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घाटशिला उपचुनावः हेमंत और चंपाई की जंग में ‘तेज धार’ बने जयराम

रांची (एक्सपर्ट मीडिया न्यूज/मुकेश भारतीय)। झारखंड की राजनीति में घाटशिला विधानसभा सीट का उपचुनाव अब सिर्फ एक सीट की भरपाई नहीं रह गया है। यह राज्य के दो दिग्गज नेताओं  मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन और पूर्व मुख्यमंत्री चंपाई सोरेन  के बीच व्यक्तिगत प्रतिष्ठा की लड़ाई बन चुका है। वहीं जयराम महतो की अगुवाई वाली जेएलकेएम इस जंग में तीसरा कोण बनकर उभरी है, जो दोनों बड़े दलों की रणनीति को चुनौती दे रही है।

पूर्व मंत्री रामदास सोरेन के निधन से रिक्त हुई इस सीट पर 11 नवंबर को मतदान होगा और 14 नवंबर को मतगणना। चुनाव आयोग की अधिसूचना जारी होते ही घाटशिला का राजनीतिक पारा चढ़ गया है, जहां भावनाएं, जातीय समीकरण और साख की लड़ाई हावी हो चुकी है।

झारखंड मुक्ति मोर्चा (झामुमो) ने दिवंगत विधायक रामदास सोरेन के पुत्र सोमेश सोरेन को मैदान में उतारकर सहानुभूति की लहर पैदा करने की कोशिश की है। रामदास सोरेन आदिवासी समुदाय के प्रमुख नेता थे और घाटशिला में उनकी मजबूत पकड़ रही।

पार्टी सूत्र बताते हैं कि सोरेन परिवार की परंपरागत विरासत और जमीनी संगठन की ताकत से झामुमो को बढ़त मिलने की उम्मीद है। मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन खुद इस चुनाव को प्रतिष्ठा का सवाल बना चुके हैं। वे प्रचार में उतरकर रामदास की यादों को ताजा कर रहे हैं और विकास कार्यों का लेखा-जोखा पेश कर रहे हैं।

झामुमो का मानना है कि यह सीट सिर्फ विधानसभा की नहीं, बल्कि सोरेन परिवार की राजनीतिक धरोहर है। सहानुभूति वोट बैंक को मजबूत बनाएगा और हम 25 हजार से अधिक मतों के अंतर से जीतेंगे। पार्टी ने आदिवासी वोटरों को एकजुट करने के लिए विशेष अभियान चलाया है, जहां रामदास के कार्यों को प्रमुखता दी जा रही है।

दूसरी तरफ पूर्व मुख्यमंत्री चंपाई सोरेन के लिए यह उपचुनाव व्यक्तिगत चुनौती बन गया है। पिछले विधानसभा चुनाव में भाजपा ने उनके पुत्र बाबूलाल सोरेन को टिकट दिया था, लेकिन वे रामदास सोरेन से 20 हजार से ज्यादा मतों से हार गए थे। इस बार फिर भाजपा ने बाबूलाल पर भरोसा जताया है, जिससे चंपाई की जिम्मेदारी दोगुनी हो गई है। भाजपा हेमंत सरकार पर भ्रष्टाचार, बेरोजगारी और आदिवासी अधिकारों की अनदेखी के आरोप लगा रही है।

चंपाई सोरेन प्रचार में सक्रिय हैं और जनसभाओं में कह रहे हैं कि यह चुनाव झारखंड की अस्मिता की लड़ाई है। हेमंत सरकार ने वादे किए लेकिन कुछ नहीं किया। भाजपा संगठन की ताकत से हम जीतेंगे। पार्टी ने केंद्रीय नेताओं को मैदान में उतारा है और विकास मॉडल को हथियार बनाया है। हालांकि चंपाई की छवि पर सवाल उठ रहे हैं कि क्या वे पिछले हार के बोझ से उबर पाएंगे?

इस उपचुनाव में सबसे रोचक मोड़ जयराम महतो की जेएलकेएम ने दिया है। पिछले चुनाव में पार्टी के रामदास मुर्मू को करीब 8 हजार वोट मिले थे। इस बार भी जयराम ने रामदास मुर्मू को ही उम्मीदवार बनाया है। जेएलकेएम परिवारवाद के खिलाफ अपनी अलग छवि पेश कर रही है और युवा वोटरों को आकर्षित करने की कोशिश में है। जयराम महतो प्रचार कर रहे हैं कि झामुमो और भाजपा दोनों परिवारवाद में डूबे हैं। हम आम आदमी की पार्टी हैं, जो विकास और न्याय की बात करती है।

पार्टी स्थानीय मुद्दों जैसे सिंचाई, शिक्षा और रोजगार पर फोकस कर रही है। विश्लेषकों का मानना है कि जेएलकेएम आदिवासी और पिछड़े वर्ग में गहरी पैठ बनाने की कोशिश कर रही है। यह हेमंत और चंपाई दोनों के लिए खतरा बन रहा है, क्योंकि जयराम की लोकप्रियता युवाओं में बढ़ रही है।

नामांकन वापसी के बाद मैदान में 13 निर्दलीय उम्मीदवार भी मैदान में डटे हैं। मुख्य मुकाबला झामुमो और भाजपा के बीच ही माना जा रहा है, लेकिन निर्दलीय जातीय आधार पर वोट बांटने की कोशिश कर रहे हैं। घाटशिला आदिवासी बहुल क्षेत्र है, जहां संथाल, मुंडा और अन्य जनजातियां निर्णायक हैं। निर्दलीय उम्मीदवार स्थानीय विकास और जातीय अपील से सेंध लगाने में जुटे हैं।

चुनाव में प्रमुख मुद्दे पूरी तरह गौण हो गए हैं। यहां न भ्रष्टाचार और न बेरोजगारी, सिर्फ चेहरे और भावनाएं हावी हैं। कोई अंडरकरंट नहीं दिख रहा है, जो बड़े दलों के लिए राहत की बात है, लेकिन यह लोकतंत्र के लिए चिंता का विषय है।

इसमें कोई शक नहीं है कि घाटशिला उपचुनाव के नतीजे झारखंड की राजनीति की दिशा तय करेंगे। यदि झामुमो जीती तो हेमंत की स्थिति मजबूत होगी, भाजपा की जीत चंपाई की साख बचाएगी और जेएलकेएम का प्रदर्शन तीसरे मोर्चे की संभावना खोलेगा। फिलहाल घाटशिला की सड़कें पोस्टरों से पट चुकी हैं और जनसभाओं का शोर गूंज रहा है। यह जंग अब अंतिम चरण में है। कौन बाजी मारेगा, यह 14 नवंबर को पता चलेगा।

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