प्राधिकारी सूचना देने की समय-सीमा तय कर सकता है और आवेदक को हुई परेशानी की क्षतिपूर्ति भी दिलवा सकता है। फिर भी इस पूरे प्रकरण में न जुर्माना लगा, न अनुशंसा हुई और न ही कोई ठोस आदेश पारित किया गया।
जब प्रथम अपील में ही न्याय न मिले तो आवेदक के पास अभी भी मजबूत रास्ते बाकी हैं। वह नब्बे दिनों के अंदर या उचित कारण बताकर उसके बाद भी झारखण्ड राज्य सूचना आयोग में दूसरी अपील दाखिल कर सकता है। अपील के साथ तीनों नोटिसों की कॉपी, पीआईओ की चुप्पी के सबूत और एसडीओ कार्यालय की “हम लाचार हैं” वाली बात को जोड़ दिया जाए तो आयोग पीआईओ के साथ-साथ प्रथम अपीलीय प्राधिकारी को भी तलब कर सकता है।
धारा 18 के तहत सीधी शिकायत का रास्ता भी खुला है, जिसमें आयोग पच्चीस हजार तक का जुर्माना, अनुशासनात्मक कार्रवाई की अनुशंसा, क्षतिपूर्ति और निःशुल्क सूचना देने का आदेश दे सकता है। अगर राज्य आयोग भी टालमटोल करे तो झारखण्ड हाईकोर्ट में अनुच्छेद 226 के तहत रिट याचिका दायर की जा सकती है। देश के कई हाईकोर्ट ऐसे मामलों में अधिकारियों को कड़ी फटकार लगा चुके हैं और जुर्माने तक लगवा चुके हैं।
सवाल अब भी जस का तस है कि जब कानून प्रथम अपीलीय प्राधिकारी को इतने स्पष्ट अधिकार देता है तो एक आईएएस अधिकारी (रांची अनुमंडल पदाधिकारी) यह कैसे कह सकता है कि उसके पास कोई अधिकार नहीं है? यह इच्छाशक्ति की कमी है या जवाबदेही से भागने की कोशिश?
झारखण्ड में ऐसे हजारों आवेदक हैं जो दफ्तरों के चक्कर काट-काटकर थक जाते हैं और चुप हो जाते हैं। यह खबर उन्हें बताती है कि चुप रहना जरूरी नहीं। राज्य सूचना आयोग और हाईकोर्ट का दरवाजा भी खुला हुआ है।
अपना हक माँगिए, क्योंकि सूचना का अधिकार कोई उपकार नहीं, लोकतंत्र की रीढ़ है। नाम गोपनीय रखते हुए भी कोई भी व्यक्ति https://jsic.jharkhand.gov.in पर ऑनलाइन अपील या शिकायत दर्ज कर सकता है। हिम्मत रखिए, क्योंकि कानून हमेशा पीड़ित के साथ होता है। अराजकता के खिलाफ न्याय में देर हो सकता है, अंधेर नहीं। सूचना का अधिकार कोई एहसान नहीं, एक संवैधानिक अधिकार है।









