
रांची (एक्सपर्ट मीडिया न्यूज नेटवर्क)। बिहार विधानसभा चुनाव के मैदान से झारखंड मुक्ति मोर्चा (झामुमो) की अचानक (Inside Story) वापसी ने राजनीतिक गलियारों में हलचल मचा दी है। छह सीटों पर अकेले लड़ने की जोरदार घोषणा के बावजूद, नामांकन के अंतिम दिन झामुमो ने किसी भी सीट पर प्रत्याशी नहीं उतारा। इस फैसले के पीछे की वजह को झामुमो नेता नगर विकास मंत्री सुदिव्य कुमार सोनू ने सीधे-सीधे राजद और कांग्रेस की ‘धूर्तता’ करार दिया है। लेकिन क्या यह वाकई में गठबंधन भागीदारों की चालबाजी है या झामुमो की अपनी रणनीतिक कमजोरी? आइए इस मुद्दे पर गहराई से नजर डालते हैं, जहां इतिहास, राजनीतिक गणित और भावी परिदृश्य सब कुछ जुड़े हुए हैं।
झामुमो की इस वापसी ने न केवल बिहार चुनाव की गतिशीलता को प्रभावित किया है, बल्कि झारखंड की राजनीति में भी नए समीकरणों की आहट सुना दी है। सुदिव्य कुमार सोनू ने नामांकन प्रक्रिया समाप्त होने के बाद मीडिया से बातचीत में खुलकर अपना गुस्सा जाहिर किया।
उन्होंने कहा कि झामुमो राजद और कांग्रेस की धूर्तता का शिकार हो गया। इसका प्रतिकार करेंगे। कांग्रेस भी इसके लिए बराबर की दोषी है। इसका दूरगामी परिणाम होगा। झारखंडी कभी भी धोखा नहीं भूलता। हम बताएंगे कि झामुमो बड़ी ताकत है। आदिवासियों की आवाज दबाने की कोशिश हुई है। इसका खामियाजा भुगतना होगा।
झामुमो के इस आरोप को समझने के लिए हमें पीछे मुड़कर देखना होगा। 2019 के झारखंड विधानसभा चुनाव में राजद झामुमो के गठबंधन का हिस्सा था। उस चुनाव में राजद के एकमात्र विधायक सत्यानंद भोक्ता जीते, जो हेमंत सोरेन सरकार में पूरे पांच साल कैबिनेट मंत्री रहे।
2024 के चुनाव में भी झामुमो ने कांग्रेस, राजद और माले को समायोजित किया। सरकार बनने पर राजद के एक विधायक को मंत्री बनाया गया, भले ही उनके पास महज चार सीटें थीं। सुदिव्य कुमार ने जोर देकर कहा कि झामुमो ने सदैव संजीदगी के साथ गठबंधन धर्म निभाया है। इसके बदले हमें धोखा मिला है।
लेकिन कहानी यहीं नहीं रुकती। सात अक्टूबर को पटना में राजद के शीर्ष नेतृत्व के साथ हुई बैठक में झामुमो को सम्मानजनक सीटें देने की सहमति बनी थी। बैठक दो घंटे से ज्यादा चली, जहां स्पष्ट कहा गया कि झामुमो इंडिया गठबंधन का हिस्सा है और इसे समायोजित करने में कोई कमी नहीं होगी।
यहां तक कि राहुल गांधी की ‘वोट चोरी यात्रा’ में हेमंत सोरेन को आमंत्रित किया गया। लेकिन वास्तविकता में क्या हुआ? झामुमो ने पहले 16 सीटों का दावा किया। फिर 12 पर बात आई और अंत में महागठबंधन की ओर से तीन सीटों पर सहमति बनने के बावजूद एक भी सीट नहीं मिली। झामुमो ने चकाई, धमदाहा, कटोरिया, मनिहारी, जमुई और पीरपैंती जैसी छह सीटों पर अकेले लड़ने की घोषणा की थी, लेकिन चुनावी मैदान से हटना पड़ा।
