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शिलान्यास से शून्य तक: नालंदा का एक जैविक सपना जो 21 साल में हवा हो गया

बिहारशरीफ (एक्सपर्ट मीडिया न्यूज नेटवर्क)। विकास के नाम पर शिलान्यास करना आसान है, लेकिन उसे हकीकत में बदलना? यह तो हमारे सिस्टम की सबसे बड़ी चुनौती है। जरा कल्पना कीजिए कि एक ऐसा कारखाना, जो किसानों की जिंदगी बदल सकता था, जो जैविक खेती को बढ़ावा देकर पर्यावरण को संवार सकता था, लेकिन 21 साल बाद भी वह सिर्फ एक जर्जर शिलापट्ट बनकर रह गया है। क्या यह संयंत्र जमीन में समा गया या आसमान में उड़ गया? नालंदा जिले के चंडी इलाके की जनता यही सवाल पूछ रही है और जवाब मिल रहा है- सिर्फ खामोशी!

यह कहानी है बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के गृह जिले नालंदा की, जहां 14 जनवरी 2004 को उन्होंने (तब केन्द्रीय रेल मंत्री) खुद चंडी के जैतीपुर में एक करोड़ रुपये की लागत से बनने वाले जैविक उर्वरक संयंत्र की आधारशिला रखी थी। यह संयंत्र भारतीय किसान उर्वरक सहकारी लिमिटेड (IFFCO) द्वारा प्रस्तावित था और इसे देश का दूसरा बड़ा जैविक उर्वरक कारखाना बताया गया था- पहला तो पंडित जवाहरलाल नेहरू के संसदीय क्षेत्र फूलपुर में था।

उस वक्त की उम्मीदें कितनी ऊंची थीं! किसान सोच रहे थे कि अब रासायनिक उर्वरकों से मुक्ति मिलेगी, मिट्टी स्वस्थ होगी, फसलें बेहतर होंगी। लेकिन आज वर्ष 2025 में वह जगह सिर्फ एक खाली प्लॉट है, जहां अब निजी मकानों की चर्चाएं चल रही हैं।

शिलान्यास के समय सब कुछ शानदार लग रहा था। IFFCO के तत्कालीन प्रबंध निदेशक उदयशंकर अवस्थी, नेफेड के पूर्व अध्यक्ष अजीत सिंह, सांसद राजीव रंजन सिंह और विधायक हरिनारायण सिंह जैसे दिग्गज मौजूद थे। लेकिन निर्माण शुरू होने से पहले ही अड़चनें आ गईं। मुख्य समस्या थी लिंक पथ की कमी। हसनी पंचायत के तत्कालीन मुखिया रामशेखर सिंह ने अपनी पहल पर लिंक पथ बनवाया, लेकिन फिर भी प्रोजेक्ट आगे नहीं बढ़ा। नतीजा?  वही पुराने ठाक के तीन पात। मतलब कुछ भी फर्क नहीं पड़ा!

और सबसे हैरान करने वाली बात? आज नालंदा के कृषि विभाग को खुद नहीं पता कि इस संयंत्र का निर्माता कौन है! कोई आवेदन, कोई रिकॉर्ड, कुछ भी नहीं। कृषि मंत्री को भी इसकी जानकारी नहीं। तो सवाल उठता है कि क्या यह प्रोजेक्ट कभी अस्तित्व में था या सिर्फ चुनावी जुमला? आठ कट्ठे जमीन पर IFFCO का मालिकाना हक था, लेकिन अब वहां क्या हो रहा है? दस लाख रुपये, जो उस समय संयंत्र के लिए जारी किए गए थे, वे कहां गए? ये सवाल जनता को सालों से कुरेद रहे हैं।

चंडी की जनता 21 साल से इस दर्द को सह रही है। हर चुनाव में नेता आते हैं, वादे करते हैं, लेकिन इस प्रोजेक्ट की सुध नहीं लेते। खुद नीतीश कुमार, जो अब सूबे के मुख्यमंत्री हैं, उसी रास्ते से गुजरते हैं, लेकिन शायद उनकी यादों में यह शिलापट्ट फीका पड़ चुका है। केंद्र में NDA की सरकार है, बिहार से राधा मोहन सिंह जैसे नेता कृषि मंत्री रह चुके हैं, लेकिन किसी ने इसकी फाइल नहीं खोली।

कुछ साल पहले 4 दिसंबर को राज्य के पूर्व शिक्षा मंत्री डॉ. रामराज्य की स्मृति दिवस पर पहुंचे कृषि मंत्री प्रेम कुमार को स्थानीय RTI कार्यकर्ता उपेंद्र प्रसाद सिंह ने एक ज्ञापन सौंपा था। उन्होंने लिखा कि 13 साल बीत गए, लेकिन एक ईंट तक नहीं लगी। प्रधानमंत्री जैविक खेती पर जोर दे रहे हैं तो यह प्रोजेक्ट क्यों नहीं शुरू होता? उम्मीद थी कि यह केंद्र और राज्य के एजेंडे में शामिल होगा और ‘सबका साथ, सबका विकास’ का नारा साकार होगा।

लेकिन क्या हुआ? आवेदन टेबल दर टेबल घूमता रहा। कृषि विभाग के सचिव ने इसे नोडल अधिकारी को भेजा। फिर लोक शिकायत निवारण में गया और आखिरकार जिला स्तर पर पहुंचा। वहां कृषि पदाधिकारी के प्रतिनिधि ने साफ कह दिया कि हमें कोई जानकारी नहीं। उनका कोई दायित्व नहीं बनता। अगर विभाग को पता ही नहीं तो यह संयंत्र कहां गायब हो गया? जमीन ने निगल लिया या आसमान?

आज वह शिलान्यास स्थल एक भूली-बिसरी कहानी है। बोर्ड कोई चुरा ले गया, शिलापट्ट जर्जर होकर आंसू बहा रही है। किसान अब भी जैविक उर्वरकों के लिए संघर्ष कर रहे हैं, जबकि देशभर में ऑर्गेनिक फार्मिंग को बढ़ावा दिया जा रहा है। लेकिन यहां सियासत की चक्की में पिस गई यह योजना। नालंदा के सांसद कहते हैं कि यह हमारे समय का मामला नहीं है। लेकिन जनता पूछ रही है- दोषी कौन? हुक्मरान, सिस्टम या हम खुद, जो ऐसे वादों पर भरोसा करते हैं?

यह सिर्फ एक संयंत्र की कहानी नहीं, बल्कि विकास के नाम पर ठगी की मिसाल है। अगर सरकारें ईमानदार होतीं तो शब्दों का वजन होता। लेकिन यहां तो शिलापट्ट भी मजाक बन गए हैं। जनता अब चीख रही है- जवाब दो! क्या 2025 में भी यह सवाल अनसुना रहेगा या कोई कार्रवाई होगी? समय बताएगा, लेकिन इतिहास तो यही कहता है कि ऐसे ‘गढ़े मुर्दे’ उखाड़ने से कुछ नहीं बदलता। फिर भी एक्सपर्ट मीडिया न्यूज इस मुद्दे को उठाता रहेगा, क्योंकि जनता का हक है- सच्चाई जानने का।

(यह तत्थपरक समाचार स्थानीय स्रोतों, RTI दस्तावेजों और जनता की आवाज पर आधारित है।)

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