झारखंड विधानसभा में महागठबंधन के पास फिलहाल 55 सीटें हैं, जो बहुमत से 14 ज्यादा है। अगर कांग्रेस और राजद हट जाएं तो यह आंकड़ा 35 पर आ जाएगा यानि बहुमत से छह कम। माले के जाने पर यह 33 हो जाएगा। ऐसे में गठबंधन तोड़ना आसान नहीं लगता, लेकिन बिहार चुनाव के बाद परिदृश्य बदल सकता है।
राजनीतिक पर्यवेक्षकों का मानना है कि झामुमो राजद कोटे के मंत्री को हटा सकता है, गठबंधन से नाता तोड़ सकता है या नए राजनीतिक समीकरणों की तलाश कर सकता है। अगले साल झारखंड में राज्यसभा की दो सीटों पर चुनाव होने हैं, जहां झामुमो अपना अलग प्रत्याशी उतार सकता है।
झामुमो की साख भी दांव पर लगी हुई है। हेमंत सोरेन और उनकी पार्टी की झारखंड व राष्ट्रीय स्तर पर मजबूत छवि है। अगर वे अकेले चुनाव लड़ते और अपेक्षित वोट या सीटें नहीं मिलतीं तो साख को नुकसान पहुंच सकता था।
सूत्रों का कहना है कि झामुमो ने सभी गुणा-भाग देखते हुए यह फैसला लिया। लेकिन सवाल यह है कि क्या यह रणनीतिक पीछे हटना है या गठबंधन भागीदारों की वाकई धोखाधड़ी?
राजद और कांग्रेस ने झामुमो के आरोपों को सिरे से खारिज किया है। राजद के प्रदेश प्रवक्ता कैलाश यादव ने कहा कि मंत्री सुदिव्य कुमार द्वारा राजद नेताओं को धूर्त कहना आपत्तिजनक है। यह टिप्पणी दुर्भाग्यपूर्ण है। गठबंधन की राजनीति में इस प्रकार की भाषा के लिए कोई स्थान नहीं है। राजद प्रमुख लालू प्रसाद देश के सबसे बड़े सेक्युलर नेता हैं।
वहीं, कांग्रेस के प्रदेश महासचिव राकेश सिन्हा ने कहा कि सुदिव्य कुमार का कांग्रेस पर आरोप लगाना निराधार है। पार्टी के नेता राहुल गांधी गठबंधन को लेकर सदैव सजग, समर्पित और त्याग की भावना रखते हैं। बिहार विधानसभा चुनाव में भी कांग्रेस ने गठबंधन धर्म का पालन किया।
ये प्रतिक्रियाएं दर्शाती हैं कि गठबंधन में दरारें गहरी हो चुकी हैं। क्या यह सिर्फ बिहार चुनाव तक सीमित रहेगी, या झारखंड की राजनीति को भी प्रभावित करेगी? आदिवासी वोट बैंक, जो झामुमो की ताकत है, अब किस दिशा में जाएगा?
समीक्षकों का मानना है कि यह घटना भारतीय राजनीति की क्लासिक मिसाल है, जहां गठबंधन ‘सुविधा’ पर टिके होते हैं। राजद और कांग्रेस की ओर से झामुमो को सीटें न देना निश्चित रूप से ‘धूर्तता’ जैसा लगता है, लेकिन झामुमो की अपनी महत्वाकांक्षा भी कम नहीं। 16 से घटकर 6 सीटों पर आना दर्शाता है कि वे भी रणनीतिक समझौते के लिए तैयार थे, लेकिन अंतिम समय पर विश्वास टूटा।
यह आदिवासियों की आवाज को दबाने की कोशिश के रूप में देखा जा सकता है, जो झारखंड की राजनीति में बड़ा मुद्दा बन सकता है। दूरगामी परिणाम? बिहार चुनाव के बाद झामुमो नए गठबंधनों की तलाश कर सकता है, शायद भाजपा या अन्य क्षेत्रीय दलों के साथ। लेकिन एक बात साफ है कि झारखंडी धोखा नहीं भूलते और यह घटना 2025 के राजनीतिक परिदृश्य को बदल सकती है।









